SaleHardback
Jeevan Ke Beechon Beech
Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
अशोक वाजपेयी
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
अशोक वाजपेयी
Language:
Hindi
Format:
Hardback
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ISBN:
SKU
9788170558379
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
276
सन उन्नीस सौ सत्तर के आस-पास पालिश कवि तादेऊष रूबिच की कुछ कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद कुछ पत्रिकाओं और पेंगुइन के एक प्रकाशन के माध्यम से भारत में पहली बार आया। उनके प्रति तुरन्त व्यापक आकर्षण इसलिए पैदा हुआ कि रूविच की कविता में सीधे सचाई के साथ-साथ असमजस और विडम्बना का गहरा अकाट्य-अदम्य बोध भी है। हालांकि रूज़ेविच की कविता की दुनिया साधारण रोज़मर्रा की जिन्दगी और उसमें हो रही गतिविधियों से बनी है, उससे हमारे समय की क्रूर सचाईयाँ बाहर नहीं हैं। वे आश्विट्ज़ के नाजी यंत्रणा – शिविर के संग्रहालय में रखी एक बच्ची की चुटिया को नहीं भूलते और न ही इस सीधी लेकिन मार्मिक सचाई को कि ‘मेरा वध होना था / बच गया। रूज़ेविच समय और इतिहास के सारे सहार के विरूद्ध साधारण के बचे रहने को बार-बार दर्ज करते कवि हैं। उनका असमजस यह नहीं है कि अँधेरे और रोशनी में फर्क कैसे किया जाये उनकी तलाश निरन्तर ऐसी कविता की रही है जो चीजों और भावनाओं को दे सके/फिर से उनका सही-सही नाम।
कहा जाता है कि आधुनिक पोलैण्ड का इतिहास सक्षेप में बीसवीं शताब्दी का ही इतिहास है। उसमें उसका अगभग हुआ. उसे ध्वस्त किया गया, उस पर आततायी एकाधिपत्य थोपा गया, उसके हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया, हजारों को देश से भागकर कहीं और शरण लेनी पड़ी। अगभग, ध्वस. आधिपत्य मृत्यु, यंत्रणा, देशनिकाला, शरण लेकिन इन सबके बरक्स गहरी और अदम्य जिजीविषा भी। इस दौरान की महत्वपूर्ण पोलिश कविता इतिहास और नियति की असख्य क्रूरताओं का शान्त, संयमित और विडम्बनापूर्ण प्रतिरोध रही है। रूज़ेविच की कविता भी किसी तरह के महिमामण्डन या ऐतिहासिक नाटकीयता से बराबर दूर रही है। उसने अपने समय के धूसर और अक्सर लहूलुहान सच को निपट साधारण जीवन में बार-बार पाया और व्यक्त किया है। वह गवाह है तो दूर खड़ी वारदातों को देखती – परखती गवाह नहीं – वह अक्सर जीवन के बीचोंबीच जाकर, उसकी आँच और ताप में झुलसकर भी गवाही देने की हिम्मत करती कविता है। उसमें कोई वीरगाथा नहीं है: वह साधारण की गाथा है। स्वयं कविता अपने आप उत्तरजीविता और साहस का रूपक है। वह बचे रहने की जितनी उपमा है उतनी ही रूपक है बचा सकने की चेष्टा का भी ।
तादेऊष रूज़ेविच के विशाल और कई दशकों में फैले कविता-संसार का समग्र आकलन करना न ही सम्भव है। और न ही जरूरी। इतना भर कहना काफी है कि उनकी हिन्दी में यह किचित् व्यवस्थित उपस्थिति पोलिश कविता में उनके कूद और महत्व के अनुरूप अगर उनकी दृष्टि, सम्वेदना और अनुभवों को, थोड़े में, अगर किसी हद तक रूपायित कर पायी है तो इस उपक्रम की सार्थकता है।
हमें उम्मीद है कि यह ख़बर पोलैण्ड में फैलेगी कि उनके एक मूर्धन्य कवि तादेऊष रूजेविच को हिन्दी मे आत्मसात् कर अपना एक सम्मान्य नागरिक बना लिया है। हिन्दी में अब एक खिड़की ऐसी खुल गयी है जिसमें से रुविच की कविता की रौशनी आ रही है।
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Description
सन उन्नीस सौ सत्तर के आस-पास पालिश कवि तादेऊष रूबिच की कुछ कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद कुछ पत्रिकाओं और पेंगुइन के एक प्रकाशन के माध्यम से भारत में पहली बार आया। उनके प्रति तुरन्त व्यापक आकर्षण इसलिए पैदा हुआ कि रूविच की कविता में सीधे सचाई के साथ-साथ असमजस और विडम्बना का गहरा अकाट्य-अदम्य बोध भी है। हालांकि रूज़ेविच की कविता की दुनिया साधारण रोज़मर्रा की जिन्दगी और उसमें हो रही गतिविधियों से बनी है, उससे हमारे समय की क्रूर सचाईयाँ बाहर नहीं हैं। वे आश्विट्ज़ के नाजी यंत्रणा – शिविर के संग्रहालय में रखी एक बच्ची की चुटिया को नहीं भूलते और न ही इस सीधी लेकिन मार्मिक सचाई को कि ‘मेरा वध होना था / बच गया। रूज़ेविच समय और इतिहास के सारे सहार के विरूद्ध साधारण के बचे रहने को बार-बार दर्ज करते कवि हैं। उनका असमजस यह नहीं है कि अँधेरे और रोशनी में फर्क कैसे किया जाये उनकी तलाश निरन्तर ऐसी कविता की रही है जो चीजों और भावनाओं को दे सके/फिर से उनका सही-सही नाम।
कहा जाता है कि आधुनिक पोलैण्ड का इतिहास सक्षेप में बीसवीं शताब्दी का ही इतिहास है। उसमें उसका अगभग हुआ. उसे ध्वस्त किया गया, उस पर आततायी एकाधिपत्य थोपा गया, उसके हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया, हजारों को देश से भागकर कहीं और शरण लेनी पड़ी। अगभग, ध्वस. आधिपत्य मृत्यु, यंत्रणा, देशनिकाला, शरण लेकिन इन सबके बरक्स गहरी और अदम्य जिजीविषा भी। इस दौरान की महत्वपूर्ण पोलिश कविता इतिहास और नियति की असख्य क्रूरताओं का शान्त, संयमित और विडम्बनापूर्ण प्रतिरोध रही है। रूज़ेविच की कविता भी किसी तरह के महिमामण्डन या ऐतिहासिक नाटकीयता से बराबर दूर रही है। उसने अपने समय के धूसर और अक्सर लहूलुहान सच को निपट साधारण जीवन में बार-बार पाया और व्यक्त किया है। वह गवाह है तो दूर खड़ी वारदातों को देखती – परखती गवाह नहीं – वह अक्सर जीवन के बीचोंबीच जाकर, उसकी आँच और ताप में झुलसकर भी गवाही देने की हिम्मत करती कविता है। उसमें कोई वीरगाथा नहीं है: वह साधारण की गाथा है। स्वयं कविता अपने आप उत्तरजीविता और साहस का रूपक है। वह बचे रहने की जितनी उपमा है उतनी ही रूपक है बचा सकने की चेष्टा का भी ।
तादेऊष रूज़ेविच के विशाल और कई दशकों में फैले कविता-संसार का समग्र आकलन करना न ही सम्भव है। और न ही जरूरी। इतना भर कहना काफी है कि उनकी हिन्दी में यह किचित् व्यवस्थित उपस्थिति पोलिश कविता में उनके कूद और महत्व के अनुरूप अगर उनकी दृष्टि, सम्वेदना और अनुभवों को, थोड़े में, अगर किसी हद तक रूपायित कर पायी है तो इस उपक्रम की सार्थकता है।
हमें उम्मीद है कि यह ख़बर पोलैण्ड में फैलेगी कि उनके एक मूर्धन्य कवि तादेऊष रूजेविच को हिन्दी मे आत्मसात् कर अपना एक सम्मान्य नागरिक बना लिया है। हिन्दी में अब एक खिड़की ऐसी खुल गयी है जिसमें से रुविच की कविता की रौशनी आ रही है।
About Author
तादेऊष रूजेविच
(कवि, गद्यकार, नाटककार और निबंधकार)
जन्म: 9 अक्टूबर, 1925
प्रमुख काव्य-कृतियाँ: अशान्ति, लाल दस्ताना, कविताएँ और चित्र, रुपहली बालियाँ, एक राजकुमार से बातचीत, हरा गुलाब, चुनी हुई कविताएँ, पत्थरतराशी, एक टुकड़ा हमेशा. रिसाइक्लिंग आदि। प्रमुख सम्मानों में क्रैको नगर का अलंकरण (1959), कला और संस्कृति-मंत्री का अलंकरण (1962), जर्मनी की ओर से सिलेसिया का प्रमुख सांस्कृतिक अलंकरण (1994) आदि। उनकी कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, इटालियन, रूसी, चेक, डच, हंगारियन, स्वीडिश, डेनिश समेत बीस से अधिक भाषाओं में हो चुका है। उन्हें वारसा विश्वविद्यालय और क्रैको के याग्येलोन्यन विश्वविद्यालय ने डाक्टरेट की मानद उपाधि से भी विभूषित किया है। अपने भाई स्तानिस्लाव रूजेविच के लिए उन्होंने कई फिल्मों की पटकथाएँ भी लिखीं। 1968 से वे पोलैण्ड के व्रोत्स्लाव नगर में रह रहे हैं।
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