Kaka Ke Thahake

Publisher:
Prabhat Prakashan
| Author:
Kaka Hathrasi
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
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Prabhat Prakashan
Author:
Kaka Hathrasi
Language:
Hindi
Format:
Paperback

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328

काका हाथरसी हास्यरस के सच्चे कवि ही नहीं, काव्य-ऋषि थे। उनकी कविताओं के तीन रंग हैं-सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक। इन तीनों रंगों में काका हाथरसी ने कभी साहित्यिक शालीनता और शिष्टता की मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। उनका हास्य गुदगुदाता है, मन में आह्लाद पैदा करता है, समाज की विसंगतियों और विकृतियों का पर्दाफाश भी करता है, लेकिन कभी किसी को दुःख अथवा पीड़ा नहीं पहुँचाता। उनका हास्य चाँदनी की ऐसी रजत-शीतल छटा है, जो निराशा, कुंठा और उदासी के अंधकार को बरबस भगा देती है। इन सब विशेषताओं के साथ उनके हास्य में ऐसी मौलिकता, सहजता, सामाजिक चेतना और साहित्यिक गरिमा है, जो उन्हें अन्य हास्य-कवियों से अलग करके हिंदी के आधुनिक हास्य-व्यंग्य साहित्य में सर्वोच्च स्थान का अधिकारी बनाती है। काका की कलम का कमाल जिसकावर्णन से लेकर बेकार तक, शिष्टाचार से लेकर भ्रष्टाचार तक, परिवार से पत्रकार तक, विद्वान् से गँवार तक, फैशन से राशन तक, रिश्वत से त्याग तक और कमाई से महँगाई तक देखने को मिलता है। काका हाथरसी के इस संचयन ‘फुलझडि़याँ’ में उनकी ऐसी शिष्ट-विशिष्ट हास्य-व्यंग्य कविताओं का संकलन किया गया है, जो पाठकों को गुदगुदाएँगी, हँसाएँगी भी और सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था पर सोचने पर विवश भी करेंगी।.

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Description

काका हाथरसी हास्यरस के सच्चे कवि ही नहीं, काव्य-ऋषि थे। उनकी कविताओं के तीन रंग हैं-सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक। इन तीनों रंगों में काका हाथरसी ने कभी साहित्यिक शालीनता और शिष्टता की मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। उनका हास्य गुदगुदाता है, मन में आह्लाद पैदा करता है, समाज की विसंगतियों और विकृतियों का पर्दाफाश भी करता है, लेकिन कभी किसी को दुःख अथवा पीड़ा नहीं पहुँचाता। उनका हास्य चाँदनी की ऐसी रजत-शीतल छटा है, जो निराशा, कुंठा और उदासी के अंधकार को बरबस भगा देती है। इन सब विशेषताओं के साथ उनके हास्य में ऐसी मौलिकता, सहजता, सामाजिक चेतना और साहित्यिक गरिमा है, जो उन्हें अन्य हास्य-कवियों से अलग करके हिंदी के आधुनिक हास्य-व्यंग्य साहित्य में सर्वोच्च स्थान का अधिकारी बनाती है। काका की कलम का कमाल जिसकावर्णन से लेकर बेकार तक, शिष्टाचार से लेकर भ्रष्टाचार तक, परिवार से पत्रकार तक, विद्वान् से गँवार तक, फैशन से राशन तक, रिश्वत से त्याग तक और कमाई से महँगाई तक देखने को मिलता है। काका हाथरसी के इस संचयन ‘फुलझडि़याँ’ में उनकी ऐसी शिष्ट-विशिष्ट हास्य-व्यंग्य कविताओं का संकलन किया गया है, जो पाठकों को गुदगुदाएँगी, हँसाएँगी भी और सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था पर सोचने पर विवश भी करेंगी।.

About Author

जन्म: 18 सितंबर, 1906 को हाथरस में। काका हाथरसी का मूल नाम प्रभूलाल गर्ग था। मात्र 29 वर्ष की अवस्था में काका की प्रथम कविता ‘गुलदस्ता’ मासिक के मुखपृष्ठ पर सन् 1933 में प्रकाशित हुई। काका ने सन् 1935 में ‘संगीत’ मासिक प्रकाशित करने की योजना बनाई। रचना-संसार: ‘दुलत्ती’, ‘काका के कारतूस’, ‘काका के प्रहसन’, ‘काकदूत’, ‘काका की फुलझडि़याँ’, ‘काका के कहकहे’, ‘महामूर्ख सम्मेलन’, ‘काका की काकटेल’, ‘चकल्लस’, ‘काकाकोला’, ‘हँसगुल्ले’, ‘काका के धड़ाके’, ‘कहँ काका कविराय’, ‘फिल्मी सरकार’, ‘जय बोलो बेईमान की’, ‘नोकझोंक काका-काकी की’, ‘काका-काकी के लवलैटर्स’, ‘हसंत-बसंत’, ‘योगा एंड भोगा’, ‘काका की चौपाल’, ‘यार सप्तक’, ‘काका का दरबार’, ‘काका के चुटकुले’, ‘हँसी के गुब्बारे’, ‘काका तरंग’, ‘काका शतक’, ‘मेरा जीवन: ए-वन’, ‘मीठी-मीठी हँसाइयाँ’, ‘काका की महफिल’, ‘खिलखिलाहट’, ‘काका के व्यंग्य-बाण’। स्मृतिशेष: करोड़ों व्यक्तियों को हास्य से सराबोर करनेवाले काकाजी बड़े शांत भाव से 18 सितंबर, 1995 को हमसे बिदा हो गए; किंतु उनका लेखन हमेशा-हमेशा उनके प्रशंसकों के मन में उनकी स्मृतियाँ ताजा रखेगा।.

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