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राजा, कोयल और तन्दूर –
ऐसे विषम समय में जब जीवन समाज में आँखें खोलते ही निर्मम बाज़ारी संस्कृति की संवेदनहीन थपकियों और नपे-तुले आवेगों और संवेगों को ही रिश्तों का पर्याय मानकर उस समीकरण को ही जीने और झेलने के लिए अभिशप्त हो रहा हो, तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है, कि आज सामान्य जन का जीवन संघर्ष केवल रोज़ी-रोटी की उपलब्धता का ही संघर्ष नहीं है, विद्रूपताओं में अनायास बिला गयी जीवन की तरलताओं को भी ढूँढ़ निकालने एवं अपने में पुनः आबद्ध कर जी लेने की भी ललक का संघर्ष है। मांदले का रचना-संसार सिमटा हुआ न होकर, इन्हीं गुँजलकों में झूम-चूम होता, स्वयं को विस्तार देता अपनी गहन रचना-दृष्टि का उत्स अन्वेषित करता है, जो उनकी अभिव्यक्ति की निष्ठा के प्रति हमें आश्वस्त ही नहीं करता, उनकी अप्रतिम सम्भावनाओं को भी रेखांकित करता है।
यह महज संयोग ही नहीं, बल्कि सृजन की सजगता है कि मांदले के प्रथम कथा-संग्रह ‘राजा, कोयल और तन्दूर’ की नौ कहानियों में से पाँच कहानियाँ का इतिवृत्त प्रेम से सम्बन्धित है जो अपनी कई संगतियों और विसंगतियों के साथ अनेक कोणों से उनमें मौजूद है। चाहे वह द्वन्द्व के रूप में हो या मोहभंग के रूप में, आत्मविश्वास के रूप में हो या अहंकार के रूप में, अथवा बन्धन या मुक्ति के रूप में अनेक उत्तरित अनुत्तरित प्रश्नों को अपने में समेटे है।
प्रस्तुत संग्रह की ‘मृगनयनी’ कहानी अनायास भगवती बाबू की ‘चित्रलेखा’ की याद दिलाती है, जब उसका कथानायक कहता है— प्रेम लोक में आने का वही अधिकारी होता है जिसने अपने प्रियतम के अस्तित्व में अपना अस्तित्व समाहित कर दिया हो।’ ‘बोध’ इस संग्रह की सर्वाधिक परिपक्व रचना है—गहन भावाभिव्यक्ति समेटे। शिल्प कौशल भी इसका कम अद्भुत नहीं बल्कि अचरज होता है कि कविता में कहानी इस तरह भी लिखी जा सकती है। कहानी अपने बाह्यस्वरूप से अधिक अन्तर्गर्भ में घटती है। अपने अनकहे में बहुत कुछ कहती है। कुछ कहानियाँ अवश्य निराश करती हैं, अपनी अपेक्षित रचनात्मक पकाव के अभाव को उजागर करती हुई। विस्मय होता है कि यह उपेक्षा उस लेखक से कैसे हुई जो ‘बोध’ जैसी कहानी का लेखक है?
‘राजा, कोयल और तन्दूर लोककथा की तर्ज़ पर लिखी गयी सचमुच बाँध लेनेवाली कहानी है। उसमें नैना साहनी प्रकरण के प्रेम समीकरण की भयावह परिणिति को जिस सुघड़ता से गूँथा गया है वह अद्भुत है। ‘मंशाराम’ में अन्तर्निहित तीख़े व्यंग्य निश्चय ही पराग कुमार मांदले में एक समर्थ व्यंग्यकार की प्रतीति पैदा कराते हैं। —चित्रा मुद्गल
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Description
राजा, कोयल और तन्दूर –
ऐसे विषम समय में जब जीवन समाज में आँखें खोलते ही निर्मम बाज़ारी संस्कृति की संवेदनहीन थपकियों और नपे-तुले आवेगों और संवेगों को ही रिश्तों का पर्याय मानकर उस समीकरण को ही जीने और झेलने के लिए अभिशप्त हो रहा हो, तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है, कि आज सामान्य जन का जीवन संघर्ष केवल रोज़ी-रोटी की उपलब्धता का ही संघर्ष नहीं है, विद्रूपताओं में अनायास बिला गयी जीवन की तरलताओं को भी ढूँढ़ निकालने एवं अपने में पुनः आबद्ध कर जी लेने की भी ललक का संघर्ष है। मांदले का रचना-संसार सिमटा हुआ न होकर, इन्हीं गुँजलकों में झूम-चूम होता, स्वयं को विस्तार देता अपनी गहन रचना-दृष्टि का उत्स अन्वेषित करता है, जो उनकी अभिव्यक्ति की निष्ठा के प्रति हमें आश्वस्त ही नहीं करता, उनकी अप्रतिम सम्भावनाओं को भी रेखांकित करता है।
यह महज संयोग ही नहीं, बल्कि सृजन की सजगता है कि मांदले के प्रथम कथा-संग्रह ‘राजा, कोयल और तन्दूर’ की नौ कहानियों में से पाँच कहानियाँ का इतिवृत्त प्रेम से सम्बन्धित है जो अपनी कई संगतियों और विसंगतियों के साथ अनेक कोणों से उनमें मौजूद है। चाहे वह द्वन्द्व के रूप में हो या मोहभंग के रूप में, आत्मविश्वास के रूप में हो या अहंकार के रूप में, अथवा बन्धन या मुक्ति के रूप में अनेक उत्तरित अनुत्तरित प्रश्नों को अपने में समेटे है।
प्रस्तुत संग्रह की ‘मृगनयनी’ कहानी अनायास भगवती बाबू की ‘चित्रलेखा’ की याद दिलाती है, जब उसका कथानायक कहता है— प्रेम लोक में आने का वही अधिकारी होता है जिसने अपने प्रियतम के अस्तित्व में अपना अस्तित्व समाहित कर दिया हो।’ ‘बोध’ इस संग्रह की सर्वाधिक परिपक्व रचना है—गहन भावाभिव्यक्ति समेटे। शिल्प कौशल भी इसका कम अद्भुत नहीं बल्कि अचरज होता है कि कविता में कहानी इस तरह भी लिखी जा सकती है। कहानी अपने बाह्यस्वरूप से अधिक अन्तर्गर्भ में घटती है। अपने अनकहे में बहुत कुछ कहती है। कुछ कहानियाँ अवश्य निराश करती हैं, अपनी अपेक्षित रचनात्मक पकाव के अभाव को उजागर करती हुई। विस्मय होता है कि यह उपेक्षा उस लेखक से कैसे हुई जो ‘बोध’ जैसी कहानी का लेखक है?
‘राजा, कोयल और तन्दूर लोककथा की तर्ज़ पर लिखी गयी सचमुच बाँध लेनेवाली कहानी है। उसमें नैना साहनी प्रकरण के प्रेम समीकरण की भयावह परिणिति को जिस सुघड़ता से गूँथा गया है वह अद्भुत है। ‘मंशाराम’ में अन्तर्निहित तीख़े व्यंग्य निश्चय ही पराग कुमार मांदले में एक समर्थ व्यंग्यकार की प्रतीति पैदा कराते हैं। —चित्रा मुद्गल
About Author
पराग कुमार मांदले -
जन्म: 24 जुलाई, 1972, उज्जैन (मध्य प्रदेश)।
शिक्षा: एम.ए. (हिन्दी) तथा बी.जे. (स्वर्णपदक)।
कार्य: दैनिक अग्निपथ, उज्जैन से पत्रकारिता का प्रारम्भ। कल्याण (गोरखपुर), दैनिक देवगिरि समाचार (औरंगाबाद) एवं दैनिक लोकमत समाचार (औरंगाबाद) में 1991 से 1998 तक पत्रकारिता।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन रंगमंच तथा नुक्कड़ नाटकों में अभिनय निर्देशन।
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