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Uma Nehru Aur Striyon Ke Adhikar-(HB)
Publisher:
Rajkamal
| Author:
Ed. Pragya Pathak
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Rajkamal
Author:
Ed. Pragya Pathak
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹695 ₹487
Save: 30%
In stock
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3-5 days
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ISBN:
SKU
9789389577952
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
भारत में स्त्री-आन्दोलन के लिहाज़ से बीसवीं सदी के शुरुआती तीन दशक बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर जो आत्ममंथन की प्रक्रिया चल रही थी, उसी के एक बड़े हिस्से के रूप में स्त्री-स्वातंत्र्य की चेतना भी एक ठोस रूप ग्रहण कर रही थी।
हिन्दी में तत्कालीन नारीवादी चिन्तन में जिन लोगों ने दूरगामी भूमिका अदा की उनमें उमा नेहरू अग्रणी हैं। यह देखना दिलचस्प है कि स्त्री की निम्न दशा के लिए उनकी आर्थिक पराधीनता मुख्य कारण है, इस सच्चाई को उन्होंने उसी समय समझ लिया था; और पुरुष नारीवादियों द्वारा पाश्चात्य स्त्री-छवि के सन्दर्भ में किए गए ‘किन्तु-परन्तु’ वाले नारी-विमर्श की सीमाओं को भी। उमा नेहरू ने इन दोनों बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए स्त्री-पराधीनता और स्वाधीनता, दोनों की ठीक-ठीक पहचान की।
‘अच्छी स्त्री’ और ‘स्त्री के आत्मत्याग’ जैसी धारणाओं पर उन्होंने निर्भीकतापूर्वक लिखा कि ‘जो आत्मत्याग अपनी आत्मा, अपने शरीर का विनाशक हो…वह आत्महत्या है।’ भारतीय समाज के अन्धे परम्परा-प्रेम पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय और राजनीतिक प्रश्नों के अलावा जो सबसे बड़ा प्रश्न संसार के सामने है, वह यह कि आनेवाले समय और समाज में स्त्री के अधिकार क्या होंगे।
यह पुस्तक उमा नेहरू के 1910 से 1935 तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे आलेखों का संग्रह है। संसद में दिए उनके कुछ भाषणों को भी इसमें शामिल किया गया है जिनसे उनके स्त्री-चिन्तन के कुछ और पहलू स्पष्ट होते हैं।
परम्परा-पोषक समाज को नई चेतना का आईना दिखानेवाले ये आलेख आज की परिस्थितियों में भी प्रासंगिकता रखते हैं और भारत में नारीवाद के इतिहास को समझने के सिलसिले में भी।
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Description
भारत में स्त्री-आन्दोलन के लिहाज़ से बीसवीं सदी के शुरुआती तीन दशक बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर जो आत्ममंथन की प्रक्रिया चल रही थी, उसी के एक बड़े हिस्से के रूप में स्त्री-स्वातंत्र्य की चेतना भी एक ठोस रूप ग्रहण कर रही थी।
हिन्दी में तत्कालीन नारीवादी चिन्तन में जिन लोगों ने दूरगामी भूमिका अदा की उनमें उमा नेहरू अग्रणी हैं। यह देखना दिलचस्प है कि स्त्री की निम्न दशा के लिए उनकी आर्थिक पराधीनता मुख्य कारण है, इस सच्चाई को उन्होंने उसी समय समझ लिया था; और पुरुष नारीवादियों द्वारा पाश्चात्य स्त्री-छवि के सन्दर्भ में किए गए ‘किन्तु-परन्तु’ वाले नारी-विमर्श की सीमाओं को भी। उमा नेहरू ने इन दोनों बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए स्त्री-पराधीनता और स्वाधीनता, दोनों की ठीक-ठीक पहचान की।
‘अच्छी स्त्री’ और ‘स्त्री के आत्मत्याग’ जैसी धारणाओं पर उन्होंने निर्भीकतापूर्वक लिखा कि ‘जो आत्मत्याग अपनी आत्मा, अपने शरीर का विनाशक हो…वह आत्महत्या है।’ भारतीय समाज के अन्धे परम्परा-प्रेम पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय और राजनीतिक प्रश्नों के अलावा जो सबसे बड़ा प्रश्न संसार के सामने है, वह यह कि आनेवाले समय और समाज में स्त्री के अधिकार क्या होंगे।
यह पुस्तक उमा नेहरू के 1910 से 1935 तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे आलेखों का संग्रह है। संसद में दिए उनके कुछ भाषणों को भी इसमें शामिल किया गया है जिनसे उनके स्त्री-चिन्तन के कुछ और पहलू स्पष्ट होते हैं।
परम्परा-पोषक समाज को नई चेतना का आईना दिखानेवाले ये आलेख आज की परिस्थितियों में भी प्रासंगिकता रखते हैं और भारत में नारीवाद के इतिहास को समझने के सिलसिले में भी।
About Author
प्रज्ञा पाठक
प्रज्ञा पाठक वर्तमान में चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ से सम्बद्ध एन.ए.एस. कॉलेज, मेरठ में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। आपने एम.ए. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से तथा एम.फ़िल. एवं पीएच.डी. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से किया है। अज्ञात एवं अल्पज्ञात स्त्री-लेखन की खोज और इतिहास तथा आलोचना में स्त्री के स्थान का विश्लेषण आपकी विशेष रुचि के क्षेत्र हैं। 'सरला : एक विधवा की आत्मजीवनी' नामक पुस्तक के माध्यम से हिन्दी में किसी स्त्री द्वारा लिखी पहली आत्मकथा को प्रकाश में लाने का श्रेय आपको है। विभिन्न पुस्तकों तथा पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हैं। स्त्री के लिखे और स्त्री पर लिखे साहित्य की पड़ताल आपकी प्राथमिक व्यस्तता है।
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