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Sanskrti Ek : Naam Roop Ane
Publisher:
Prabhat Prakashan
| Author:
Devendra Swarup
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Prabhat Prakashan
Author:
Devendra Swarup
Language:
Hindi
Format:
Hardback
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Book Type |
---|
ISBN:
Page Extent:
28
भारतीय संस्कृति समग्रता की दृष्टि से अस्तित्व में है।★ स्वामी विवेकानंद ने कहा था; ‘पश्चिम के प्राण यदि पाउंड; शिलिंग; पेंस में बसते हैं तो भारत के प्राण धर्म में बसते हैं। भारत धर्म में जीता है। धर्म के लिए जीता है। धर्म ही भारत की आत्मा है।’ भारत का यह मूल तत्त्व उसकी सनातन संस्कृति का अभिन्न अंग है।★ यह विभिन्न रूपों में सर्वत्र व्याप्त है। आज भी बदरीनाथ; केदारनाथ; अमरनाथ; वैष्णो देवी और कैलास मानसरोवर तक की दुर्गम यात्रा-मार्ग पर भक्ति-गीत गाते युवाओं की टोली उस धर्म-युग का प्रकटीकरण ही तो है। ज्ञान-विज्ञान की आधुनिकता के साथ कुंभ मेले में करोड़ों जन का उमड़ आना भी यही दरशाता है। धर्म-अध्यात्म की कथा के वाचकों-उपदेशकों के आयोजनों में समृद्ध; संभ्रांत और शिक्षित वर्ग भी खिंचा चला आता है। ★ स्वाध्याय परिवार; गायत्री परिवार; स्वामीनारायण संप्रदाय; राधास्वामी; निरंकारी समागम के समारोहों में लाखों की संख्या में लोग सम्मिलित होते हैं। इसका कारण यह है कि हमने धर्म को सर्वोपरि माना; उपासना पद्धति की एकरूपता का आग्रह कभी नहीं रखा; उपासना की विविधता को शिरोधार्य किया। भारतीय समाज जीवन में कभी कोई एक मजहबी केंद्र या चर्च नहीं रहा। ऐसा वैविध्यपूर्ण समाज 1300 वर्ष तक इसलाम व ईसाइयत की एकरूपतावादी विचारधारा से जूझता रहा है। इसके बावजूद उसने अपना मूल चरित्र बनाए रखा है।★ भारतीय संस्कृति का माहात्म्य स्थापित करनेवाली चिंतनपरक पुस्तक।
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Roop Ane” Cancel reply
Description
भारतीय संस्कृति समग्रता की दृष्टि से अस्तित्व में है।★ स्वामी विवेकानंद ने कहा था; ‘पश्चिम के प्राण यदि पाउंड; शिलिंग; पेंस में बसते हैं तो भारत के प्राण धर्म में बसते हैं। भारत धर्म में जीता है। धर्म के लिए जीता है। धर्म ही भारत की आत्मा है।’ भारत का यह मूल तत्त्व उसकी सनातन संस्कृति का अभिन्न अंग है।★ यह विभिन्न रूपों में सर्वत्र व्याप्त है। आज भी बदरीनाथ; केदारनाथ; अमरनाथ; वैष्णो देवी और कैलास मानसरोवर तक की दुर्गम यात्रा-मार्ग पर भक्ति-गीत गाते युवाओं की टोली उस धर्म-युग का प्रकटीकरण ही तो है। ज्ञान-विज्ञान की आधुनिकता के साथ कुंभ मेले में करोड़ों जन का उमड़ आना भी यही दरशाता है। धर्म-अध्यात्म की कथा के वाचकों-उपदेशकों के आयोजनों में समृद्ध; संभ्रांत और शिक्षित वर्ग भी खिंचा चला आता है। ★ स्वाध्याय परिवार; गायत्री परिवार; स्वामीनारायण संप्रदाय; राधास्वामी; निरंकारी समागम के समारोहों में लाखों की संख्या में लोग सम्मिलित होते हैं। इसका कारण यह है कि हमने धर्म को सर्वोपरि माना; उपासना पद्धति की एकरूपता का आग्रह कभी नहीं रखा; उपासना की विविधता को शिरोधार्य किया। भारतीय समाज जीवन में कभी कोई एक मजहबी केंद्र या चर्च नहीं रहा। ऐसा वैविध्यपूर्ण समाज 1300 वर्ष तक इसलाम व ईसाइयत की एकरूपतावादी विचारधारा से जूझता रहा है। इसके बावजूद उसने अपना मूल चरित्र बनाए रखा है।★ भारतीय संस्कृति का माहात्म्य स्थापित करनेवाली चिंतनपरक पुस्तक।
About Author
मुरादाबाद (उ.प्र.) के कांठ कस्बे में 30 मार्च, 1926 को जनमे। प्रारंभिक शिक्षा कांठ और चंदौसी के विद्यालयों में। लखनऊ विवि से इतिहास से एम.ए.। सन् 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में सहभागी होने के कारण दो बार विद्यालय से निष्कासन हुआ। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से बी.एस-सी. करते-करते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनने का संकल्प लिया। सन् 1947 से 1960 तक संघ के प्रचारक रहे। महात्मा गांधी की हत्या के पश्चात् संघ पर लगे पहले प्रतिबंध के दौरान 6 माह तक कारावास में बंदी। संघ की योजना से सन् 1958 में हिंदी साप्ताहिक ‘पाञ्चजन्य’ के संपादन से जुड़े। सन् 1964 में दिल्ली विश्वविद्यालय के पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज में इतिहास विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हुए, सन् 1991 में सेवानिवृत्त। इस दौरान अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के दिल्ली प्रदेश के अध्यक्ष रहे। सन् 1968 से 1972 तक बतौर अवैतनिक संपादक ‘पाञ्चजन्य’ के संपादन का कार्य भी किया। आपातकाल में फिर बंदी बनाए गए। सन् 1980 से 1994 तक दीनदयाल शोध संस्थान के निदेशक व उपाध्यक्ष रहे। इस दौरान संस्थान की त्रैमासिक पत्रिका ‘मंथन’ (हिंदी व अंग्रेजी) के संपादन का कार्य किया। बतौर इतिहासकार भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् से भी जुड़े रहे। पद-पुरस्कार-सम्मान के सभी आग्रहों को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार किया।
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