Mere Ram Meri Ramkatha

Publisher:
Vani prakashan
| Author:
Narendra Kohli
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback

206

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160

“रामकथा के पहले खंड ‘दीक्षा’ का लेखन शायद 1973 ई. में आरंभ हुआ था। वह मेरे मन में कब से उमड़-घुमड़ रहा था, यह कहना कठिन है। मेरी रामकथा के सारे खंड 1975 ई. से 1979 ई. के बीच प्रकाशित हुए थे। तब से ही बहुत सारे प्रश्न मेरे सामने थे • कुछ, दूसरों के द्वारा पूछे गए और कुछ मेरे अपने मन में अंकुरित हुए। बहुत कुछ वह था, जो लोग पूछ रहे थे और कुछ वह भी था, जो मैं अपने पाठकों को बताना चाहता था। यही कारण है कि समय-समय पर अनेक कोणों से, अनेक पक्षों को ले कर मैं अपनी सृजन प्रक्रिया और अपनी कृति के विषय में सोचता, कहता और लिखता रहा। अंततः उन सारे निबन्धों, साक्षात्कारों, वक्तव्यों और व्याख्यानों को मैंने एक कृति के रूप में प्रस्तुत करने का मन बनाया। मैं रामकथा के लेखन के नेपथ्य के विषय में सब कुछ कह देना चाहता था। वस्तुतः मैंने लिखने से पहले इन प्रश्नों पर उतना विचार नहीं किया था, जितना पाठकों, आलोचकों और साक्षात्कारकर्ताओं के प्रश्नों ने मुझे सोचने के लिए बाध्य किया। उन प्रश्नों के उत्तर खोजते खोजते बहुत सारी बातें मेरे सामने स्पष्ट हुईं। इस प्रकार जो मंथन मेरे मन में हुआ, वह सारा का सारा इस पुस्तक के रूप में आपके सामने है। मैंने ‘अभ्युदय’ में कथा और चरित्रों को वह रूप क्यों दिया, वह तर्क इस पुस्तक के रूप में प्रस्तुत है। रामकथा से मेरा सम्बन्ध, उसका आकर्षण, अपने युग का उससे तादात्म्य, उसका संदेश, उसका महत्त्व जिस रूप में मैं समझ पाया, वह सब इस पुस्तक में कह दिया है। प्रश्न फिर भी रहेंगे। प्रश्न नहीं रहेंगे तो भविष्य की रामकथा कैसे लिखी जाएगी।

-नरेन्द्र कोहली”

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Description

“रामकथा के पहले खंड ‘दीक्षा’ का लेखन शायद 1973 ई. में आरंभ हुआ था। वह मेरे मन में कब से उमड़-घुमड़ रहा था, यह कहना कठिन है। मेरी रामकथा के सारे खंड 1975 ई. से 1979 ई. के बीच प्रकाशित हुए थे। तब से ही बहुत सारे प्रश्न मेरे सामने थे • कुछ, दूसरों के द्वारा पूछे गए और कुछ मेरे अपने मन में अंकुरित हुए। बहुत कुछ वह था, जो लोग पूछ रहे थे और कुछ वह भी था, जो मैं अपने पाठकों को बताना चाहता था। यही कारण है कि समय-समय पर अनेक कोणों से, अनेक पक्षों को ले कर मैं अपनी सृजन प्रक्रिया और अपनी कृति के विषय में सोचता, कहता और लिखता रहा। अंततः उन सारे निबन्धों, साक्षात्कारों, वक्तव्यों और व्याख्यानों को मैंने एक कृति के रूप में प्रस्तुत करने का मन बनाया। मैं रामकथा के लेखन के नेपथ्य के विषय में सब कुछ कह देना चाहता था। वस्तुतः मैंने लिखने से पहले इन प्रश्नों पर उतना विचार नहीं किया था, जितना पाठकों, आलोचकों और साक्षात्कारकर्ताओं के प्रश्नों ने मुझे सोचने के लिए बाध्य किया। उन प्रश्नों के उत्तर खोजते खोजते बहुत सारी बातें मेरे सामने स्पष्ट हुईं। इस प्रकार जो मंथन मेरे मन में हुआ, वह सारा का सारा इस पुस्तक के रूप में आपके सामने है। मैंने ‘अभ्युदय’ में कथा और चरित्रों को वह रूप क्यों दिया, वह तर्क इस पुस्तक के रूप में प्रस्तुत है। रामकथा से मेरा सम्बन्ध, उसका आकर्षण, अपने युग का उससे तादात्म्य, उसका संदेश, उसका महत्त्व जिस रूप में मैं समझ पाया, वह सब इस पुस्तक में कह दिया है। प्रश्न फिर भी रहेंगे। प्रश्न नहीं रहेंगे तो भविष्य की रामकथा कैसे लिखी जाएगी।

-नरेन्द्र कोहली”

About Author

नरेन्द्र कोहली का जन्म 6 जनवरी 1940, सियालकोट ( अब पाकिस्तान ) में हुआ । दिल्ली विश्वविद्यालय से 1963 में एम.ए. और 1970 में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की । शुरू में पीजीडीएवी कॉलेज में कार्यरत फिर 1965 से मोतीलाल नेहरू कॉलेज में । बचपन से ही लेखन की ओर रुझान और प्रकाशन किंतु नियमित रूप से 1960 से लेखन । 1995 में सेवानिवृत्त होने के बाद पूर्ण कालिक स्वतंत्र लेखन। कहानी¸ उपन्यास¸ नाटक और व्यंग्य सभी विधाओं में अभी तक उनकी लगभग सौ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। उनकी जैसी प्रयोगशीलता¸ विविधता और प्रखरता कहीं और देखने को नहीं मिलती। उन्होंने इतिहास और पुराण की कहानियों को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में देखा है और बेहतरीन रचनाएँ लिखी हैं। महाभारत की कथा को अपने उपन्यास "महासमर" में समाहित किया है । सन 1988 में महासमर का प्रथम संस्करण 'बंधन' वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ था । महासमर प्रकाशन के दो दशक पूरे होने पर इसका भव्य संस्करण नौ खण्डों में प्रकाशित किया है । प्रत्येक भाग महाभारत की घटनाओं की समुचित व्याख्या करता है। इससे पहले महासमर आठ खण्डों में ( बंधन, अधिकार, कर्म, धर्म, अंतराल,प्रच्छन्न, प्रत्यक्ष, निर्बन्ध) था, इसके बाद वर्ष 2010 में भव्य संस्करण के अवसर पर महासमर आनुषंगिक (खंड-नौ) प्रकाशित हुआ । महासमर भव्य संस्करण के अंतर्गत ' नरेंद्र कोहली के उपन्यास (बंधन, अधिकार, कर्म, धर्म, अंतराल,प्रच्छन्न, प्रत्यक्ष, निर्बन्ध,आनुषंगिक) प्रकाशित हैं । महासमर में 'मत्स्यगन्धा', 'सैरंध्री' और 'हिडिम्बा' के बारे में वर्णन है, लेकिन स्त्री के त्याग को हमारा पुरुष समाज भूल जाता है।जरूरत है पौराणिक कहानियों को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में समझा जाये। इसी महासमर के अंतर्गततीन उपन्यास 'मत्स्यगन्धा', 'सैरंध्री' और 'हिडिम्बा' हैं जो स्त्री वैमर्शिक दृष्टिकोण से लिखे गये हैं ।

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