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Sita Puni Boli
Publisher:
Prabhat Prakashan
| Author:
Smt. Mridula Sinha
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Prabhat Prakashan
Author:
Smt. Mridula Sinha
Language:
Hindi
Format:
Hardback
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Book Type |
---|
ISBN:
Categories: Dharma/Religion, Hindi
Page Extent:
296
सीता पुनि बोली मैंने घोषणा की, “मैं पृथ्वी-पुत्री सीता इन दोनों पुत्रों की जननी हूँ। इक्ष्वाकु वंश की ये दोनों संतानें उनके प्रतापी वंश को अर्पित कर मैंने अपना दायित्व पूर्ण किया। असंख्य संतानों की माँ, धरती की अंश अब मैं अपनी माँ के सान्निध्य में जाना चाहती हूँ। चलते-चलते बहुत थक चुकी हूँ, मानो शक्ति क्षीण हो गई है। पुन: शक्ति-प्राप्ति के लिए धरती ही उपयुक्त स्रोत है। मैं कुश एवंलव की जननी अपनी जननी का आलिंगन करना चाहती हूँ, उसके सत में विलीन हो जाना चाहती हूँ।” श्रीराम अति विनीत स्वर में बोले, “नहीं सीते! आप मुझे इतना बड़ा दंड नहीं दे सकतीं। आपको मैंने निर्वासन का दंड दिया, किंतु आप निरपराध थीं। आपके निर्वासित होने पर यह राजभवन मेरे लिए वन के समान ही था। मैं आपकी सौगंध खाकर कहता हूँ—आपके निर्वासन के उपरांत मेरे राज्य में एक भी नारी अपने दु:ख से दु:खी नहीं हुई; पर अयोध्या और मिथिला की प्रजा आपके लिए ही बिसूरती रही। सीते…सीते…” मेरे अंतर्धान होने के क्रम में मुझे किसी ने देखा नहीं। पर मैं सब देखती-सुनती रही। चहुँओर अपने ही नाम का जयघोष! दोनों पुत्रों का विलाप, राम का वियोग, दो कुमारों को पाकर अयोध्या का हुलास, जन-सामान्य में राम के लिए सहानुभूति। फिर भावों का इंद्रधनुष बना था, जिन्हें आत्मसात् करने का मेरे पास समय नहीं था, न आवश्यकता थी। मेरा जीवनोद्देश्य ही पूरा हो गया था। —इसी उपन्यास से जनकपुर के विदेह राजा जनक की दुलारी, राम की सहधर्मिणी, दशरथ और कौशल्या की अत्यंत प्रिय पुत्रवधू, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न की माँ सदृश भाभी, राजमहल से लेकर वन और आश्रम जीवन में अनेक सामाजिक संबंधों में बँधी सीता की स्मृति त्रेतायुग से प्रवाहित होती हुई आज भी जन-जन के हृदय और भारतीय मानस में रची-बसी है। आत्मकथ्य शैली में लिखा सीताजी के तेजस्वी और शौर्यपूर्ण जीवन पर आधारित एक अत्यंत मार्मिक, कारुणिक एवं हृदयस्पर्शी उपन्यास।.
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Description
सीता पुनि बोली मैंने घोषणा की, “मैं पृथ्वी-पुत्री सीता इन दोनों पुत्रों की जननी हूँ। इक्ष्वाकु वंश की ये दोनों संतानें उनके प्रतापी वंश को अर्पित कर मैंने अपना दायित्व पूर्ण किया। असंख्य संतानों की माँ, धरती की अंश अब मैं अपनी माँ के सान्निध्य में जाना चाहती हूँ। चलते-चलते बहुत थक चुकी हूँ, मानो शक्ति क्षीण हो गई है। पुन: शक्ति-प्राप्ति के लिए धरती ही उपयुक्त स्रोत है। मैं कुश एवंलव की जननी अपनी जननी का आलिंगन करना चाहती हूँ, उसके सत में विलीन हो जाना चाहती हूँ।” श्रीराम अति विनीत स्वर में बोले, “नहीं सीते! आप मुझे इतना बड़ा दंड नहीं दे सकतीं। आपको मैंने निर्वासन का दंड दिया, किंतु आप निरपराध थीं। आपके निर्वासित होने पर यह राजभवन मेरे लिए वन के समान ही था। मैं आपकी सौगंध खाकर कहता हूँ—आपके निर्वासन के उपरांत मेरे राज्य में एक भी नारी अपने दु:ख से दु:खी नहीं हुई; पर अयोध्या और मिथिला की प्रजा आपके लिए ही बिसूरती रही। सीते…सीते…” मेरे अंतर्धान होने के क्रम में मुझे किसी ने देखा नहीं। पर मैं सब देखती-सुनती रही। चहुँओर अपने ही नाम का जयघोष! दोनों पुत्रों का विलाप, राम का वियोग, दो कुमारों को पाकर अयोध्या का हुलास, जन-सामान्य में राम के लिए सहानुभूति। फिर भावों का इंद्रधनुष बना था, जिन्हें आत्मसात् करने का मेरे पास समय नहीं था, न आवश्यकता थी। मेरा जीवनोद्देश्य ही पूरा हो गया था। —इसी उपन्यास से जनकपुर के विदेह राजा जनक की दुलारी, राम की सहधर्मिणी, दशरथ और कौशल्या की अत्यंत प्रिय पुत्रवधू, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न की माँ सदृश भाभी, राजमहल से लेकर वन और आश्रम जीवन में अनेक सामाजिक संबंधों में बँधी सीता की स्मृति त्रेतायुग से प्रवाहित होती हुई आज भी जन-जन के हृदय और भारतीय मानस में रची-बसी है। आत्मकथ्य शैली में लिखा सीताजी के तेजस्वी और शौर्यपूर्ण जीवन पर आधारित एक अत्यंत मार्मिक, कारुणिक एवं हृदयस्पर्शी उपन्यास।.
About Author
मृदुला सिन्हा जन्म: मुजफ्फरपुर जिला (बिहार) के छपरा गाँव में। शिक्षा: बिहार विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण। डॉ. एस.के. सिन्हा महिला कॉलेज, मोतिहारी (बिहार) में मनोविज्ञान के प्राध्यापक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन प्रारंभ किया। कृतित्व: जयप्रकाश नारायण के समग्र क्रांति आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। सन् 1977 में अपने पति डॉ. रामकृपाल सिन्हा (पूर्व मंत्री, भारत सरकार) के साथ दिल्ली आकर सामाजिक-राजनीतिक एवं साहित्यिक कार्यों में जुट गईं। अन्यान्य दायित्वों के निर्वहण में देश-विदेश में निरंतर प्रवास। प्रकाशन: ‘ज्यों मेहँदी को रंग’, ‘नई देवयानी’, ‘घरवास’, ‘अतिशय’ (उपन्यास); ‘साक्षात्कार’, ‘स्पर्श की तासीर’, ‘एक दीये की दीवाली’ (कहानी संग्रह); ‘आईने के सामने’, ‘क ख ग’, ‘मानवी के नाते’ (निबंध संग्रह); ‘देखन में छोटे लगैं’ (लघुकथा संग्रह); ‘पुराण के बच्चे’, ‘बिहार की लोककथाएँ: भाग 1, 2’, ‘राजपथ से लोकपथ पर’ (राजमाता विजयाराजे सिंधिया की आत्मकथा का संपादन)। कई भाषाओं में रचनाएँ अनूदित। कहानी ‘दत्तक पिता’ पर आधारित एक फिल्म निर्मित। इनकी रचनाओं पर बने धारावाहिक दूरदर्शन पर प्रसारित।.
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