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Charaiveti! Charaiveti!!
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बचपन में आटपाडी गाँव में तीन मन बदले, कॉलेज के दिनों में पुणे में गदीमा की पंचवटी में डेरा डालने से पहले छह स्थान बदले, मुंबई में सात और दिल्ली में तीन अलग-अलग जगह पर मैं रह चुका हूँ। आजकल लखनऊ के राजभवन में रह रहा हूँ। हर आशियाने ने मुझे कुछ नया सिखाया, नए लोगों से जोड़ा, मुझे ढाला। अस्सी साल के जीवन में मुझे बीस बार अपना आशियाना बदलना पड़ा, पर अस्थिरता के इस दौर में मेरे कदम कभी डगमगाए नहीं मैं आगे बढ़ता रहा। (पृष्ठ 29) कई बार जिंदगी में अनायास ही ऐसा मोड़ आ जाता है कि वह जिंदगी की दिशा ही बदल देता है। मेरे जीवन में ऐसे बहुत से मोड़ आए। हर मोड़ पर एक नई चुनौती मुँहबाए खड़ी थी। उनका सामना करते-करते मैं आगे बढ़ता रहा। (पृष्ठ 31) कैंसर को मात करने के बाद मेरी दीर्घायु की कामना करते हुए अटलजी ने कहा, ‘‘सोचो, आप मृत्यु के द्वार से क्यों वापस आए हो? आपने वैभवशाली, संपन्न भारत का सपना देखा है। वह महान् कार्य करने के लिए ही मानो आपने पुनर्जन्म लिया है।’’ मैंने भी उनसे वादा किया कि ‘पुनश्च हरि ओम’ कर रहा हूँ। विधाता ने जो आयु मुझे बोनस के रूप में दी है, वह मैं जनसेवा के लिए व्यतीत करूँगा। (पृष्ठ 179) क्या हार में, क्या जीत में किंचित् नहीं भयभीत मैं, कर्तव्य-पथ पर जो भी मिला यह भी सही वो भी सही। आदरणीय अटलजी की यह कविता मेरी प्रिय है। मैंने कभी सोचा नहीं था कि यह कविता मुझे वास्तव में जीवन में जीनी पड़ेगी। पराजय की कल्पना मैंने कभी नहीं की थी। एक बार नहीं, दो बार मुझे पराजय का सामना करना पड़ा। चुनाव को मैंने हमेशा जनसेवा के सशक्त माध्यम के रूप में ही देखा। अतः अनपेक्षित हार को मैं ‘क्या हार में, क्या जीत में’ की भावना से पचा ले गया। (पृष्ठ 239) साथ ही आत्मचिंतन भी चल रहा था। सेहत से मैं हट्टा-कट्टा हूँ, मन में आया कि पराजय का बदला लेने के लिए क्या मुझे पुनः चुनाव लड़ना चाहिए? चुनाव लड़ना कभी भी मेरा ध्येय नहीं रहा। जीवन भर संगठन एवं जनसेवा के पथ पर चलने के लिए मैं प्रतिबद्ध था, उस पथ पर चुनाव एक पड़ाव था। (पृष्ठ 246) राजभवन में ऐश-ओ-आराम की भरपूर व्यवस्था मुहैया कराई गई है, पर उसे मैं ‘आराम महल’ की दृष्टि से कतई नहीं देखता, वह मेरा स्वभाव नहीं। फूल, पौधे, गोशाला से समृद्ध 47 एकड़ का यह सुंदर हेरीटेज राजभवन मुझे काम करते रहने की ऊर्जा देता है। मैं चाहता हूँ कि इसका नाम इसकी प्रतिष्ठा के कारण द तक पहुँचे। राजभवन के स्नानघर भी मेरे घर के कमरों से बड़े हैं। कुल मिलाकर सबकुछ शाही ढंग का! पर ऐसी विलासिता मुझे रास नहीं आती। मेरा दिल आम लोगों की तरफ दौड़ता रहता है, उनके बीच ही वह रमता है। (पृष्ठ 266).
बचपन में आटपाडी गाँव में तीन मन बदले, कॉलेज के दिनों में पुणे में गदीमा की पंचवटी में डेरा डालने से पहले छह स्थान बदले, मुंबई में सात और दिल्ली में तीन अलग-अलग जगह पर मैं रह चुका हूँ। आजकल लखनऊ के राजभवन में रह रहा हूँ। हर आशियाने ने मुझे कुछ नया सिखाया, नए लोगों से जोड़ा, मुझे ढाला। अस्सी साल के जीवन में मुझे बीस बार अपना आशियाना बदलना पड़ा, पर अस्थिरता के इस दौर में मेरे कदम कभी डगमगाए नहीं मैं आगे बढ़ता रहा। (पृष्ठ 29) कई बार जिंदगी में अनायास ही ऐसा मोड़ आ जाता है कि वह जिंदगी की दिशा ही बदल देता है। मेरे जीवन में ऐसे बहुत से मोड़ आए। हर मोड़ पर एक नई चुनौती मुँहबाए खड़ी थी। उनका सामना करते-करते मैं आगे बढ़ता रहा। (पृष्ठ 31) कैंसर को मात करने के बाद मेरी दीर्घायु की कामना करते हुए अटलजी ने कहा, ‘‘सोचो, आप मृत्यु के द्वार से क्यों वापस आए हो? आपने वैभवशाली, संपन्न भारत का सपना देखा है। वह महान् कार्य करने के लिए ही मानो आपने पुनर्जन्म लिया है।’’ मैंने भी उनसे वादा किया कि ‘पुनश्च हरि ओम’ कर रहा हूँ। विधाता ने जो आयु मुझे बोनस के रूप में दी है, वह मैं जनसेवा के लिए व्यतीत करूँगा। (पृष्ठ 179) क्या हार में, क्या जीत में किंचित् नहीं भयभीत मैं, कर्तव्य-पथ पर जो भी मिला यह भी सही वो भी सही। आदरणीय अटलजी की यह कविता मेरी प्रिय है। मैंने कभी सोचा नहीं था कि यह कविता मुझे वास्तव में जीवन में जीनी पड़ेगी। पराजय की कल्पना मैंने कभी नहीं की थी। एक बार नहीं, दो बार मुझे पराजय का सामना करना पड़ा। चुनाव को मैंने हमेशा जनसेवा के सशक्त माध्यम के रूप में ही देखा। अतः अनपेक्षित हार को मैं ‘क्या हार में, क्या जीत में’ की भावना से पचा ले गया। (पृष्ठ 239) साथ ही आत्मचिंतन भी चल रहा था। सेहत से मैं हट्टा-कट्टा हूँ, मन में आया कि पराजय का बदला लेने के लिए क्या मुझे पुनः चुनाव लड़ना चाहिए? चुनाव लड़ना कभी भी मेरा ध्येय नहीं रहा। जीवन भर संगठन एवं जनसेवा के पथ पर चलने के लिए मैं प्रतिबद्ध था, उस पथ पर चुनाव एक पड़ाव था। (पृष्ठ 246) राजभवन में ऐश-ओ-आराम की भरपूर व्यवस्था मुहैया कराई गई है, पर उसे मैं ‘आराम महल’ की दृष्टि से कतई नहीं देखता, वह मेरा स्वभाव नहीं। फूल, पौधे, गोशाला से समृद्ध 47 एकड़ का यह सुंदर हेरीटेज राजभवन मुझे काम करते रहने की ऊर्जा देता है। मैं चाहता हूँ कि इसका नाम इसकी प्रतिष्ठा के कारण द तक पहुँचे। राजभवन के स्नानघर भी मेरे घर के कमरों से बड़े हैं। कुल मिलाकर सबकुछ शाही ढंग का! पर ऐसी विलासिता मुझे रास नहीं आती। मेरा दिल आम लोगों की तरफ दौड़ता रहता है, उनके बीच ही वह रमता है। (पृष्ठ 266).
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