Veeraan Tapu Ka Khazana | वीरान टापू का खज़ाना

Publisher:
Sahitya Vimarsh
| Author:
Bibhuti Bhushan Bandopadhyay | Jaydeep Shekhar (Translator)
| Language:
HIndi
| Format:
Paperback
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Sahitya Vimarsh
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Bibhuti Bhushan Bandopadhyay | Jaydeep Shekhar (Translator)
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164

वीरान टापू का खज़ाना – 1946 में प्रकाशित ‘हीरे माणिक जले’ का हिन्दी अनुवाद है। मुस्तफी वंश में काम करना बेइज्जती की बात मानी जाती थी। वह जमींदार जो होते थे। पर सुशील काम करना चाहता था। जब गाँव में उसे काम नहीं मिला, तो वो डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए कोलकाता आ गया। और यहाँ उसकी मुलाकात हुई एक खलासी जमातुल्ला से जिसने उसे एक मणि और एक टापू की ऐसी दास्तान सुनाई। जमातुल्ला की मानें तो उस टापू में ऐसा खजाना था जो किसी को भी अमीर… बहुत अमीर बना सकता था। पर वहाँ जाना इतना आसान न था। यह सुन सुशील अपने ममेरे भाई सनत और जमातुल्ला के साथ उस खजाने की खोज पर जाने को लालायित हो गया। पर उस खजाने तक पहुँचना आसान न था। उन्हें न केवल खतरनाक समुद्री यात्रा करनी थी, बल्कि ऐसे जलदस्युओं से भी खुद को बचाना था, जो खजाने की भनक पाकर उन्हें मार डालने में जरा भी नहीं हिचकिचाते। आखिर कैसी रही सुशील, सनत और जमातुल्ला की यात्रा? इस यात्रा पर उनके सामने क्या क्या मुसीबतें आईं? क्या उन्हें मिल पाया वीरान टापू का खजाना? खज़ाने की तलाश की यह कहानी रोमांचक होने के साथ-साथ मानवीय स्वभाव और सौहार्द की अनूठी दास्तान है।

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Description

वीरान टापू का खज़ाना – 1946 में प्रकाशित ‘हीरे माणिक जले’ का हिन्दी अनुवाद है। मुस्तफी वंश में काम करना बेइज्जती की बात मानी जाती थी। वह जमींदार जो होते थे। पर सुशील काम करना चाहता था। जब गाँव में उसे काम नहीं मिला, तो वो डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए कोलकाता आ गया। और यहाँ उसकी मुलाकात हुई एक खलासी जमातुल्ला से जिसने उसे एक मणि और एक टापू की ऐसी दास्तान सुनाई। जमातुल्ला की मानें तो उस टापू में ऐसा खजाना था जो किसी को भी अमीर… बहुत अमीर बना सकता था। पर वहाँ जाना इतना आसान न था। यह सुन सुशील अपने ममेरे भाई सनत और जमातुल्ला के साथ उस खजाने की खोज पर जाने को लालायित हो गया। पर उस खजाने तक पहुँचना आसान न था। उन्हें न केवल खतरनाक समुद्री यात्रा करनी थी, बल्कि ऐसे जलदस्युओं से भी खुद को बचाना था, जो खजाने की भनक पाकर उन्हें मार डालने में जरा भी नहीं हिचकिचाते। आखिर कैसी रही सुशील, सनत और जमातुल्ला की यात्रा? इस यात्रा पर उनके सामने क्या क्या मुसीबतें आईं? क्या उन्हें मिल पाया वीरान टापू का खजाना? खज़ाने की तलाश की यह कहानी रोमांचक होने के साथ-साथ मानवीय स्वभाव और सौहार्द की अनूठी दास्तान है।

About Author

जन्म- 24 अक्तूबर, 1894 ई., घोषपाड़ा-मुरतीपुर गाँव, अब नदिया जिला,

पुरस्कार- रवीन्द्र पुरस्कार (मरणोपरान्त), 1951

सहधर्मिणी- गौरी देवी (जिनका देहान्त कॉलेरा से हो गया था) और रमा चट्टोपाध्याय

शुरुआती जीवन

विभूतिभूषण वन्द्योपाध्याय का जन्म उनके ननिहाल में हुआ था और उनका बचपन बैरकपुर में बीता, जहाँ उनके परदादा बशीरहाट से आकर बस गये थे। उनके पिता महानन्द वन्द्योपाध्याय संस्कृत के विद्वान थे और पेशे से कथावाचक थे। उनकी माता मृणालिनी देवी थीं। पाँच भाई-बहनों में विभूतिभूषण सबसे बड़े थे।

एक मेधावी छात्र के रुप में उन्होंने बनगाँव हाई स्कूल से एण्ट्रेन्स एवं इण्टर की पढ़ाई की; सुरेन्द्रनाथ कॉलेज (तत्कालीन रिपन कॉलेज) से स्नातक बने, मगर कोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की पढ़ाई वे अर्थाभाव के कारण पूरी नहीं कर पाये और जंगीपाड़ा (हुगली) में वे शिक्षण के पेशे से जुड़ गये। आजीविका एवं परिवार की जिम्मेवारी निभाने के लिए वे और भी कई पेशों से जुड़े रहे।

लेखन- विभूतिभूषण वन्द्योपाध्याय के रचना-संसार की पृष्ठभूमि बँगाल का ग्राम्य-जीवन रहा है, वहीं से उन्होंने सारे पात्र लिये हैं। उन दिनों ‘प्रवासी’ बँगाल की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका हुआ करती थी, जिसमें उनकी पहली कहानी ‘उपेक्षिता’ सन् 1921 ईस्वी में प्रकाशित हुई। 1925 में भागलपुर (बिहार) में कार्यरत रहने के दौरान उन्होंने ‘पथेर पाँचाली’ लिखना शुरु किया, जो 1928 में पूरा हुआ। उसी वर्ष यह रचना ‘प्रवासी’ में धारावाहिक रुप से प्रकाशित हुई और उन्हें प्रसिद्धि मिलनी शुरु हो गयी। अगले साल यह रचना पुस्तक के रुप में प्रकाशित हुई। आज बँगला साहित्य में शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय के बाद उन्हीं का स्थान माना जाता है।

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