HIRANYAGARBHA

Publisher:
Prabhat Prakashan
| Author:
Vidya Vindu Singh
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Prabhat Prakashan
Author:
Vidya Vindu Singh
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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भारत का स्त्री विमर्श चूँकि पश्चिम के वूमेन लिव का प्रतिफलन है, अतः स्वाभाविक ही था कि भारतीय स्त्रीवादी चिंतन को उस पश्चिमी नजरिए से देखा गया, जहाँ औरत की आजादी का मतलब है—पुरुष की बराबरी। इस सोच को हवा देने में हमारे यहाँ के बुद्धिजीवी भी पीछे नहीं रहे। उनका कहना है, ‘‘स्त्रीमुक्ति की हर यात्रा उसकी देह से शुरू होती है।’’ इस प्रकार के बोल्ड बयानों ने स्त्रीमुक्ति के अर्थ को विकृत किया है और अपने ‘वस्तु’ होने का विरोध करनेवाली स्त्री के लिए खुद ही वस्तु बनाए जाने के खतरों को बढ़ा दिया है। भारतीय संस्कृति से कटे ऐसे वक्तव्यों ने स्त्री स्वतंत्रता और स्वच्छंदता की विभाजक रेखा को मिटाकर दोनों में किस प्रकार घालमेल किया है, इसका प्रमाण हैं स्त्रीविमर्श के नाम पर परोसी गई ऐसी कहानियाँ, जिनमें स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता की दुहाई दी गई है। कथाकार डॉ. विद्या विंदु सिंह का यह उपन्यास संग्रह नारीविमर्श के विभिन्न आयामों का स्पर्श करता है—यौन हिंसा, यौन शोषण, अविवाहित मातृत्व, अशिक्षा, दहेज, यौनिक भेदभाव, विधवा पुनर्विवाह, घरेलू हिंसा, विवाह विच्छेद, परित्यक्ता नारी और पहचान का संकट आदि। इन समस्याओं के निरूपण के साथ लेखिका ने खाँटी भारतीय तरीके से समस्या का समाधान भी प्रस्तुत किया है। —निशा गहलौत.

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भारत का स्त्री विमर्श चूँकि पश्चिम के वूमेन लिव का प्रतिफलन है, अतः स्वाभाविक ही था कि भारतीय स्त्रीवादी चिंतन को उस पश्चिमी नजरिए से देखा गया, जहाँ औरत की आजादी का मतलब है—पुरुष की बराबरी। इस सोच को हवा देने में हमारे यहाँ के बुद्धिजीवी भी पीछे नहीं रहे। उनका कहना है, ‘‘स्त्रीमुक्ति की हर यात्रा उसकी देह से शुरू होती है।’’ इस प्रकार के बोल्ड बयानों ने स्त्रीमुक्ति के अर्थ को विकृत किया है और अपने ‘वस्तु’ होने का विरोध करनेवाली स्त्री के लिए खुद ही वस्तु बनाए जाने के खतरों को बढ़ा दिया है। भारतीय संस्कृति से कटे ऐसे वक्तव्यों ने स्त्री स्वतंत्रता और स्वच्छंदता की विभाजक रेखा को मिटाकर दोनों में किस प्रकार घालमेल किया है, इसका प्रमाण हैं स्त्रीविमर्श के नाम पर परोसी गई ऐसी कहानियाँ, जिनमें स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता की दुहाई दी गई है। कथाकार डॉ. विद्या विंदु सिंह का यह उपन्यास संग्रह नारीविमर्श के विभिन्न आयामों का स्पर्श करता है—यौन हिंसा, यौन शोषण, अविवाहित मातृत्व, अशिक्षा, दहेज, यौनिक भेदभाव, विधवा पुनर्विवाह, घरेलू हिंसा, विवाह विच्छेद, परित्यक्ता नारी और पहचान का संकट आदि। इन समस्याओं के निरूपण के साथ लेखिका ने खाँटी भारतीय तरीके से समस्या का समाधान भी प्रस्तुत किया है। —निशा गहलौत.

About Author

कृतियाँ: 98 कृतियाँ प्रकाशित एवं 21 कृतियाँ प्रकाशनार्थ। उपन्यास (7), कहानीसंग्रह (7), कवितासंग्रह (10), लोकसाहित्य (28), नाटक (5), निबंधसंग्रह (8), नवसाक्षर एवं बाल साहित्य (20), संपादित (11)। अन्य अनेक पुस्तकों और पत्रिकाओं का संपादन। अन्य: आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के विभिन्न केंद्रों से निरंतर प्रसारण। देश व विदेश की संस्थाओं, विश्वविद्यालयों से संबद्ध। शोधकार्य: लखनऊ वि.वि., गढ़वाल वि.वि श्रीनगर, कानपुर वि.वि., पुणे वि.वि., उच्च शिक्षा और शोध संस्थन दक्षिण भारत, चेन्नई द्वारा। अनुवाद: ‘सच के पाँव’ (कवितासंग्रह) का नेपाली भाषा में अनुवाद, साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा पुरस्कृत। मलयालम, मराठी, कश्मीरी, तेलुगू, बँगला, उडि़या, जापानी, अंग्रेजी भाषा में अनुवाद। विदेश यात्राएँ: विभिन्न साहित्यिक आयोजनों में देशविदेश में सक्रिय भागीदारी। सम्मान: 81 संस्थाओं द्वारा सम्मान एवं पुरस्कार। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ में संयुक्त निदेशक पद से सेवानिवृत्त। संप्रति: साहित्य एवं समाज सेवा।

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