Chitthiyon Ke Din

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
निर्मल वर्मा, सम्पादक : गगन गिल
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Vani Prakashan
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निर्मल वर्मा, सम्पादक : गगन गिल
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Hindi
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Hardback

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SKU 9789350001691 Category
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निर्मल वर्मा जितना मौन पसन्द थे, उतना ही संवाद- प्रिय- इसे मानने के पर्याप्त कारण हैं, विशेषकर उनके पत्रों की इस तीसरी पुस्तक के अवसर पर। एक आत्मीय स्पेस में लिखे गये ये पत्र अलग-अलग व्यक्तियों को लिखे जाने के बावजूद पारिवारिक ऊष्मा लिये हुए हैं।

निस्संग रहते हुए भी निर्मल कितना दूसरों के संग थे, उनकी व्यावहारिक परिस्थितियों से ले कर उनकी सर्जनात्मक आकुलता तक, ये पत्र इसके साक्षी हैं। अधिकतर ये पत्र, विशेषकर रमेशचन्द्र शाह और ज्योत्स्ना मिलन के नाम, सन् अस्सी के दशक में लिखे गये पत्र हैं। यह वह दूसरी दुनिया थी, जो देखने पर बाहर से दिखायी नहीं देती। इसमें उनका अकेलापन था और अपनी व्यक्तिगत लेखकीय नियति का सामना करने की तैयारी ।

निर्मल वर्मा आज यदि अलग दिखते हैं, तो अपने जीने या सहने में नहीं। इस सब जंजाल के जो अर्थ वह अपने लेखन से दे पाये उसमें। मित्रों से बहस करना उनका पैशन था। जब ये बहसें रू-ब-रू नहीं हो पाती थीं, तो पत्रों चली आती थीं। दूसरों से संवाद में ही जीवन का यह अति-यथार्थ सँभल पाता है, सहनीय हो पाता है ये पत्र इसका दस्तावेज़ है । निर्मल वर्मा के शोधार्थियों और पाठकों को इन पत्रों में उनके रचना संसार के कई नये अन्तःसूत्र मिलेंगे, ऐसा निश्चित है।

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Description

निर्मल वर्मा जितना मौन पसन्द थे, उतना ही संवाद- प्रिय- इसे मानने के पर्याप्त कारण हैं, विशेषकर उनके पत्रों की इस तीसरी पुस्तक के अवसर पर। एक आत्मीय स्पेस में लिखे गये ये पत्र अलग-अलग व्यक्तियों को लिखे जाने के बावजूद पारिवारिक ऊष्मा लिये हुए हैं।

निस्संग रहते हुए भी निर्मल कितना दूसरों के संग थे, उनकी व्यावहारिक परिस्थितियों से ले कर उनकी सर्जनात्मक आकुलता तक, ये पत्र इसके साक्षी हैं। अधिकतर ये पत्र, विशेषकर रमेशचन्द्र शाह और ज्योत्स्ना मिलन के नाम, सन् अस्सी के दशक में लिखे गये पत्र हैं। यह वह दूसरी दुनिया थी, जो देखने पर बाहर से दिखायी नहीं देती। इसमें उनका अकेलापन था और अपनी व्यक्तिगत लेखकीय नियति का सामना करने की तैयारी ।

निर्मल वर्मा आज यदि अलग दिखते हैं, तो अपने जीने या सहने में नहीं। इस सब जंजाल के जो अर्थ वह अपने लेखन से दे पाये उसमें। मित्रों से बहस करना उनका पैशन था। जब ये बहसें रू-ब-रू नहीं हो पाती थीं, तो पत्रों चली आती थीं। दूसरों से संवाद में ही जीवन का यह अति-यथार्थ सँभल पाता है, सहनीय हो पाता है ये पत्र इसका दस्तावेज़ है । निर्मल वर्मा के शोधार्थियों और पाठकों को इन पत्रों में उनके रचना संसार के कई नये अन्तःसूत्र मिलेंगे, ऐसा निश्चित है।

About Author

निर्मल वर्मा निर्मल वर्मा (1929-2005) भारतीय मनीषा की उस उज्ज्वल परम्परा के प्रतीक पुरुष हैं, जिनके जीवन में कर्म, चिन्तन और आस्था के बीच कोई फाँक नहीं रह जाती। कला का मर्म जीवन का सत्य बन जाता है और आस्था की चुनौती जीवन की कसौटी। ऐसा मनीषी अपने होने की कीमत देता है और माँगता भी। अपने जीवनकाल में गलत समझे जाना उसकी नियति है। और उससे बेदाग उबर आना उसका पुरस्कार । निर्मल वर्मा के हिस्से में भी ये दोनों बखूब से आये । स्वतन्त्र भारत की आरम्भिक आधी से अधिक सदी निर्मल वर्मा की लेखकीय उपस्थिति से गरिमांकित रही। वह उन थोड़े से रचनाकारों में थे जिन्होंने संवेदना की व्यक्तिगत स्पेस और उसके जागरूक वैचारिक हस्तक्षेप के बीच एक सुन्दर सन्तुलन का आदर्श प्रस्तुत किया। उनके रचनाकार का सबसे महत्त्वपूर्ण दशक, साठ का दशक, चेकोस्लोवाकिया के विदेश प्रवास में बीता। अपने लेखन में उन्होंने न केवल मनुष्य के दूसरे मनुष्यों के साथ सम्बन्धों की चीर-फाड़ की, वरन उसकी सामाजिक, राजनीतिक भूमिका क्या हो, तेज़ी से बदलते जाते हमारे आधुनिक समय में एक प्राचीन संस्कृति के वाहक के रूप में उसके आदर्शों की पीठिका क्या हो, इन सब प्रश्नों का भी सामना किया। अपने जीवन काल में निर्मल वर्मा साहित्य के लगभग सभी श्रेष्ठ सम्मानों से समादृत हुए, जिनमें साहित्य अकादेमी पुरस्कार (1985), ज्ञानपीठ पुरस्कार (1999), साहित्य अकादेमी महत्तर सदस्यता (2005) उल्लेखनीय हैं। भारत के राष्ट्रपति द्वारा तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मभूषण उन्हें सन् 2002 में दिया गया। अक्टूबर 2005 में निधन के समय निर्मल वर्मा भारत सरकार द्वारा औपचारिक रूप से नोबेल पुरस्कार के लिए नामित थे।

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