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Dalit Stree Kendrit Kahaniyan
Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
संपादन रजत रानी मीनू, सह-संपादक वंदना
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
संपादन रजत रानी मीनू, सह-संपादक वंदना
Language:
Hindi
Format:
Paperback
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9789355188571
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
292
दलित शब्द अपने आप में, श्रेष्ठ सभ्यता का दम्भ भरने वाले समाज के चेहरे का, बहुत बड़ा घाव है। तिस पर अगर यह स्त्री शब्द के साथ जुड़ा हो तो और विडम्बनापूर्ण बन जाता है। पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों की स्थिति दोयम दर्जे की ही बनी हुई है। इन्हीं विडम्बनात्मक स्थितियों को उभारने का प्रयास है यह संकलन। इस संकलन की कहानियों में आयी स्त्री चरित्र – सरबतिया, मारिया, कजली, रुक्खो, सुनीता, अमली, रमा, प्रज्ञा, कौसर, उषा, सुरजी बुआ, अपूर्वा, रोशनी, गंगोदेई, चरिता, फूलमती-चन्दो, उमा, नविता और बेस्ट ऑफ़ करवाचौथ की नायिका आदि दलित स्त्री की अस्मिता को बड़े सशक्त ढंग से परिरक्षित करती हैं। दलित स्त्री की पीड़ा न केवल प्रायः कम पढ़े-लिखे माने जाने वाले ग्रामीण समाज तक सीमित है, बल्कि आधुनिकता की चमक ओढ़े और पढ़ा-लिखा माने जाने वाले महानगरीय जीवन में भी उतनी ही गाढ़ी है। इस संकलन की कहानियों में ग्रामीण और महानगरीय जीवन में संघर्ष करती और जड़ स्थापनाओं से लड़ती स्त्रियाँ हैं।
संघर्षशील समाजों और वर्गों की एक विशेषता यह भी होती है कि वे न सिर्फ़ अपनी स्थितियों से मुक्ति का प्रयास करते, बल्कि वैचारिक जड़ताओं को भी छिन्न-भिन्न करते हैं। ऐसे समाजों में स्त्रियों की भूमिका उल्लेखनीय होती है। वे परदे के पीछे भिंची-सकुचाई नहीं होतीं, चारदीवारी में बन्द तथाकथित उच्च वर्ण की स्त्रियों की तरह दब्बू और समझौतापरस्त नहीं होती। हर मोर्चे पर संघर्ष करती दिखती हैं। इस अर्थ में दलित स्त्रियों ने सदा से अग्रणी भूमिका निभाई है। पुरुषों की अपेक्षा उनकी छवि एक अधिक जुझारू और दबंग व्यक्ति की है। दलित समाज की स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा अधिक साहसिक क़दम उठाते देखा जाता है। जहाँ पुरुष समझौतापरस्त नज़र आने लगता है, वहाँ स्त्रियाँ तनकर खड़ी हो जाती हैं। इस संकलन में ऐसे कई स्त्री चरित्र हैं, जो न सिर्फ अपनी अस्मिता, बल्कि पूरे वर्ग की चेतना को धार देती हैं। इस तरह कई बार दलित समाज भी उनकी वैचारिक डोर को पकड़ यथास्थिति को चुनौती देता, उस मानसिकता से बाहर निकलने का प्रयास करता देखा जाता है। इन अर्थों में स्त्रियाँ अधिक साहसी, अधिक आज़ादख़याल और मुक्त नज़र आती हैं।
अच्छी बात है कि दलित लेखन की उम्र कम होने के बावजूद इसने अपनी परिपक्व चिन्तन-धारा विकसित कर ली है और इसमें स्त्री रचनाकारों की भी एक बड़ी संख्या जुड़ती गयी है। इस संकलन में इस दौर की सभी प्रमुख स्त्री कथाकारों की कहानियाँ सम्मिलित हैं। स्त्री रचनाकारों के स्त्री पात्र इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं कि वे कथाशिल्प के प्रचलित खाँचों से बाहर निकलकर अनुभव की ठोस ज़मीन पर विकसित हुई हैं। उनकी दुनिया अधिक वास्तविक है। उनके अनुभव अधिक प्रामाणिक हैं।
इस संकलन का सम्पादन करते हुए रजतरानी मीनू ने इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि इसमें हर क्षेत्र की दलित स्त्रियों का समावेश हो सके। हर इलाके की दलित स्त्रियों की स्थिति उजागर हो सके। इसलिए उन्होंने बड़ी सावधानी से कहानियों का चुनाव करते हुए उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब आदि के परिवेश का भी ध्यान रखा है। इसमें महानगरीय जीवन में दलित की स्थिति पर केन्द्रित कहानियाँ भी हैं। इस तरह इस संकलन की कहानियों से पूरे भारत की दलित स्त्री का मुकम्मल चेहरा उभरता है।
– सूर्यनाथ सिंह
एसोसिएट सम्पादक, जनसत्ता
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Description
दलित शब्द अपने आप में, श्रेष्ठ सभ्यता का दम्भ भरने वाले समाज के चेहरे का, बहुत बड़ा घाव है। तिस पर अगर यह स्त्री शब्द के साथ जुड़ा हो तो और विडम्बनापूर्ण बन जाता है। पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों की स्थिति दोयम दर्जे की ही बनी हुई है। इन्हीं विडम्बनात्मक स्थितियों को उभारने का प्रयास है यह संकलन। इस संकलन की कहानियों में आयी स्त्री चरित्र – सरबतिया, मारिया, कजली, रुक्खो, सुनीता, अमली, रमा, प्रज्ञा, कौसर, उषा, सुरजी बुआ, अपूर्वा, रोशनी, गंगोदेई, चरिता, फूलमती-चन्दो, उमा, नविता और बेस्ट ऑफ़ करवाचौथ की नायिका आदि दलित स्त्री की अस्मिता को बड़े सशक्त ढंग से परिरक्षित करती हैं। दलित स्त्री की पीड़ा न केवल प्रायः कम पढ़े-लिखे माने जाने वाले ग्रामीण समाज तक सीमित है, बल्कि आधुनिकता की चमक ओढ़े और पढ़ा-लिखा माने जाने वाले महानगरीय जीवन में भी उतनी ही गाढ़ी है। इस संकलन की कहानियों में ग्रामीण और महानगरीय जीवन में संघर्ष करती और जड़ स्थापनाओं से लड़ती स्त्रियाँ हैं।
संघर्षशील समाजों और वर्गों की एक विशेषता यह भी होती है कि वे न सिर्फ़ अपनी स्थितियों से मुक्ति का प्रयास करते, बल्कि वैचारिक जड़ताओं को भी छिन्न-भिन्न करते हैं। ऐसे समाजों में स्त्रियों की भूमिका उल्लेखनीय होती है। वे परदे के पीछे भिंची-सकुचाई नहीं होतीं, चारदीवारी में बन्द तथाकथित उच्च वर्ण की स्त्रियों की तरह दब्बू और समझौतापरस्त नहीं होती। हर मोर्चे पर संघर्ष करती दिखती हैं। इस अर्थ में दलित स्त्रियों ने सदा से अग्रणी भूमिका निभाई है। पुरुषों की अपेक्षा उनकी छवि एक अधिक जुझारू और दबंग व्यक्ति की है। दलित समाज की स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा अधिक साहसिक क़दम उठाते देखा जाता है। जहाँ पुरुष समझौतापरस्त नज़र आने लगता है, वहाँ स्त्रियाँ तनकर खड़ी हो जाती हैं। इस संकलन में ऐसे कई स्त्री चरित्र हैं, जो न सिर्फ अपनी अस्मिता, बल्कि पूरे वर्ग की चेतना को धार देती हैं। इस तरह कई बार दलित समाज भी उनकी वैचारिक डोर को पकड़ यथास्थिति को चुनौती देता, उस मानसिकता से बाहर निकलने का प्रयास करता देखा जाता है। इन अर्थों में स्त्रियाँ अधिक साहसी, अधिक आज़ादख़याल और मुक्त नज़र आती हैं।
अच्छी बात है कि दलित लेखन की उम्र कम होने के बावजूद इसने अपनी परिपक्व चिन्तन-धारा विकसित कर ली है और इसमें स्त्री रचनाकारों की भी एक बड़ी संख्या जुड़ती गयी है। इस संकलन में इस दौर की सभी प्रमुख स्त्री कथाकारों की कहानियाँ सम्मिलित हैं। स्त्री रचनाकारों के स्त्री पात्र इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं कि वे कथाशिल्प के प्रचलित खाँचों से बाहर निकलकर अनुभव की ठोस ज़मीन पर विकसित हुई हैं। उनकी दुनिया अधिक वास्तविक है। उनके अनुभव अधिक प्रामाणिक हैं।
इस संकलन का सम्पादन करते हुए रजतरानी मीनू ने इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि इसमें हर क्षेत्र की दलित स्त्रियों का समावेश हो सके। हर इलाके की दलित स्त्रियों की स्थिति उजागर हो सके। इसलिए उन्होंने बड़ी सावधानी से कहानियों का चुनाव करते हुए उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब आदि के परिवेश का भी ध्यान रखा है। इसमें महानगरीय जीवन में दलित की स्थिति पर केन्द्रित कहानियाँ भी हैं। इस तरह इस संकलन की कहानियों से पूरे भारत की दलित स्त्री का मुकम्मल चेहरा उभरता है।
– सूर्यनाथ सिंह
एसोसिएट सम्पादक, जनसत्ता
About Author
रजत रानी मीनू
जन्म : गाँव जीराभूड़, तहसील तिलहर, जिला शाहजहाँपुर, उत्तर प्रदेश के दलित परिवार में जन्म। सामाजिक एवं स्त्री सम्बन्धित विषयों पर पठन, लेखन और सामाजिक चेतना के कार्यों में निरन्तर भागीदारी।
शैक्षिक योग्यताएँ : पोस्ट डॉक्टरल रिसर्च अवार्ड, यू.जी.सी. (2012-2104), पीएच. डी., जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली (2000), एम. फिल., जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली (1995), एम.ए. हिन्दी, रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली, उ.प्र. (1989)।
प्रकाशित रचनाएँ: पिता भी तो होते हैं माँ (कविता संग्रह), हम कौन हैं? (कहानी संग्रह), हिन्दी दलित कविता, हिन्दी दलित कथा साहित्य की अवधारणाएँ और विधाएँ (आलोचना), अस्मितामूलक विमर्श और हिन्दी साहित्य (आलोचना एवं सम्पादन), जाति, स्त्री और साहित्य (आलेख संकलन), भारतीय साहित्य में दलित स्त्री, रजनी तिलक एक अधूरा सफ़र.., अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में हिन्दी साहित्य, हाशिए से बाहर (सम्पादन कहानी संकलन) (सम्पादित), दलित दखल - (सह सम्पादन)।
पुस्तकों के अलावा हंस, कथादेश, आउटलुक, इंडिया टुडे, युद्धरत आम आदमी, अन्यथा, अपेक्षा, दलित दस्तक, हिन्दुस्तानी जुवान, जनसत्ता, एकेडमॉस इत्यादि राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, कविता, समीक्षात्मक लेख प्रकाशित होते रहे हैं।
रचनाओं पर अनुवाद एवं शोध कार्य : भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में कहानियाँ, कविताएँ, मराठी, कन्नड़, पंजाबी, तेलुगु, फ्रेंच, इटेलियन, अंग्रेज़ी इत्यादि भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। हम कौन हैं?, कहानी संग्रह पर भारतीय भाषा केन्द्र, जे.एन.यू. से हिन्दी और फ्रेंच भाषा में शोध कार्य हुआ। हम कौन हैं? कहानी पर रोम विश्वविद्यालय से इटैलियन भाषा में शोध कार्य। पिता भी तो होते हैं माँ लखनऊ विश्वविद्यालय से शोध कार्य । आशिक रूप से एक दर्जन से अधिक विश्वविद्यालय में रचनाओं पर शोध कार्य हुए।
सम्मान / पुरस्कार : डॉ. अम्बेडकर नेशनल अवार्ड, दलित साहित्य अकादमी, दिल्ली, 2022, सावित्रीबाई फुले सम्मान 3 जनवरी 2020, बहुजन कल्चरल फ्रंट, दिल्ली विश्वविद्यालय, डॉ. अम्बेडकर सम्मान 2019, अम्बेडकरवादी लेखक संघ (अलेस), दिल्ली, इंटरनेशनल अवार्ड, 4-5 अगस्त 2014 को फ़्रांस की राजधानी पेरिस में 'थर्ड अम्बेडकर इंटरनेशनल कन्वेंस' में अम्बेडकर लिटररी विज़न, न्यजर्सी, अमेरिका द्वारा सम्मानित किया गया, 'नवें दशक की हिन्दी दलित कविता' पर, दलित साहित्य अकादमी, उज्जैन, म.प्र. द्वारा पुरस्कृत, 1997।
सम्प्रति: प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, कमला नेहरू कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय)
निवास : 1/122, वसुन्धरा, गाज़ियाबाद- 201012, उत्तर प्रदेश
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