Mati Manush Choon (PB)

Publisher:
Vani prakashan
| Author:
Abhay Mishr
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback

198

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Page Extent:
134

अनुपम भाई अक्सर कहा करते थे कि प्रकृति का अपना कैलेण्डर होता है और कुछ सौ बरस में उसका एक पन्ना पलटता है। नदी को लेकर क्रान्ति एक भोली-भाली सोच है इससे ज़्यादा नहीं। वे कहते थे हम अपनी जीवन-चर्या से धीरे-धीरे ही नदी को ख़त्म करते हैं और जीवन-चर्या से धीरे-धीरे ही उसे बचा सकते हैं। उनका ‘प्रकृति का कैलेण्डर’ ही इस कथा का आधार बन सका है। नारों और वादों के स्वर्णयुग में जितनी बातें गंगा को लेकर कही जा रही हैं यदि वे सब लागू हो जाये तो क्या होगा? बस आज से 55-60 साल बाद सरकार और समाज के गंगा को गुनने-बुनने की कथा है ‘माटी मानुष चून’। -अभय मिश्रा पुस्तक अंश : “एक हिलसा तेज़ी से समुद्र की तरफ़ भाग रही थी, साथ में उसके दो छोटे बच्चे थे। काँटे और जाल से बच पाना लगभग असम्भव था, किस्मत से बचती बचाती वह किसी तरह आगे बढ़ रही थी। उसकी साँसें फूल रही थी और हिम्मत जबाव दे रही थी, आँखें बन्द किए दोनों बच्चे माँ के पंखों से चिपके आगे बढ़ रहे थे, एकाएक किसी पावर प्लाण्ट का छोड़ा हुआ गरम पानी उनकी तरफ़ बढ़ा, हिलसा ने पानी के बदलते तापमान से आती हुई मौत का अन्दाज़ा लगा लिया और बच्चों को अपने पंख में छुपा पूरी ताकत से गहरे पानी में गोता लगा दिया, नीचे ओर नीचे, ओर भी नीचे…. उसे पता था जीवन पाताल में छुपा है। एक साँस लेने के बाद उसने ऊपर की ओर देखा, सैकड़ों उलटी पड़ी मछलियाँ पानी की लहरों के साथ हिल रही थी, देखते ही देखते हिलसा का चेहरा एक औरत के चेहरे में तब्दील हो गया, फिर वह चेहरा ख़ूबसूरत होता चला गया, सुन्दर, बहुत सुन्दर ठीक वैसा ही जैसा साक्षी ने अपने मन में हमेशा से बना रखा था। ”

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अनुपम भाई अक्सर कहा करते थे कि प्रकृति का अपना कैलेण्डर होता है और कुछ सौ बरस में उसका एक पन्ना पलटता है। नदी को लेकर क्रान्ति एक भोली-भाली सोच है इससे ज़्यादा नहीं। वे कहते थे हम अपनी जीवन-चर्या से धीरे-धीरे ही नदी को ख़त्म करते हैं और जीवन-चर्या से धीरे-धीरे ही उसे बचा सकते हैं। उनका ‘प्रकृति का कैलेण्डर’ ही इस कथा का आधार बन सका है। नारों और वादों के स्वर्णयुग में जितनी बातें गंगा को लेकर कही जा रही हैं यदि वे सब लागू हो जाये तो क्या होगा? बस आज से 55-60 साल बाद सरकार और समाज के गंगा को गुनने-बुनने की कथा है ‘माटी मानुष चून’। -अभय मिश्रा पुस्तक अंश : “एक हिलसा तेज़ी से समुद्र की तरफ़ भाग रही थी, साथ में उसके दो छोटे बच्चे थे। काँटे और जाल से बच पाना लगभग असम्भव था, किस्मत से बचती बचाती वह किसी तरह आगे बढ़ रही थी। उसकी साँसें फूल रही थी और हिम्मत जबाव दे रही थी, आँखें बन्द किए दोनों बच्चे माँ के पंखों से चिपके आगे बढ़ रहे थे, एकाएक किसी पावर प्लाण्ट का छोड़ा हुआ गरम पानी उनकी तरफ़ बढ़ा, हिलसा ने पानी के बदलते तापमान से आती हुई मौत का अन्दाज़ा लगा लिया और बच्चों को अपने पंख में छुपा पूरी ताकत से गहरे पानी में गोता लगा दिया, नीचे ओर नीचे, ओर भी नीचे…. उसे पता था जीवन पाताल में छुपा है। एक साँस लेने के बाद उसने ऊपर की ओर देखा, सैकड़ों उलटी पड़ी मछलियाँ पानी की लहरों के साथ हिल रही थी, देखते ही देखते हिलसा का चेहरा एक औरत के चेहरे में तब्दील हो गया, फिर वह चेहरा ख़ूबसूरत होता चला गया, सुन्दर, बहुत सुन्दर ठीक वैसा ही जैसा साक्षी ने अपने मन में हमेशा से बना रखा था। ”

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