SaleHardback
Atirikt Naheen
Publisher:
Vani prakashan
| Author:
Vinod Kumar Shukla
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
₹350 ₹263
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1-4 Days
In stock
Weight | 200 g |
---|---|
Book Type |
ISBN:
Categories: Hindi, Literature & Translations
Page Extent:
120
आज़ादी के बाद हिन्दी कविता को जिन कवियों ने अपनी राह चलते एक ख़ास शैली में समृद्ध करने का काम किया, उनमें एक नाम विनोद कुमार शुक्ल का है। अपने कथ्य लिए जैसी भाषा, शिल्प और दृष्टि ईजाद की है इस कवि ने, वह अन्यत्र दुर्लभ है। अतिरिक्त नहीं विनोद कुमार शुक्ल का इस जगत् से जो कुछ भी सम्बद्ध, उसकी कविताओं का संग्रह है, उसके अतिरिक्त नहीं। इसलिए इसमें जो लोक है, वह इस तरह जिया हुआ कि व्यक्त में अव्यक्त कुछ नहीं रह जाता, कुछ अगर रह भी जाता है तो वह वेदना के तल पर हमारे भीतर बहुत देर तक ठहरा रहता है- ‘हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था / व्यक्ति को मैं नहीं जानता था / हताशा को जानता था’; या इस तरह कि ‘तन्दूर में बनती हुई रोटी / सबके हिस्से की बनती हुई रोटी नहीं है।’ विनोद कुमार शुक्ल शब्दों से खेलने वाले नहीं, उससे आगाह करने वाले कवि हैं, और ऐसा वे इसलिए कर पाते हैं कि घटनाओं को दूर से नहीं, बहुत क़रीब से देखते गुज़रते हैं, तभी कह भी पाते हैं – ‘किसी को काम नहीं मिला के आखिर में हत्या करने का उनको काम मिला।’ और यह कैसी विडम्बना है कि जो कवि कहता है- ‘कभी धर्म और जाति के / राजनैतिक, अराजनैतिक जुलूस से दबकर / धर्मविहीन, जातिविहीन चीख चीखता हूँ’, वही जब भविष्य- सी मरी हुई एक छोटी-सी लड़की को पीछे के दरवाज़े से घर से बचाकर बाहर निकालते हुए देखता है तो कहता है कि ऐसे में ‘मेरी चीख़ अवाक् होती है’ । छीजते काल का यह भार एक कवि का निजी नहीं, बल्कि एक पूरे युग का है जो उसे बेध रहा। लेकिन कवि इस युग में जो भी उथल-पुथल, उसे गहरे जान रहा है और जब गहरे जान रहा तो तमाम आशंकाओं के बीच बहुत देर तक अवाक् नहीं रह सकता, क्योंकि अगर ऐसा करता है तो उसकी मनुष्यता चुक जायेगी। इसलिए वह जिस व्यवस्था में सुदूर जंगल को उजड़ते और आदिवासियों को छाया और भूख के घेरे में बेहोश पड़े देखता है, तब जब बहुतेरे आधुनिकता की तेज़ गति में शामिल, पूछता है ‘कौन डॉक्टर को बुलायेगा / …. प्राथमिक उपचार क्या होगा/ बेहोशी में लगेगा कि अभी सोया हुआ है और उसे सोने दिया जाये बेहोशी में मर जाये तो / कैसे पता चलेगा कि मर गया।’ यह सिर्फ़ एक बेचैनी नहीं, तीक्ष्ण मारकता भी है, जो विचलित कर देती है। विनोद कुमार शुक्ल के पास जो उम्मीद है, वह जीवन और उसके विस्थापित होने को लेकर अपनी गहन सोच में एक अलग ही दृश्य रचती है- ‘कि सब जगह हो सब जगह के पास / और अकाल, आतंक, दुकाल में अबकी साल / गाँव से एक भी विस्थापित न हो।’ और मुक्ति की जब बानगी रचते हैं तो कैनवस पर क्या रंग बिखरते हैं- ‘शब्दहीनता में किसी भी कविता के पहले मैं मुक्ति को /मुक्तियों में दुहराता हूँ ध्वनिशः / जो झुण्ड में उड़ जाता है।’ और यही कारण है कि कवि यह मानता है- ‘सबके हिस्से का आकाश/पूरा आकाश है।’ इसलिए- ‘कितना बहुत है/ परन्तु अतिरिक्त एक भी नहीं।’ कुल मिलाकर अगर इस संग्रह की वनलाइन को डिफाइन करें तो विनोद कुमार शुक्ल का यह संग्रह अतिरिक्त नहीं एक ऐसे कालयात्री का संग्रह है जिसकी कविताएँ अपने यथार्थ से निरन्तर इस बोध के साथ टकराती रहती हैं कि हम कम-से-कम मनुष्य बने रह सकें, न केवल मनुष्यों के लिए बल्कि इस पूरे जगत् के लिए जिसकी सम्बद्धता से परे कुछ नहीं-न शेष न अवशेष !
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Description
आज़ादी के बाद हिन्दी कविता को जिन कवियों ने अपनी राह चलते एक ख़ास शैली में समृद्ध करने का काम किया, उनमें एक नाम विनोद कुमार शुक्ल का है। अपने कथ्य लिए जैसी भाषा, शिल्प और दृष्टि ईजाद की है इस कवि ने, वह अन्यत्र दुर्लभ है। अतिरिक्त नहीं विनोद कुमार शुक्ल का इस जगत् से जो कुछ भी सम्बद्ध, उसकी कविताओं का संग्रह है, उसके अतिरिक्त नहीं। इसलिए इसमें जो लोक है, वह इस तरह जिया हुआ कि व्यक्त में अव्यक्त कुछ नहीं रह जाता, कुछ अगर रह भी जाता है तो वह वेदना के तल पर हमारे भीतर बहुत देर तक ठहरा रहता है- ‘हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था / व्यक्ति को मैं नहीं जानता था / हताशा को जानता था’; या इस तरह कि ‘तन्दूर में बनती हुई रोटी / सबके हिस्से की बनती हुई रोटी नहीं है।’ विनोद कुमार शुक्ल शब्दों से खेलने वाले नहीं, उससे आगाह करने वाले कवि हैं, और ऐसा वे इसलिए कर पाते हैं कि घटनाओं को दूर से नहीं, बहुत क़रीब से देखते गुज़रते हैं, तभी कह भी पाते हैं – ‘किसी को काम नहीं मिला के आखिर में हत्या करने का उनको काम मिला।’ और यह कैसी विडम्बना है कि जो कवि कहता है- ‘कभी धर्म और जाति के / राजनैतिक, अराजनैतिक जुलूस से दबकर / धर्मविहीन, जातिविहीन चीख चीखता हूँ’, वही जब भविष्य- सी मरी हुई एक छोटी-सी लड़की को पीछे के दरवाज़े से घर से बचाकर बाहर निकालते हुए देखता है तो कहता है कि ऐसे में ‘मेरी चीख़ अवाक् होती है’ । छीजते काल का यह भार एक कवि का निजी नहीं, बल्कि एक पूरे युग का है जो उसे बेध रहा। लेकिन कवि इस युग में जो भी उथल-पुथल, उसे गहरे जान रहा है और जब गहरे जान रहा तो तमाम आशंकाओं के बीच बहुत देर तक अवाक् नहीं रह सकता, क्योंकि अगर ऐसा करता है तो उसकी मनुष्यता चुक जायेगी। इसलिए वह जिस व्यवस्था में सुदूर जंगल को उजड़ते और आदिवासियों को छाया और भूख के घेरे में बेहोश पड़े देखता है, तब जब बहुतेरे आधुनिकता की तेज़ गति में शामिल, पूछता है ‘कौन डॉक्टर को बुलायेगा / …. प्राथमिक उपचार क्या होगा/ बेहोशी में लगेगा कि अभी सोया हुआ है और उसे सोने दिया जाये बेहोशी में मर जाये तो / कैसे पता चलेगा कि मर गया।’ यह सिर्फ़ एक बेचैनी नहीं, तीक्ष्ण मारकता भी है, जो विचलित कर देती है। विनोद कुमार शुक्ल के पास जो उम्मीद है, वह जीवन और उसके विस्थापित होने को लेकर अपनी गहन सोच में एक अलग ही दृश्य रचती है- ‘कि सब जगह हो सब जगह के पास / और अकाल, आतंक, दुकाल में अबकी साल / गाँव से एक भी विस्थापित न हो।’ और मुक्ति की जब बानगी रचते हैं तो कैनवस पर क्या रंग बिखरते हैं- ‘शब्दहीनता में किसी भी कविता के पहले मैं मुक्ति को /मुक्तियों में दुहराता हूँ ध्वनिशः / जो झुण्ड में उड़ जाता है।’ और यही कारण है कि कवि यह मानता है- ‘सबके हिस्से का आकाश/पूरा आकाश है।’ इसलिए- ‘कितना बहुत है/ परन्तु अतिरिक्त एक भी नहीं।’ कुल मिलाकर अगर इस संग्रह की वनलाइन को डिफाइन करें तो विनोद कुमार शुक्ल का यह संग्रह अतिरिक्त नहीं एक ऐसे कालयात्री का संग्रह है जिसकी कविताएँ अपने यथार्थ से निरन्तर इस बोध के साथ टकराती रहती हैं कि हम कम-से-कम मनुष्य बने रह सकें, न केवल मनुष्यों के लिए बल्कि इस पूरे जगत् के लिए जिसकी सम्बद्धता से परे कुछ नहीं-न शेष न अवशेष !
About Author
विनोद कुमार शुक्ल जन्म : 1 जनवरी, 1937 को राजनांदगाँव (छत्तीसगढ़) में। प्रमुख कृतियाँ : पहला कविता-संग्रह 1971 में ‘लगभग जयहिन्द’ (‘पहल’ सीरीज़ के अन्तर्गत), ‘वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहनकर विचार की तरह’ (1981), ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’ (1992), ‘अतिरिक्त नहीं’ (2000), ‘कविता से लम्बी कविता’ (2001), ‘कभी के बाद अभी’ (सभी कविता-संग्रह); 1988 में ‘पेड़ पर कमरा’ (‘पूर्वग्रह’ सीरीज़ के अन्तर्गत) तथा 1996 में ‘महाविद्यालय’ (कहानी-संग्रह); ‘नौकर की कमीज़’ (1979), ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’, ‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़’ (सभी उपन्यास)। मेरियोला आफ्रीदी द्वारा इतालवी में अनुवादित एक कविता-पुस्तक का इटली में प्रकाशन, इतालवी में ही पेड़ पर कमरा का भी अनुवाद। इसके अलावा कुछ रचनाओं का मराठी, मलयालम, अंग्रेज़ी तथा जर्मन भाषाओं में अनुवाद। मणि कौल द्वारा 1999 में ‘नौकर की कमीज़’ पर फ़िल्म का निर्माण। ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ पर फ़िल्म-निर्माण का कार्य अधूरा। ‘आदमी की औरत’ और ‘पेड़ पर कमरा’ सहित कुछ कहानियों पर बनी फ़िल्म ‘आदमी की औरत’ (निर्देशक—अमित) को वेनिस फ़िल्म फ़ेस्टिवल के 66वें समारोह 2009 में ‘स्पेशल इवेंट पुरस्कार’। दो वर्ष के लिए निराला सृजनपीठ में अतिथि साहित्यकार रहे (1994-1996)। सम्मान : ‘गजानन माधव मुक्तिबोध फ़ेलोशिप’, ‘रज़ा पुरस्कार’, ‘दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान’, ‘रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ पर ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ आदि। इन्दिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय में कृषि-विस्तार के सह-प्राध्यापक पद से 1996 में सेवानिवृत्त, अब स्वतंत्र लेखन।
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