Vyatha Katha

Publisher:
Prabhat Prakashan
| Author:
Jawaharlal Kaul
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Prabhat Prakashan
Author:
Jawaharlal Kaul
Language:
Hindi
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Hardback

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लोग कहते हैं कि कल्पना का कोई विवेक नहीं होता, वह विवेक के सहारे नहीं चलती है। मन और मस्तिष्क अकसर अलग-अलग दिशाओं में चलते दिखाई देते हैं, कम-से-कम माना तो यही जाता है। लेकिन मुझे तो ऐसा लगा कि जब भी मस्तिष्क ने कल्पना को रोका-टोका तो उसे सही दिशा में मोड़ने के लिए ही, वह ऐसा न करता तो शायद मन कहीं ऐसी गलियों में भी फँस सकता था, जो थोड़ी ही दूर जाकर बंद हो जाती हों। ऐसी ही किसी अंधी गली में कल्पना भी दम तोड़ती। इसीलिए बार-बार जीवन की कठोर वास्तविकताएँ इस प्रेम-कहानी में अपना योगदान करने टपक ही पड़ती थीं। जो प्रेम-प्रसंग एक भौतिक सचाई से आरंभ हुआ हो, वह अपनी यात्रा में न तो प्रत्यक्ष से दूर रह सकता था, न इतिहास को नजरअंदाज कर सकता था। ऌफ्लीटफुट की प्रेमकथा भी सच है, आदिवसियों की पीड़ा भी सच है, भारतवंशियों की उलझनें और विसंगतियाँ भी सच ही हैं और उन यूरोपीय बाल गुलामों की त्रासदी भी सच ही है। ये और कई सच एक माला में पिरोना संभव नहीं था, अगर एथीना न होती और उसे एक अंगद नहीं मिलता। सब घटनाएँ, सारे तथ्य इन्हीं दो काल्पनिक पात्रों के चारों ओर घूमते रहे, उसी तरह बँधे हुए, जैसे सूर्य के साथ उसके ग्रह। वैसे भी कोई सच एकदम कल्पना से रहित होकर हम तक कहाँ पहुँच पाता है?.

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Description

लोग कहते हैं कि कल्पना का कोई विवेक नहीं होता, वह विवेक के सहारे नहीं चलती है। मन और मस्तिष्क अकसर अलग-अलग दिशाओं में चलते दिखाई देते हैं, कम-से-कम माना तो यही जाता है। लेकिन मुझे तो ऐसा लगा कि जब भी मस्तिष्क ने कल्पना को रोका-टोका तो उसे सही दिशा में मोड़ने के लिए ही, वह ऐसा न करता तो शायद मन कहीं ऐसी गलियों में भी फँस सकता था, जो थोड़ी ही दूर जाकर बंद हो जाती हों। ऐसी ही किसी अंधी गली में कल्पना भी दम तोड़ती। इसीलिए बार-बार जीवन की कठोर वास्तविकताएँ इस प्रेम-कहानी में अपना योगदान करने टपक ही पड़ती थीं। जो प्रेम-प्रसंग एक भौतिक सचाई से आरंभ हुआ हो, वह अपनी यात्रा में न तो प्रत्यक्ष से दूर रह सकता था, न इतिहास को नजरअंदाज कर सकता था। ऌफ्लीटफुट की प्रेमकथा भी सच है, आदिवसियों की पीड़ा भी सच है, भारतवंशियों की उलझनें और विसंगतियाँ भी सच ही हैं और उन यूरोपीय बाल गुलामों की त्रासदी भी सच ही है। ये और कई सच एक माला में पिरोना संभव नहीं था, अगर एथीना न होती और उसे एक अंगद नहीं मिलता। सब घटनाएँ, सारे तथ्य इन्हीं दो काल्पनिक पात्रों के चारों ओर घूमते रहे, उसी तरह बँधे हुए, जैसे सूर्य के साथ उसके ग्रह। वैसे भी कोई सच एकदम कल्पना से रहित होकर हम तक कहाँ पहुँच पाता है?.

About Author

26 अगस्त, 1937 को जम्मू-कश्मीर के एक सुदूर क्षेत्र में जन्म। श्रीनगर में एम.ए. तक की शिक्षा प्राप्त की। श्रीनगर के ही एक स्कूल में अध्यापक हो गए। तभी हिंदुस्थान समाचार के श्री बालेश्वर अग्रवाल ने अपनी समाचार समिति में उन्हें एक प्रशिक्षु पत्रकार रख लिया। अगले वर्ष अज्ञेयजी ने अपने नए प्रयोग ‘दिनमान’ के लिए उन्हें चुना। दो दशक तक ‘दिनमान’ के साथ काम करने के पश्चात् ‘जनसत्ता’ दैनिक में श्री प्रभाष जोशी के सहयोगी बने। 80 वर्ष की उम्र में भी उनका लिखना जारी है। उनका मानना है कि जब तक व्यक्ति जीवित है, उसके सोचने पर पूर्ण विराम तो नहीं लगता। सोचने पर नहीं लगता तो कहने-लिखने पर क्यों लगेगा? लिखना जीवन का लक्षण है, उसकी प्रासंगिकता है। अपनी पुस्तक ‘हिंदी पत्रकारिता का बाजार भाव’ में वे लिखते हैं कि पत्रकारिता अब एक ऐसा उद्योग हो गया है, जहाँ प्रमुख संचालक विज्ञापनदाता हो गया है, जो न तो पाठक है, न संपादक और न ही संस्थापक। उन्हें वर्ष 2016 में ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया।.

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