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NADI KE DEEP
Publisher:
RajKamal
| Author:
Agyey
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
Publisher:
RajKamal
Author:
Agyey
Language:
Hindi
Format:
Paperback
₹399 ₹319
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In stock
Book Type |
---|
ISBN:
Categories: Hindi, Uncategorized
Page Extent:
312
व्यक्ति अज्ञेय की चिंतन-धरा का महत्तपूर्ण अंग रहा है, और ‘नदी के द्वीप’ उपन्यास में उन्होंने व्यक्ति के विकसित आत्म को निरुपित करने की सफल कोशिश की है-वह व्यक्ति, जो विराट समाज का अंग होते हुए भी उसी समाज की तीव्रगामी धाराओं, भंवरों और तरंगो के बीच अपने भीतर एक द्वीप की तरह लगातार बनता, बिगड़ता और फिर बनता रहता है । वेदना जिसे मांजती है, पीड़ा जिसे व्यस्क बनाती है, और धीरे-धीरे द्रष्टा ।
अज्ञेय के प्रसिद्द उपन्यास ‘शेखर : एक जीवनी’ से संरचना में बिलकुल अलग इस उपन्यास की व्यवस्था विकसनशील व्यक्तियों की नहीं, आंतरिक रूप से विकसित व्यक्तियों के इर्द-गिर्द बुनी गई है । उपन्यास में सिर्फ उनके आत्म का उदघाटन होता है ।
समाज के जिस अल्पसंख्यक हिस्से से इस उपन्यास के पत्रों का सम्बन्ध है, वह अपनी संवेदना की गहराई के चलते आज भी समाज की मुख्यधारा में नहीं है । लेकिन वह है, और ‘नदी के द्वीप’ के चरों पत्र मानव-अनुभूति के सर्वकालिक-सार्वभौमिक आधारभूत तत्त्वों के प्रतिनिधि उस संवेदना-प्रवण वर्ग की इमानदार अभिव्यक्ति करते हैं ।
‘नदी के द्वीप’ में एक सामाजिक आदर्श भी है, जिसे अज्ञेय ने अपने किसी वक्तव्य में रेखांकित भी किया था, और वह है-दर्द से मंजकर व्यक्तित्व का स्वतंत्र विकास, ऐसी स्वतंत्रता की उद्भावना जो दूसरे को भी स्वतंत्र करती हो ।
व्यक्ति और समूह के बीच फैली तमाम विकृतियों से पीड़ित हमारे समाज में ऐसी कृतियाँ सदैव प्रासंगिक रहेंगी ।
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Description
व्यक्ति अज्ञेय की चिंतन-धरा का महत्तपूर्ण अंग रहा है, और ‘नदी के द्वीप’ उपन्यास में उन्होंने व्यक्ति के विकसित आत्म को निरुपित करने की सफल कोशिश की है-वह व्यक्ति, जो विराट समाज का अंग होते हुए भी उसी समाज की तीव्रगामी धाराओं, भंवरों और तरंगो के बीच अपने भीतर एक द्वीप की तरह लगातार बनता, बिगड़ता और फिर बनता रहता है । वेदना जिसे मांजती है, पीड़ा जिसे व्यस्क बनाती है, और धीरे-धीरे द्रष्टा ।
अज्ञेय के प्रसिद्द उपन्यास ‘शेखर : एक जीवनी’ से संरचना में बिलकुल अलग इस उपन्यास की व्यवस्था विकसनशील व्यक्तियों की नहीं, आंतरिक रूप से विकसित व्यक्तियों के इर्द-गिर्द बुनी गई है । उपन्यास में सिर्फ उनके आत्म का उदघाटन होता है ।
समाज के जिस अल्पसंख्यक हिस्से से इस उपन्यास के पत्रों का सम्बन्ध है, वह अपनी संवेदना की गहराई के चलते आज भी समाज की मुख्यधारा में नहीं है । लेकिन वह है, और ‘नदी के द्वीप’ के चरों पत्र मानव-अनुभूति के सर्वकालिक-सार्वभौमिक आधारभूत तत्त्वों के प्रतिनिधि उस संवेदना-प्रवण वर्ग की इमानदार अभिव्यक्ति करते हैं ।
‘नदी के द्वीप’ में एक सामाजिक आदर्श भी है, जिसे अज्ञेय ने अपने किसी वक्तव्य में रेखांकित भी किया था, और वह है-दर्द से मंजकर व्यक्तित्व का स्वतंत्र विकास, ऐसी स्वतंत्रता की उद्भावना जो दूसरे को भी स्वतंत्र करती हो ।
व्यक्ति और समूह के बीच फैली तमाम विकृतियों से पीड़ित हमारे समाज में ऐसी कृतियाँ सदैव प्रासंगिक रहेंगी ।
About Author
सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जन्म : 7 मार्च, 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया ज़िले के कुशीनगर नामक ऐतिहासिक स्थान में हुआ। बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता।शिक्षा : प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा पिता की देखरेख में घर पर ही संस्कृत, फ़ारसी, अंग्रेज़ी और बांग्ला भाषा व साहित्य के अध्ययन के साथ। 1929 में बी.एससी. करने के बाद एम.ए. में उन्होंने अंग्रेज़ी विषय रखा; पर क्रान्तिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण पढ़ाई पूरी न हो सकी।1930 से 1936 तक विभिन्न जेलों में कटे। 1936-37 में ‘सैनिक’ और ‘विशाल भारत’ नामक पत्रिकाओं का सम्पादन किया। 1943 से 1946 तक ब्रिटिश सेना में रहे; इसके बाद इलाहाबाद से ‘प्रतीक’ नामक पत्रिका निकाली और ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी स्वीकार की। देश-विदेश की यात्राएँ कीं। दिल्ली लौटे और ‘दिनमान साप्ताहिक’, ‘नवभारत टाइम्स’, अंग्रेज़ी पत्र ‘वाक्’ और ‘एवरीमैंस’ जैसे प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। 1980 में ‘वत्सल निधि’ की स्थापना की।प्रमुख कृतियाँ : कविता-संग्रह—‘भग्नदूत’, ‘चिन्ता’, ‘इत्यलम्’, ‘हरी घास पर क्षण भर’, ‘बावरा अहेरी’, ‘इन्द्रधनु रौंदे हुए ये’, ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’, ‘आँगन के पार द्वार’, ‘कितनी नावों में कितनी बार’, ‘क्योंकि मैं उसे जानता हूँ’, ‘सागर मुद्रा’, ‘पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ’, ‘महावृक्ष के नीचे’, ‘नदी की बाँक पर छाया’, ‘प्रिज़न डेज़ एंड अदर पोयम्स’ (अंग्रेज़ी में); कहानी-संग्रह—‘विपथगा’, ‘परम्परा’, ‘कोठरी की बात’, ‘शरणार्थी’, ‘जयदोल’; उपन्यास—‘शेखर : एक जीवनी’ (प्रथम भाग और द्वितीय भाग), ‘नदी के द्वीप’, ‘अपने-अपने अजनबी’; यात्रा वृत्तान्त—‘अरे यायावर रहेगा याद?’, ‘एक बूँद सहसा उछली’; निबन्ध-संग्रह—‘सबरंग’, ‘त्रिशंकु’, ‘आत्मनेपद’, ‘हिन्दी साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य’, ‘आलवाल’; आलोचना—‘त्रिशंकु’, ‘आत्मनेपद’, ‘भवन्ती’, ‘अद्यतन’; संस्मरण—‘स्मृति लेखा’; डायरियाँ—‘भवन्ती’, ‘अन्तरा’ और ‘शाश्वती’; विचार-गद्य—‘संवत्सर’; नाटक—‘उत्तरप्रियदर्शी’; सम्पादित ग्रन्थ—‘तार सप्तक’, ‘दूसरा सप्तक’, ‘तीसरा सप्तक’ (कविता-संग्रह) के साथ कई अन्य पुस्तकों का सम्पादन।सम्मान : 1964 में ‘आँगन के पार द्वार’ पर उन्हें ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ प्राप्त हुआ और 1979 में ‘कितनी नावों में कितनी बार’ पर ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’।निधन : 4 अप्रैल, 1987
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