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अरविंद : महर्षि बनने से पूर्व

जवाहर लाल नेहरू अपना प्रसिद्ध भाषण “tryst with the destiny” दे चुके थे। 31 वर्षीय उस्ताद बिस्मिल्लाह खान लाल किले की प्राचीर से अपनी शहनाई से काफ़ी राग  की प्रस्तुति दे रहे थे । वहीं  दिल्ली से सुदूर दक्षिण में पांडिचेरी में  पूर्ण स्वराज्य के अपने स्वप्न को पूरा होते हुए देख रहे थे महान स्वतन्त्रता सेनानी एवं महर्षि अरविंद घोष । 

15 अगस्त 1947 को भारत अपनी स्वतंत्रता का पहला प्रभात देख रहा था और महर्षि अरविंद के लिए अपने 75 वे जन्मदिवस पर इससे बड़ा क्या उपहार हो सकता था । महर्षि अरविंद का जन्म 15 अगस्त 1872 को कलकत्ता में हुआ था, आज हम भारतीय  अपना 75 वां स्वतन्त्रता दिवस और महर्षि अरविंद की 150 वीं जयंती मना रहे हैं । 

श्री अरविंद के पिताजी डॉ कृष्णधन घोष बंगाल के एक  प्रसिद्ध डॉक्टर थे और जिला रंगपुर (वर्तमान में बांग्लादेश में ) सिविल सर्जन के पद पर रहे थे । वे अत्यंत उदार एवं परोपकारी थे और आवश्यकता होने पर वे  रोगियों की पैसे और वस्त्रों से भी सहायता करते थे । डॉ घोष पाश्चात्य संस्कृति के कट्टर समर्थक थे और वे चाहते थे की उनके बच्चो पर भी भारतीयता का प्रभाव न हो । अरविंद के घर में नौकर भी स्थानीय न होकर अंग्रेजी भाषी थे । 

मात्र 5 वर्ष की आयु में अरविंद अपने बड़े भाइयों के साथ दार्जिलिंग के कान्वेंट स्कूल में प्रवेश कर चुके थे । उच्च शिक्षा के लिए अरविंद और उनके भाइयों को इंग्लैंड भेज दिया गया । जहां वह ईसाई पादरी रेवेरेंड ड्रिवेट्ट के घर उनके रहने की व्यवस्था की गयी । ड्रिवेट्ट लैटिन भाषा के अच्छे ज्ञाता थे और उनसे अरविंद ने भी लैटिन का अच्छा ज्ञान प्राप्त  कर लिया था । बाद में विद्यालय के एक प्राचार्य द्वारा अरविंद के लैटिन ज्ञान से प्रभावित होकर उन्हें ग्रीक भाषा का ज्ञान दिया । “लैटिन” और “ग्रीक” को यूरोप की सभी भाषाओं की जननी माना जाता है और इनका उच्च ज्ञान प्राप्त कर लेने से यूरोप से सभी भाषाएँ सीखने में बड़ी हुई । अँग्रेजी और फ्रांसीसी भाषा में विशेष योग्यता के साथ उन्हें जर्मन, इटालियन और स्पेनिश भाषाओं का भी ज्ञान था । इक्कीस वर्ष की आयु तक अरविंद नें कॉलेज की पढ़ाई समाप्त कर ली थी किन्तु अभी भी उन्हे किसी भारतीय भाषा का विशेष ज्ञान नहीं था । 

पिताजी के आदेश से अरविंद ने आईसीएस की की परीक्षा देना स्वीकार किया किन्तु उसी समय अरविंद के पिताजी की एक अंग्रेज़ अधिकारी से बहस होने पर अंग्रेज़ सरकार द्वारा उन्हें प्रताड़ित किया जाने लगा । अँग्रेजी सरकार के इस व्यवहार से डॉ घोष को अत्यंत दुख हुआ । इस भेदभाव की जानकारी के बारे में अपने पुत्रों को भी लिखते थे । यहाँ से अरविंद के मन में अपने देश के लिए राष्ट्रवाद की भावनाएँ उत्पन्न होने लगीं। अरविंद कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के “इंडियन मजलिस” और “लोटस एंड डेग्गर” संगठनो में रुचि लेने लगे थे । अरविंद आईसीएस की लिखित परीक्षा  में अच्छे अंकों से उतीर्ण हो गए थे किन्तु अँग्रेजी सरकार को अरविंद के बढ़ती राजनीतिक सक्रियता की जानकारी थी और माना जाता है की इसी कारण से अरविंद को आईसीएस की  घुड़सवारी परीक्षा में अनुतीर्ण कर दिया गया था । 1892 में बड़ौदा राज्य के राजा सयाजीराव गायकवाड़ इंग्लैंड आए थे, इंडिया हाउस में अरविंद के साथ एक बैठक में उन्हें राजाजी ने बड़ौदा में नौकरी प्रस्ताव दिया । 

इंग्लैंड में 14 वर्ष रहने के पश्चात भी उन्हें इंग्लैंड से प्रेम नहीं था। वे शीघ्र ही अपनी मातृभूमि आना चाहते थे । बड़ौदा आकर अरविंद बड़ौदा कॉलेज में फ्रेंच, अँग्रेजी  पढ़ाने लगे और वहाँ प्राचार्य भी रहे । इन दिनों में अरविंद ने मराठी, गुजराती और हिन्दी भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था और बंगाली भी सीख रहे थे ।  संस्कृत में तो ऐसी रुचि जागी की “महाभारत”,”रामायण” और “सावित्री कथा” की कथा पर टिप्पणी और कालिदास, वाल्मीकि की रचनाओं और ऋग्वेद का भी अनुवाद कर दिया । बड़ौदा में अध्यापन के साथ अरविंद क्रांतिकारी गतिविधियों में भी सहयोग किया करते थे । 

नर्मदा किनारे चोदोंद स्थान में प्रतिष्ठित गंगा मठ के सद्गुरु ब्रह्मानन्द के बारे में ख्याति थी की वे अपने आगंतुकों की ओर नहीं देखते थे । जब अरविंद उनके दर्शन के लिए गए तो गुरुजी ने उन्हें देखा भी और सफलता के लिए आशीर्वाद भी दिया । यहाँ से अरविन्द की योग – प्राणायाम में विशेष रुचि जाग्रत हो गयी । वे कई कई घंटों तक योगाभ्यास करते थे । 

बड़ौदा में सरकारी नौकरी के कारण क्रांतिकारी गतिविधियों में अरविंद अप्रत्यक्ष रूप से ही भाग लेते थे किन्तु  1905 में बंगाल विभाजन के उपरांत और बाल गंगाधर तिलक के अनुरोध पर वे बंगाल आ गए और नेशनल कॉलेज से जुड़ गए और देशवासियों तक स्वाधीनता का संदेश पहुंचाने के लिए “वन्देमातरम् ” दैनिक पत्र का सम्पादन करने लगे । अरविंद इतनी चतुराई से शब्दों का प्रयोग करते थे की सरकार उन पर कानूनी कार्यवाही नहीं कर पाती थी । वे “युगांतर” और “अनुशीलन समिति” में विशिष्ठ स्थान रखते थे । 

30 अप्रेल 1908 को प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस द्वारा जज किंग्सफोर्ड को मारने का प्रयास किया गया किन्तु त्रुटिवश उन्होने एक अन्य वाहन पर बम फेंक दिया जिससे एक अंग्रेज़ वकील की पत्नी और बेटी की मृत्यु हो गयी । अंग्रेज़ इसी अवसर की प्रतीक्षा में थे उन्होनें अरविंद को भी बंदी बना लिया । किन्तु अरविंद जेल में भी ध्यान और योग किया करते थे । वे अपनी जेल यात्रा को  “आश्रम वास” कहते थे । कारागार से छूटने के पश्चात अरविंद का रुझान आध्यात्मिक साधना की ओर बढ़ता ही गया और उन्होने अँग्रेजी सरकार द्वारा दैनिक असुविधा से बचने के पांडिचेरी में अपना आश्रम बनाया जहां वो जीवन पर्यंत रहे । 

श्री अरविंद के बारे में अधिक जानने के लिए पढ़िये  इन पुस्तकों को :-

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