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Uttar-Udarikaran Ke Aandolan
Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
अकु श्रीवास्तव
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
अकु श्रीवास्तव
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹695 ₹487
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1-4 Days
In stock
ISBN:
SKU
9789355182777
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
384
आन्दोलनों के राजनीतिक स्वरूप और उसके सामाजिक प्रभावों को बारीकी से समझने के लिए एक खास नज़रिये की आवश्यकता होती है। विशेषकर जब वैश्विक स्तर पर भी कई बार आन्दोलन फ़ैशनेबल होते जा रहे हैं। देश के लब्धप्रतिष्ठित और अनुभवी पत्रकार अकु श्रीवास्तव, जिनकी पैनी नज़र और व्यापक दृष्टिकोण ने हिन्दी पत्रकारिता को नये आयाम दिये हैं, उनसे उनकी पुस्तक उत्तर-उदारीकरण के आन्दोलन के माध्यम से आन्दोलनों के ऐतिहासिक परिवेश और उनके सामाजिक प्रतिफल को समझने का मौका मिलता है। नब्बे के दशक के आर्थिक उदारीकरण ने देश की दिशा और दशा हमेशा के लिए बदल दी। इसे समझना अपने आप में एक रोचक और शोध का विषय है। लेखक इस बात की ओर इशारा करते हैं कि उदारवाद और भूमण्डलीकरण के तीस साल बाद विकास और नित नये उभरते असन्तोष की समीक्षा है ज़रूरी है। वो जिन आन्दोलनों का उल्लेख करते हैं वे वैश्विक और स्थानीय दोनों हैं, मसलन-अमेरिका का ‘ब्लैक लाइफ़ मैटर्स’ से लेकर हांगकांग में चीन के वर्चस्व के खिलाफ़ लड़ाई और भारत में शाहीन बाग़ जैसे आन्दोलन। वे इन सारे प्रकरणों में सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव और ‘नेशन वांट्स टु नो’ जैसे मनोरंजक जुमलों के साथ-साथ न्यूज़ की गम्भीरता में होने वाले ह्रास की ओर भी गम्भीरतापूर्वक ध्यान आकर्षित करते हैं। कुल मिलाकर यह पुस्तक एक सहज और रोचक लहजे में एक गम्भीर शोधनीय विषय की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है।
प्रोफ़ेसर मिहिर भोले
प्रिंसिपल फैकल्टी, इंटरडिसिप्लिनरी डिज़ाइन स्टडीज़, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ डिज़ाइन, अहमदाबाद
निर्वासन से स्थापन की कँटीली राह से गुज़रते हुए कोई देश किस तरह अपनी जड़ों से उखाड़ कर फेंक दिया जाता है इसकी पीड़ा सदियों से मनुष्य जाति झेल रही है। समाज जब सामूहिक पीड़ा का शिकार होता है तो उसी को अपनी आवाज़ में बदल देता है। ये बुलन्द आवाज़े न सिर्फ़ हमारी पीढ़ियों को बल्कि सरकारों को भी झकझोरती हैं। हम उदारवाद और भूमण्डलीकरण के समय में जी रहे हैं और हमारी आने वाली नस्लें वैचारिक तौर पर परिपक्व हैं। वे विचार केन्द्रित तो हैं ही, साथ ही अपने अधिकारों को जन-आन्दोलनों के परिप्रेक्ष्य में समझने बरतने और उन पर स्पष्टीकरण के लिए व्यावहारिक रूप से ज़रूरी चर्चा भी करती हैं। उत्तर- उदारीकरण के आन्दोलन पुस्तक उसी सामूहिकता पर सशक्त विचार व्यक्त करती है जिसे एक जागरूक पीढ़ी ने संचालित किया। इस दायित्व बोध का निर्वाह करते हुए देश की जागरूक पीढ़ी ने अपने समय की समस्याओं और पीड़ाओं को समझा और इंगित भी किया। यह पुस्तक उन सभी बिन्दुओं पर क्रमवार केन्द्रित है जिनके कारण हमारा समाज और मनुष्यता तनाव में रही। इन आन्दोलनों को केवल सामाजिक बदलावों के परिप्रेक्ष्य में नहीं देखना चाहिए बल्कि धर्म, क़ानून और राजनीति की कसौटी पर इनके प्रत्येक तन्तुओं की पड़ताल करके ही इन आन्दोलनों के उजले और मलिन पक्षों को समझा जा सकता है। सनद रहे, ये आन्दोलन केवल न्याय के लिए की गयी लड़ाई नहीं थी बल्कि मनुष्यता बचाये रखने के लिए एक सामूहिक चेतना की पुकार थी और इन्हें उसी गहराई और मार्मिकता से समझा जाना आवश्यक है।
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Description
आन्दोलनों के राजनीतिक स्वरूप और उसके सामाजिक प्रभावों को बारीकी से समझने के लिए एक खास नज़रिये की आवश्यकता होती है। विशेषकर जब वैश्विक स्तर पर भी कई बार आन्दोलन फ़ैशनेबल होते जा रहे हैं। देश के लब्धप्रतिष्ठित और अनुभवी पत्रकार अकु श्रीवास्तव, जिनकी पैनी नज़र और व्यापक दृष्टिकोण ने हिन्दी पत्रकारिता को नये आयाम दिये हैं, उनसे उनकी पुस्तक उत्तर-उदारीकरण के आन्दोलन के माध्यम से आन्दोलनों के ऐतिहासिक परिवेश और उनके सामाजिक प्रतिफल को समझने का मौका मिलता है। नब्बे के दशक के आर्थिक उदारीकरण ने देश की दिशा और दशा हमेशा के लिए बदल दी। इसे समझना अपने आप में एक रोचक और शोध का विषय है। लेखक इस बात की ओर इशारा करते हैं कि उदारवाद और भूमण्डलीकरण के तीस साल बाद विकास और नित नये उभरते असन्तोष की समीक्षा है ज़रूरी है। वो जिन आन्दोलनों का उल्लेख करते हैं वे वैश्विक और स्थानीय दोनों हैं, मसलन-अमेरिका का ‘ब्लैक लाइफ़ मैटर्स’ से लेकर हांगकांग में चीन के वर्चस्व के खिलाफ़ लड़ाई और भारत में शाहीन बाग़ जैसे आन्दोलन। वे इन सारे प्रकरणों में सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव और ‘नेशन वांट्स टु नो’ जैसे मनोरंजक जुमलों के साथ-साथ न्यूज़ की गम्भीरता में होने वाले ह्रास की ओर भी गम्भीरतापूर्वक ध्यान आकर्षित करते हैं। कुल मिलाकर यह पुस्तक एक सहज और रोचक लहजे में एक गम्भीर शोधनीय विषय की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है।
प्रोफ़ेसर मिहिर भोले
प्रिंसिपल फैकल्टी, इंटरडिसिप्लिनरी डिज़ाइन स्टडीज़, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ डिज़ाइन, अहमदाबाद
निर्वासन से स्थापन की कँटीली राह से गुज़रते हुए कोई देश किस तरह अपनी जड़ों से उखाड़ कर फेंक दिया जाता है इसकी पीड़ा सदियों से मनुष्य जाति झेल रही है। समाज जब सामूहिक पीड़ा का शिकार होता है तो उसी को अपनी आवाज़ में बदल देता है। ये बुलन्द आवाज़े न सिर्फ़ हमारी पीढ़ियों को बल्कि सरकारों को भी झकझोरती हैं। हम उदारवाद और भूमण्डलीकरण के समय में जी रहे हैं और हमारी आने वाली नस्लें वैचारिक तौर पर परिपक्व हैं। वे विचार केन्द्रित तो हैं ही, साथ ही अपने अधिकारों को जन-आन्दोलनों के परिप्रेक्ष्य में समझने बरतने और उन पर स्पष्टीकरण के लिए व्यावहारिक रूप से ज़रूरी चर्चा भी करती हैं। उत्तर- उदारीकरण के आन्दोलन पुस्तक उसी सामूहिकता पर सशक्त विचार व्यक्त करती है जिसे एक जागरूक पीढ़ी ने संचालित किया। इस दायित्व बोध का निर्वाह करते हुए देश की जागरूक पीढ़ी ने अपने समय की समस्याओं और पीड़ाओं को समझा और इंगित भी किया। यह पुस्तक उन सभी बिन्दुओं पर क्रमवार केन्द्रित है जिनके कारण हमारा समाज और मनुष्यता तनाव में रही। इन आन्दोलनों को केवल सामाजिक बदलावों के परिप्रेक्ष्य में नहीं देखना चाहिए बल्कि धर्म, क़ानून और राजनीति की कसौटी पर इनके प्रत्येक तन्तुओं की पड़ताल करके ही इन आन्दोलनों के उजले और मलिन पक्षों को समझा जा सकता है। सनद रहे, ये आन्दोलन केवल न्याय के लिए की गयी लड़ाई नहीं थी बल्कि मनुष्यता बचाये रखने के लिए एक सामूहिक चेतना की पुकार थी और इन्हें उसी गहराई और मार्मिकता से समझा जाना आवश्यक है।
About Author
अकु श्रीवास्तव, पढ़ाई के दिनों से ही अख़बारी रुझान।
रचनात्मक सक्रियता के चलते कुछ और सूझा ही नहीं। विश्वविद्यालय की पढ़ाई के दौरान ही अख़बार में नौकरी शुरू कर दी और फिर उसमें ऐसे रमे कि किसी और दिशा में काम करने की सोची भी नहीं। डेस्क और रिपोर्टिंग पर लगातार काम। लगातार 15 साल काम करने के बाद पलने-बढ़ने का शहर लखनऊ छूटा तो शहर के साथ कई संस्थान भी बदल बदले। देश के नामचीन अख़बार समूह 'नवभारत टाइम्स', 'जनसत्ता', 'राजस्थान पत्रिका', 'अमर उजाला', 'हिन्दुस्तान', 'पंजाब केसरी' (जालन्धर समूह) और 'दैनिक जागरण' के झण्डे तले लखनऊ, जयपुर, चण्डीगढ़, मुम्बई, कोलकाता, मेरठ, जालन्धर, इलाहाबाद, बनारस, पटना में काम करते-करते अब शायद आख़िरी छोर में दिल वालों की दिल्ली में पिछले 10 साल से कार्यरत। इन्हें कभी गंगा मइया अपनी ओर खींचती रहीं तो कभी सतलुज। पर अब केन्द्र में यमुना की शरण में। ढाई दशकों से अधिक समय से सम्पादक की भूमिका में। कुछ समय पत्रिका 'कादम्बिनी' का सम्पादन सम्हाला। इस दौरान उत्तर,पूर्व और पश्चिम के राज्यों में राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य को गहरे तक देखा-समझा। ....और कभी-कभी पत्रकारिता को अति सक्रियता के साथ अंजाम देते रहे। इसी उद्देश्य से 'बूँद' नाम से ख़ास प्यार और समाज को कुछ वापस दे सकें, के उद्देश्य से काम भी करते रहे हैं। राजनीतिक-सामाजिक विषयों के अतिथि-विशेषज्ञ के तौर पर देश के प्रमुख इलेक्ट्रॉनिक चैनलों पर भी अक्सर रहते हैं। 'चुनाव 2019-कहानी मोदी 2.0 की' और 'क्षेत्रीय दलों का सेंसेक्स (हिन्दी और अंग्रेज़ी)' पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। तीन और पुस्तकों पर काम जारी।
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