Banbhatt Ki Aatmakatha (PB)

Publisher:
RAJKAMAL
| Author:
Hazariprasad Dwivedi
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
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RAJKAMAL
Author:
Hazariprasad Dwivedi
Language:
Hindi
Format:
Paperback

319

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292

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की विपुल रचना-सामर्थ्य का रहस्य उनके विशद शास्त्रीय ज्ञान में नहीं, बल्कि उस पारदर्शी जीवन-दृष्टि में निहित है, जो युग का नहीं युग-युग का सत्य देखती है। उनकी प्रतिभा ने इतिहास का उपयोग ‘तीसरी आँख’ के रूप में किया है और अतीत-कालीन चेतना-प्रवाह को वर्तमान जीवनधारा से जोड़ पाने में वह आश्चर्यजनक रूप से सफल हुई है। बाणभट्ट की आत्मकथा अपनी समस्त औपन्यासिक संरचना और भंगिमा में कथा-कृति होते हुए भी महाकाव्यत्व की गरिमा से पूर्ण है। इसमें द्विवेदी जी ने प्राचीन कवि बाण के बिखरे जीवन-सूत्रों को बड़ी कलात्मकता से गूँथकर एक ऐसी कथाभूमि निर्मित की है जो जीवन-सत्यों से रसमय साक्षात्कार कराती है। इसमें वह वाणी मुखरित है जो सामगान के समान पवित्रा और अर्थपूर्ण है-‘सत्य के लिए किसी से न डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्रा से भी नहीं; लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।’ बाणभट्ट की आत्मकथा का कथानायक कोरा भावुक कवि नहीं वरन कर्मनिरत और संघर्षशील जीवन-योद्धा है। उसके लिए ‘शरीर केवल भार नहीं, मिट्टी का ढेला नहीं’, बल्कि ‘उससे बड़ा’ है और उसके मन में आर्यावर्त्त के उद्धार का निमित्त बनने की तीव्र बेचैनी है। ‘अपने को निःशेष भाव से दे देने’ में जीवन की सार्थकता देखने वाली निउनिया और ‘सबकुछ भूल जाने की साधना’ में लीन महादेवी भट्टिनी के प्रति उसका प्रेम जब उच्चता का वरण कर लेता है तो यही गूँज अंत में रह जाती हैद-‘‘वैराग्य क्या इतनी बड़ी चीज है कि प्रेम देवता को उसकी नयनाग्नि में भस्म कराके ही कवि गौरव का अनुभव करे?’’

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Description

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की विपुल रचना-सामर्थ्य का रहस्य उनके विशद शास्त्रीय ज्ञान में नहीं, बल्कि उस पारदर्शी जीवन-दृष्टि में निहित है, जो युग का नहीं युग-युग का सत्य देखती है। उनकी प्रतिभा ने इतिहास का उपयोग ‘तीसरी आँख’ के रूप में किया है और अतीत-कालीन चेतना-प्रवाह को वर्तमान जीवनधारा से जोड़ पाने में वह आश्चर्यजनक रूप से सफल हुई है। बाणभट्ट की आत्मकथा अपनी समस्त औपन्यासिक संरचना और भंगिमा में कथा-कृति होते हुए भी महाकाव्यत्व की गरिमा से पूर्ण है। इसमें द्विवेदी जी ने प्राचीन कवि बाण के बिखरे जीवन-सूत्रों को बड़ी कलात्मकता से गूँथकर एक ऐसी कथाभूमि निर्मित की है जो जीवन-सत्यों से रसमय साक्षात्कार कराती है। इसमें वह वाणी मुखरित है जो सामगान के समान पवित्रा और अर्थपूर्ण है-‘सत्य के लिए किसी से न डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्रा से भी नहीं; लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।’ बाणभट्ट की आत्मकथा का कथानायक कोरा भावुक कवि नहीं वरन कर्मनिरत और संघर्षशील जीवन-योद्धा है। उसके लिए ‘शरीर केवल भार नहीं, मिट्टी का ढेला नहीं’, बल्कि ‘उससे बड़ा’ है और उसके मन में आर्यावर्त्त के उद्धार का निमित्त बनने की तीव्र बेचैनी है। ‘अपने को निःशेष भाव से दे देने’ में जीवन की सार्थकता देखने वाली निउनिया और ‘सबकुछ भूल जाने की साधना’ में लीन महादेवी भट्टिनी के प्रति उसका प्रेम जब उच्चता का वरण कर लेता है तो यही गूँज अंत में रह जाती हैद-‘‘वैराग्य क्या इतनी बड़ी चीज है कि प्रेम देवता को उसकी नयनाग्नि में भस्म कराके ही कवि गौरव का अनुभव करे?’’

About Author

जन्म : श्रावणशुक्ल एकादशी सम्वत् 1964 (1907 ई.)। जन्म-स्थान : आरत दुबे का छपरा, ओझवलिया, बलिया (उत्तर प्रदेश)। शिक्षा : संस्कृत महाविद्यालय, काशी में। 1929 ई. में संस्कृत साहित्य में शास्त्री और 1930 में ज्योतिष विषय लेकर शास्त्राचार्य की उपाधि। 8 नवम्बर, 1930 को हिन्दी शिक्षक के रूप में शान्तिनिकेतन में कार्यारम्भ; वहीं अध्यापन 1930 से 1950 तक; सन् 1950 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक और हिन्दी विभागाध्यक्ष; सन् 1960-67 में पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हिन्दी प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष; 1967 के बाद पुन: काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में; कुछ दिनों तक रैक्टर पद पर भी। राजभाषा आयोग के राष्ट्रपति-मनोनीत सदस्य (1955); जीवन के अन्तिम दिनों में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष रहे। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के हस्तलेखों की खोज (1952) तथा ‘साहित्य अकादेमी’ से प्रकाशित ‘नेशनल बिब्लियोग्राफ़ी’ (1954) के निरीक्षक। प्रकाशन : ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘चारु चन्द्रलेख’, ‘अनामदास का पोथा’, ‘पुनर्नवा’ (उपन्यास); ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’, ‘हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास’, ‘नाथ सम्प्रदाय’, ‘साहित्य सहचर’, ‘नाट्यशास्त्र की भारतीय परम्परा और दशरूपक’, ‘संदेश रासक’, ‘कालिदास की लालित्य योजना’, ‘मेघदूत : एक पुरानी कहानी’, ‘कबीर’, ‘सूर-साहित्य’, ‘सहज साधना’, ‘मध्यकालीन बोध का स्वरूप’, ‘प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद कला’, ‘महामृत्युंजय रवींद्र’ (आलोचना); ‘सिक्ख गुरुओं का पुण्यस्मरण’, ‘महापुरुषों का स्मरण’ (स्मरण); ‘अशोक के फूल’, ‘कुटज’, ‘आलोक पर्व’, ‘कल्पलता’, ‘विचार प्रवाह’, ‘मध्यकालीन धर्म-साधना’ (निबन्ध); ‘हिन्दी भाषा का वृहत् ऐतिहासिक व्याकरण’ (व्याकरण); ‘हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली’—12 खंडों में (सम्पूर्ण रचनाएँ)। सम्मान : लखनऊ विश्वविद्यालय से सम्मानार्थ ‘डॉक्टर ऑफ़ लिट्रेचर उपाधि’ (1949), ‘पद्मभूषण’ (1957), पश्चिम बंग ‘साहित्य अकादेमी’ का ‘टैगोर पुरस्कार’ तथा ‘केन्द्रीय साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ (1973)। निधन : 19 मई, 1979

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