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Dada-Dadi KI Kahaniyon Ka Pitara
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₹350 ₹263
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Weight | 272 g |
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Book Type |
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जब कोरोना वायरस के इस दौर में मैंने पहले-पहल घर से काम करना शुरू किया तो मैं अपने काम के बाद मिलनेवाले खाली समय में कुछ मजेदार करने के तरीके खोजने लगी। इस वायरस के बारे में मिल रही खबरों और इसके बारे में लगातार हो रही गंभीर चर्चाओं से अपना ध्यान हटाने के लिए मैंने वह करना शुरू किया, जो करने में मैं सबसे बेहतर हूँ—कहानियों की रचना करना।
मेरी कल्पना के घोड़ों ने तेजी से बिना किसी लगाम के दौड़ना शुरू किया और कहानियाँ इस तरह बुनकर तैयार होने लगीं, जैसे इस पुस्तक का तैयार होना पहले से तय था। मैं अज्जी और अज्जा, जो इस पुस्तक के प्रमुख पात्र हैं, दोनों ही बन जाती हूँ और फिर किसी दिन मैं इस पुस्तक के बच्चों की तरह भी महसूस करने लगती हूँ! दिन बहुत जल्दी-जल्दी बीत रहे हैं और यह पुस्तक भी यही बताती है कि मैंने अपनी एक दिनचर्या का अनुसरण करने, सकारात्मक सोचने, अपने आसपास होनेवाले नए बदलावों को स्वीकार करने और अपने उन लोगों की मदद करने के लक्ष्य पर काम करने, जो अभावग्रस्त जीवन व्यतीत कर रहे हैं, के महत्त्व को और भी बारीकी से समझा है।
मेरी बहन सुनंदा, जो मेरे पिताजी डॉ. आर.एच. कुलकर्णी—जिन्हें लोग अकसर ‘काका’ के नाम से जानते थे—की तरह ही एक डॉक्टर हैं। मैंने उनके काम को, उनके अपने मरीजों के प्रति समर्पण भाव को बहुत करीब से देखा और अपने लड़कपन के दौर में बिना इसका अहसास हुए मेरे मन में उन लोगों के प्रति सहानुभूति का भाव विकसित हो गया, जो किसी-न-किसी तरह की बीमारी से जूझ रहे हैं।
जब कोरोना वायरस के इस दौर में मैंने पहले-पहल घर से काम करना शुरू किया तो मैं अपने काम के बाद मिलनेवाले खाली समय में कुछ मजेदार करने के तरीके खोजने लगी। इस वायरस के बारे में मिल रही खबरों और इसके बारे में लगातार हो रही गंभीर चर्चाओं से अपना ध्यान हटाने के लिए मैंने वह करना शुरू किया, जो करने में मैं सबसे बेहतर हूँ—कहानियों की रचना करना।
मेरी कल्पना के घोड़ों ने तेजी से बिना किसी लगाम के दौड़ना शुरू किया और कहानियाँ इस तरह बुनकर तैयार होने लगीं, जैसे इस पुस्तक का तैयार होना पहले से तय था। मैं अज्जी और अज्जा, जो इस पुस्तक के प्रमुख पात्र हैं, दोनों ही बन जाती हूँ और फिर किसी दिन मैं इस पुस्तक के बच्चों की तरह भी महसूस करने लगती हूँ! दिन बहुत जल्दी-जल्दी बीत रहे हैं और यह पुस्तक भी यही बताती है कि मैंने अपनी एक दिनचर्या का अनुसरण करने, सकारात्मक सोचने, अपने आसपास होनेवाले नए बदलावों को स्वीकार करने और अपने उन लोगों की मदद करने के लक्ष्य पर काम करने, जो अभावग्रस्त जीवन व्यतीत कर रहे हैं, के महत्त्व को और भी बारीकी से समझा है।
मेरी बहन सुनंदा, जो मेरे पिताजी डॉ. आर.एच. कुलकर्णी—जिन्हें लोग अकसर ‘काका’ के नाम से जानते थे—की तरह ही एक डॉक्टर हैं। मैंने उनके काम को, उनके अपने मरीजों के प्रति समर्पण भाव को बहुत करीब से देखा और अपने लड़कपन के दौर में बिना इसका अहसास हुए मेरे मन में उन लोगों के प्रति सहानुभूति का भाव विकसित हो गया, जो किसी-न-किसी तरह की बीमारी से जूझ रहे हैं।
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