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Chal Khusaro Ghar Aapne (HB)
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…‘कैसी विचित्र पुतलियाँ लग रही थीं मालती की। जैसे दगदगाती हीरे की दो कनियाँ हों, बार-बार वह अपनी पतली जिह्वा को अपने रक्तवर्णी अधरों पर फेर रही थी, यह तो नित्य की सौम्य-शान्त स्वामिनी नहीं, जैसे भयंकर अग्निशिखा लपटें ले रही थी…।’ यह कहानी है कुमुद की, जिसे बिगड़ैल भाई-बहनों और आर्थिक, पारिवारिक परिस्थितियों ने सुदूर बंगाल जाकर एक राजासाहब की मानसिक रूप से बीमार पत्नी की परिचर्या का दुरूह भार थमा दिया है।
मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों का मनोसंसार, निम्न-मध्यवर्गीय परिवार की कमासुत अनब्याही बेटी और उसकी ग्लानि से दबी जाती माँ का मनोविज्ञान, शिवानी के पारस स्पर्श से समृद्ध होकर इस उपन्यास को एक अद्भुत नाटकीय कलेवर और पठनीयता देते हैं।
…‘कैसी विचित्र पुतलियाँ लग रही थीं मालती की। जैसे दगदगाती हीरे की दो कनियाँ हों, बार-बार वह अपनी पतली जिह्वा को अपने रक्तवर्णी अधरों पर फेर रही थी, यह तो नित्य की सौम्य-शान्त स्वामिनी नहीं, जैसे भयंकर अग्निशिखा लपटें ले रही थी…।’ यह कहानी है कुमुद की, जिसे बिगड़ैल भाई-बहनों और आर्थिक, पारिवारिक परिस्थितियों ने सुदूर बंगाल जाकर एक राजासाहब की मानसिक रूप से बीमार पत्नी की परिचर्या का दुरूह भार थमा दिया है।
मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों का मनोसंसार, निम्न-मध्यवर्गीय परिवार की कमासुत अनब्याही बेटी और उसकी ग्लानि से दबी जाती माँ का मनोविज्ञान, शिवानी के पारस स्पर्श से समृद्ध होकर इस उपन्यास को एक अद्भुत नाटकीय कलेवर और पठनीयता देते हैं।
About Author
शिवानी
जन्म : 17 अक्तूबर, 1923 को विजयादशमी के दिन राजकोट (गुजरात)।
शिवानी की पहली रचना अल्मोड़ा से निकलनेवाली ‘नटखट’ नामक एक बाल-पत्रिका में छपी थी। तब वे मात्र बारह वर्ष की थीं। इसके बाद वे मालवीय जी की सलाह पर पढ़ने के लिए अपनी बड़ी बहन जयंती तथा भाई त्रिभुवन के साथ शान्तिनिकेतन भेजी गईं, जहाँ स्कूल तथा कॉलेज की पत्रिकाओं में बांग्ला में उनकी रचनाएँ नियमित रूप से छपती रहीं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उन्हें ‘गोरा’ पुकारते थे। उनकी ही सलाह कि हर लेखक को मातृभाषा में ही लेखन करना चाहिए, शिरोधार्य कर उन्होंने हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया। शिवानी की पहली लघु रचना ‘मैं मुर्गा हूँ’ 1951 में ‘धर्मयुग’ में छपी थी। इसके बाद आई उनकी कहानी ‘लाल हवेली’ और तब से जो लेखन-क्रम शुरू हुआ, उनके जीवन के अन्तिम दिनों तक अनवरत चलता रहा। उनकी अन्तिम दो रचनाएँ ‘सुनहुँ तात यह अकथ कहानी’ तथा ‘सोने दे’ उनके विलक्षण जीवन पर आधारित आत्मवृत्तात्मक आख्यान हैं।
1979 में शिवानी जी को ‘पद्मश्री’ से अलंकृत किया गया। उपन्यास, कहानी, व्यक्ति-चित्र, बाल उपन्यास और संस्मरणों के अतिरिक्त, लखनऊ से निकलनेवाले पत्र ‘स्वतंत्र भारत’ के लिए शिवानी ने वर्षों तक एक चर्चित स्तम्भ ‘वातायन’ भी लिखा। उनके लखनऊ स्थित आवास-66, गुलिस्ताँ कालोनी के द्वार लेखकों, कलाकारों, साहित्य-प्रेमियों के साथ समाज के हर वर्ग से जुड़े उनके पाठकों के लिए सदैव खुले रहे।
निधन : 21 मार्च, 2003 (दिल्ली)।
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