Titliyon Ka Shore

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
हरिओम
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
हरिओम
Language:
Hindi
Format:
Paperback

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बहरहाल यह जनरल डिब्बा था जिसमें गुमनाम हैसियत और वजूद वाले लोग सफ़र किया करते थे। सीढ़ियों से डिब्बे के भीतर आने में मुझे थोड़ा वक़्त लगा । साँसें अभी भी उखड़ी हुई थीं। मैं अपने चारों तरफ़ लोगों के शरीर और उनकी उलझी हुई साँसों का स्पर्श महसूस कर सकता था। मैंने अपनी जगह खड़े-खड़े ही ख़ुद को व्यवस्थित किया।

मैंने एक नज़र में ही देख लिया था कि अगले स्टेशन तक बैठने की जगह के बारे में सोचना बहुत ज़्यादा उम्मीद बाँधना होता। सभी सीटें ठसाठस भरी हुई थीं। फ़र्श भी खाली नहीं था। वहाँ भी लोग पसरे हुए थे। कुछ अपने थैलों, गमछों आदि पर उकदु बैठे थे तो कुछ पालथी में। सामान रखने के लिए बने रैक भी झोलों, पन्नियों, बैगों, अटैचियों, गठरियों और बेडौल बण्डलों से ठसे पड़े थे। मेरे सामने वाला एक बाथरूम गत्तों और भारी बण्डलों से उकता रहा था और उसमें कम-से-कम पाँच लोग घुसे हुए थे। पूरे डिब्बे में हवा का एक ही झोंका रहा होगा जिसमें दुनिया की सारी गन्धं समाई हुई थीं। नाक को कभी-कभार ही अपना काम इतनी सावधानी से करना पड़ता है। इस मामले में आँख का अभ्यास अधिक होता है। इस डिब्बे में आँख और कान दोनों को अपना काम करने में ख़ासा मुशक़्क़त करनी पड़ रही थी। एक छोटा दुधमुँहा बच्चा माँ की गोद में ज़ोर-ज़ोर से रो रहा था और माँ बार-बार बेबस बगल में सटे अपने पति और उसके पिता को घूर रही थी जो उसे चुप कराने के लिए ऊपर रैक से अपना झोला निकालने की रह-रहकर जद्दोजहद कर रहा था। वह पैरों पर उचकता फिर कामयाब न हो पाने पर बच्चे को पुचकारने लगता। सीट पर इतनी जगह न थी कि उस पर पाँव टेक वह झोले तक पहुँचता। लगभग दस मिनट बाद वह अपने झोले से दूध की बोतल और निप्पल-गिलास निकालने में कामयाब हुआ। इस दौरान तमाम यात्रियों-ख़ासकर जिनके सामान वहाँ ठुँसें हुए थे-की बेचैन निगाहें रैक की ओर ही लगी रहीं। बगल की सीट पर एक बूढ़ी औरत, एक नौजवान लड़की और उससे थोड़ी कम उम्र के एक लड़के के बीच बैठी थी। लड़की का चेहरा साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था लेकिन लड़का बात-बेबात मुस्कुराकर सफ़र को ख़ुशहाल बना रहा था। मैं ठीक दरवाज़े पर अटका बीच-बीच में लड़की का चेहरा देखने की नाकाम कोशिश कर रहा था। एक आदमी फ़र्श पर मेरी टाँगों के क़रीब चिथड़ों में लिपटा लगातार अपने घुटनों में सिर दिये बैठा था। वह बीच-बीच में सिर ऊपर उठाता था और अपने आसपास के यात्रियों को बुझी हुई नज़रों से देखता था। वह कुछ बीमार लग रहा था या फिर उसका कुछ सामान कहीं खो गया था या शायद वह ग़लत ट्रेन पर चढ़ गया था या फिर कुछ और…अब जो भी रहा हो जब किसी को मतलब नहीं तो मुझे क्योंकर चिन्ता होने लगी। एक चीज़ मैंने ज़रूर साफ़ तौर पर गौर की थी कि डिब्बे में स्त्रियों और बुज़ुर्गों की तादाद बहुत कम थी। बाकी जो था उसे ठीक-ठीक देख पाना उतना आसान न था। जो दिख रहा था वो था बस कुछ टाँगें, कुछ हाथ, कुछ कन्धे और मफ़लर-कंटोप से ढके-मुँदे ढेर सारे सिर। लोग अपने में सिमटे हुए ट्रेन की रफ़्तार के साथ हिल रहे थे। रफ़्तार के साथ ठण्डे लोहे की टक्कर से निकलने वाली आवाजों के साथ खिड़कियों और दरवाजों की दराज़ों से छनकर आने वाली सर्द हवा जुगलबन्दी कर रही थी और कहीं-न-कहीं भीतर की गन्ध को बाहर की गन्ध से मिला रही थी। अगर सर्दियाँ न होतीं तो डिब्बे में आक्सीजन की भी कमी होती। अगर ऐसा होता तो भी क्या होता । ज़िन्दगी मेल भला कब रुकती है…’

– संग्रह की कहानी ‘ज़िन्दगी मेल’ का एक हिस्सा

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Description

बहरहाल यह जनरल डिब्बा था जिसमें गुमनाम हैसियत और वजूद वाले लोग सफ़र किया करते थे। सीढ़ियों से डिब्बे के भीतर आने में मुझे थोड़ा वक़्त लगा । साँसें अभी भी उखड़ी हुई थीं। मैं अपने चारों तरफ़ लोगों के शरीर और उनकी उलझी हुई साँसों का स्पर्श महसूस कर सकता था। मैंने अपनी जगह खड़े-खड़े ही ख़ुद को व्यवस्थित किया।

मैंने एक नज़र में ही देख लिया था कि अगले स्टेशन तक बैठने की जगह के बारे में सोचना बहुत ज़्यादा उम्मीद बाँधना होता। सभी सीटें ठसाठस भरी हुई थीं। फ़र्श भी खाली नहीं था। वहाँ भी लोग पसरे हुए थे। कुछ अपने थैलों, गमछों आदि पर उकदु बैठे थे तो कुछ पालथी में। सामान रखने के लिए बने रैक भी झोलों, पन्नियों, बैगों, अटैचियों, गठरियों और बेडौल बण्डलों से ठसे पड़े थे। मेरे सामने वाला एक बाथरूम गत्तों और भारी बण्डलों से उकता रहा था और उसमें कम-से-कम पाँच लोग घुसे हुए थे। पूरे डिब्बे में हवा का एक ही झोंका रहा होगा जिसमें दुनिया की सारी गन्धं समाई हुई थीं। नाक को कभी-कभार ही अपना काम इतनी सावधानी से करना पड़ता है। इस मामले में आँख का अभ्यास अधिक होता है। इस डिब्बे में आँख और कान दोनों को अपना काम करने में ख़ासा मुशक़्क़त करनी पड़ रही थी। एक छोटा दुधमुँहा बच्चा माँ की गोद में ज़ोर-ज़ोर से रो रहा था और माँ बार-बार बेबस बगल में सटे अपने पति और उसके पिता को घूर रही थी जो उसे चुप कराने के लिए ऊपर रैक से अपना झोला निकालने की रह-रहकर जद्दोजहद कर रहा था। वह पैरों पर उचकता फिर कामयाब न हो पाने पर बच्चे को पुचकारने लगता। सीट पर इतनी जगह न थी कि उस पर पाँव टेक वह झोले तक पहुँचता। लगभग दस मिनट बाद वह अपने झोले से दूध की बोतल और निप्पल-गिलास निकालने में कामयाब हुआ। इस दौरान तमाम यात्रियों-ख़ासकर जिनके सामान वहाँ ठुँसें हुए थे-की बेचैन निगाहें रैक की ओर ही लगी रहीं। बगल की सीट पर एक बूढ़ी औरत, एक नौजवान लड़की और उससे थोड़ी कम उम्र के एक लड़के के बीच बैठी थी। लड़की का चेहरा साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था लेकिन लड़का बात-बेबात मुस्कुराकर सफ़र को ख़ुशहाल बना रहा था। मैं ठीक दरवाज़े पर अटका बीच-बीच में लड़की का चेहरा देखने की नाकाम कोशिश कर रहा था। एक आदमी फ़र्श पर मेरी टाँगों के क़रीब चिथड़ों में लिपटा लगातार अपने घुटनों में सिर दिये बैठा था। वह बीच-बीच में सिर ऊपर उठाता था और अपने आसपास के यात्रियों को बुझी हुई नज़रों से देखता था। वह कुछ बीमार लग रहा था या फिर उसका कुछ सामान कहीं खो गया था या शायद वह ग़लत ट्रेन पर चढ़ गया था या फिर कुछ और…अब जो भी रहा हो जब किसी को मतलब नहीं तो मुझे क्योंकर चिन्ता होने लगी। एक चीज़ मैंने ज़रूर साफ़ तौर पर गौर की थी कि डिब्बे में स्त्रियों और बुज़ुर्गों की तादाद बहुत कम थी। बाकी जो था उसे ठीक-ठीक देख पाना उतना आसान न था। जो दिख रहा था वो था बस कुछ टाँगें, कुछ हाथ, कुछ कन्धे और मफ़लर-कंटोप से ढके-मुँदे ढेर सारे सिर। लोग अपने में सिमटे हुए ट्रेन की रफ़्तार के साथ हिल रहे थे। रफ़्तार के साथ ठण्डे लोहे की टक्कर से निकलने वाली आवाजों के साथ खिड़कियों और दरवाजों की दराज़ों से छनकर आने वाली सर्द हवा जुगलबन्दी कर रही थी और कहीं-न-कहीं भीतर की गन्ध को बाहर की गन्ध से मिला रही थी। अगर सर्दियाँ न होतीं तो डिब्बे में आक्सीजन की भी कमी होती। अगर ऐसा होता तो भी क्या होता । ज़िन्दगी मेल भला कब रुकती है…’

– संग्रह की कहानी ‘ज़िन्दगी मेल’ का एक हिस्सा

About Author

हरिओम कवि, ग़ज़लकार और कहानीकार के साथ मशहूर ग़ज़ल गायक भी हैं। दो ग़ज़ल संग्रह 'धूप का परचम' और 'ख़्वाबों की हँसी', एक कहानी संग्रह 'अमरीका मेरी जान' और कविता संग्रह 'कपास के अगले मौसम में’ प्रकाशित। साहित्य के अलावा संगीत में इनकी गहरी रुचि। ग़ज़ल गायक के बतौर उल्लेखनीय पहचान । रंग पैराहन, इंतिसाब, रोशनी के पंख, रंग का दरिया नाम से चार एलबम रिलीज़ हो चुके हैं। गायकी के लिए नीदरलैंड, लन्दन, दुबई से आमन्त्रण। देश के प्रमुख शहरों में मीर, ग़ालिब, फ़ैज़ सहित बड़े शायरों पर लाइव म्यूज़िक कार्यक्रम कर चुके हैं।  अपने साहित्यिक और सांस्कृतिक अवदान के लिए फ़िराक़ सम्मान, राजभाषा अवार्ड, अवध का प्रतिष्ठित तुलसी श्री सम्मान, कविता के लिए 2017 के अन्तरराष्ट्रीय वातायन पुरस्कार (लन्दन) और कुवैत हिन्दी-उर्दू सोसायटी की तरफ़ से साहित्य श्री अवार्ड मिल चुका है।

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