तनी हुई रस्सी पर | TANI HUI RASSI PAR

Publisher:
Setu Prakashan
| Author:
SANJAY KUNDAN
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
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Setu Prakashan
Author:
SANJAY KUNDAN
Language:
Hindi
Format:
Paperback

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संजय कुंदन की कविता वर्तमान में, हमारे चारों तरफ घटित हो रहे विद्रूपों, विपर्ययों और रूपान्तरणों की बाहरी-भीतरी तहों. उनकी छिपी हई परतों में जाती है और एक ऐसा परिदृश्य तामीर करती है जिसमें हम राजनीतिक सत्ता-तन्त्रों, तानाशाह व्यवस्थाओं की क्रूरता, धूर्तता और ज्यादातर मध्यवर्गीय संवेदनहीनताओं को हलचल करते देख सकते हैं। यह ठीक इस समय, इस देश, काल और क्षण की कविता है, जिसके केन्द्र में मनुष्य सबसे अधिक है, एक ऐसा ‘अच्छा-भला’ मनुष्य, जिसकी संवेदना को मनुष्य-विरोधी राजनीति, सामाजिक पाखण्डों और भूमण्डलीय बाज़ार द्वारा लगातार खराब किया जा रहा है, जो अपना अन्तस तानाशाहों के पास गिरवी रखने को विवश है और लोकतन्त्र, स्वाधीनता, मानवीय अच्छाई को नष्ट किये जाते हुए देखने के बावजूद उससे मुठभेड़ करने में असमर्थ है। प्रसिद्ध कवि रघुवीर सहाय ने अपनी कविताओं और गद्य रचनाओं में कई जगह चिन्ता जताते हुए यह सवाल पूछा था कि ‘हम कैसा आदमी बना रहे हैं?’ संजय की कविता हमें यह खबर देती है कि रघुवीर सहाय ने कई वर्ष पहले नैतिक संवेदना से रहित जिस आदमी के बनने की आशंका व्यक्त की थी, वह अब हमारे आधे-अधूरे लोकतन्त्र में पूरी तरह बन चुका है : दुनियावी सफलता के दोज़ख में सन्तुष्ट, आत्म-विहीन, करुणा-रहित, तरह-तरह की दासताओं को समर्पित और अपनी त्रासदी से लगभग बेखबर। मनुष्य के साथ होने वाले हादसों की चीर-फाड़ संजय किसी समाज विश्लेषक की तरह करते हैं और एक बहस भी छेड़ते हैं जो सत्ता और ताक़त और शिकार, वर्चस्व और अधीनता, बाज़ार और उपभोक्ता, सफलता और विफलता जैसे युग्मों-बाइनरी के सहारे शिद्दत अख्तियार करती है और इस सबके बीच उस इंसान की लाचारगी भी बतलाती है जो अपने नैतिक आभ्यन्तर को बचाये हुए है और यह पाता है कि अपनी मर्जी की जगह पर रहना/एक तनी हुई रस्सी पर चलने से कम नहीं है।’ यह तनी हुई रस्सी ही उसका वास्तविक पता है। विडम्बना और व्यंग्य समकालीन कविता में शायद उतने ही कारगर औज़ार बन गये हैं जैसे पिछले ज़मानों की कविता में करुणा और हास्य थे। इन कविताओं में विडम्बना और व्यंग्य के इस्तेमाल की कई विलक्षण ऊँचाइयाँ हैं जो कवि के वक्तव्य में धार और चमक पैदा करती रहती हैं। विरोधाभासों और द्वन्द्वों की अन्विति भी बहुत पहले से अच्छी कविता की सक्रिय प्रविधियाँ हैं। संजय कुंदन की कविता में उनका हुनरमन्द इस्तेमाल एक और विस्तार पैदा करता है। वे अक्सर काले और सफ़ेद को एक-दूसरे के बरक्स रखते और कभी-कभी उनके बीच की धूसर छवियाँ दर्ज करते हुए एक ऐसे संसार को उधेड़ते हैं जो आकर्षक लगता है और विचलित भी करता है। ये कविताएँ हमारे देश और समाज की गिरावट, हमारी मौजूदा जन-विरोधी, हिंसक और फासिस्ट होती राजनीति और उसके शिकार आदमी का खाका तैयार करती हैं और पाठक से इस तरह संवाद करती हैं कि वह कुछ सोचने के लिए तत्पर हो उठे।

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संजय कुंदन की कविता वर्तमान में, हमारे चारों तरफ घटित हो रहे विद्रूपों, विपर्ययों और रूपान्तरणों की बाहरी-भीतरी तहों. उनकी छिपी हई परतों में जाती है और एक ऐसा परिदृश्य तामीर करती है जिसमें हम राजनीतिक सत्ता-तन्त्रों, तानाशाह व्यवस्थाओं की क्रूरता, धूर्तता और ज्यादातर मध्यवर्गीय संवेदनहीनताओं को हलचल करते देख सकते हैं। यह ठीक इस समय, इस देश, काल और क्षण की कविता है, जिसके केन्द्र में मनुष्य सबसे अधिक है, एक ऐसा ‘अच्छा-भला’ मनुष्य, जिसकी संवेदना को मनुष्य-विरोधी राजनीति, सामाजिक पाखण्डों और भूमण्डलीय बाज़ार द्वारा लगातार खराब किया जा रहा है, जो अपना अन्तस तानाशाहों के पास गिरवी रखने को विवश है और लोकतन्त्र, स्वाधीनता, मानवीय अच्छाई को नष्ट किये जाते हुए देखने के बावजूद उससे मुठभेड़ करने में असमर्थ है। प्रसिद्ध कवि रघुवीर सहाय ने अपनी कविताओं और गद्य रचनाओं में कई जगह चिन्ता जताते हुए यह सवाल पूछा था कि ‘हम कैसा आदमी बना रहे हैं?’ संजय की कविता हमें यह खबर देती है कि रघुवीर सहाय ने कई वर्ष पहले नैतिक संवेदना से रहित जिस आदमी के बनने की आशंका व्यक्त की थी, वह अब हमारे आधे-अधूरे लोकतन्त्र में पूरी तरह बन चुका है : दुनियावी सफलता के दोज़ख में सन्तुष्ट, आत्म-विहीन, करुणा-रहित, तरह-तरह की दासताओं को समर्पित और अपनी त्रासदी से लगभग बेखबर। मनुष्य के साथ होने वाले हादसों की चीर-फाड़ संजय किसी समाज विश्लेषक की तरह करते हैं और एक बहस भी छेड़ते हैं जो सत्ता और ताक़त और शिकार, वर्चस्व और अधीनता, बाज़ार और उपभोक्ता, सफलता और विफलता जैसे युग्मों-बाइनरी के सहारे शिद्दत अख्तियार करती है और इस सबके बीच उस इंसान की लाचारगी भी बतलाती है जो अपने नैतिक आभ्यन्तर को बचाये हुए है और यह पाता है कि अपनी मर्जी की जगह पर रहना/एक तनी हुई रस्सी पर चलने से कम नहीं है।’ यह तनी हुई रस्सी ही उसका वास्तविक पता है। विडम्बना और व्यंग्य समकालीन कविता में शायद उतने ही कारगर औज़ार बन गये हैं जैसे पिछले ज़मानों की कविता में करुणा और हास्य थे। इन कविताओं में विडम्बना और व्यंग्य के इस्तेमाल की कई विलक्षण ऊँचाइयाँ हैं जो कवि के वक्तव्य में धार और चमक पैदा करती रहती हैं। विरोधाभासों और द्वन्द्वों की अन्विति भी बहुत पहले से अच्छी कविता की सक्रिय प्रविधियाँ हैं। संजय कुंदन की कविता में उनका हुनरमन्द इस्तेमाल एक और विस्तार पैदा करता है। वे अक्सर काले और सफ़ेद को एक-दूसरे के बरक्स रखते और कभी-कभी उनके बीच की धूसर छवियाँ दर्ज करते हुए एक ऐसे संसार को उधेड़ते हैं जो आकर्षक लगता है और विचलित भी करता है। ये कविताएँ हमारे देश और समाज की गिरावट, हमारी मौजूदा जन-विरोधी, हिंसक और फासिस्ट होती राजनीति और उसके शिकार आदमी का खाका तैयार करती हैं और पाठक से इस तरह संवाद करती हैं कि वह कुछ सोचने के लिए तत्पर हो उठे।

About Author

जन्म : 7 दिसम्बर, 1969, पटना शिक्षा : पटना विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम.ए. सम्प्रति : दैनिक ‘नवभारत टाइम्स’, दिल्ली में सहायक सम्पादक। प्रकाशित कृतियाँ : कागज के प्रदेश में, चुप्पी का शोर, योजनाओं का शहर, तनी हुई रस्सी पर (कविता संग्रह), बॉस की पार्टी, श्यामलाल का अकेलापन (कहानी संग्रह), टूटने के बाद, तीन ताल (उपन्यास), पत्रों में सेजाँ (अनुवाद)। पुरस्कार : भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, हेमन्त स्मृति सम्मान और विद्यापति पुरस्कार। रचनाएँ अंग्रेजी, पंजाबी, मराठी और उर्दू में अनूदित। सामाजिक-आर्थिक विषयों पर अनेक लेख प्रकाशित।

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