Tabadala (PB)

Publisher:
Radhakrishna Prakashan
| Author:
Vibhuti Narayan Rai
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Radhakrishna Prakashan
Author:
Vibhuti Narayan Rai
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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बहुराष्ट्रीय निगमों की बढ़ती मौजूदगी और कॉरपोरेट दुनिया में कार्य-संस्कृति पर लगातार एक नैतिक मूल्य के रूप में ज़ोर दिए जाने के बावजूद भारतीय मध्यवर्ग की पहली पसन्द आज भी सरकारी नौकरी ही है, तो उसका सम्बन्ध, उस आनन्द से ही है जो ग़ैर-ज़िम्मेदारी, काहिली, अकुंठ स्वार्थ और भ्रष्टाचार से मिलता है; और हमारे स्वाधीन पचास सालों में सरकारी नौकरी इन सब ‘गुणों’ का पर्याय बनकर उभरी है। इन्हीं के चलते तबादला-उद्योग वजूद में आया तो आज दफ़्तरों से लेकर राजनेताओं के बँगलों तक, शायद बाक़ी कई उद्योगों से ज़्यादा, फल-फूल रहा है।
इस उद्योग की जिन बारीक डिटेल्स को हम बिना इसके भीतर उतरे, बिना इसका हिस्सेदार बने, नहीं जान सकते, उन्हीं को यह उपन्यास इतने तीखे और मारक व्यंग्य के साथ हमारे सामने रखता है कि हमें उस हताशा को लेकर नए सिरे से चिन्ता होने लगती है जो भारतीय नौकरशाही ने पिछले पचास सालों में आम जनता को दी है। इस उपन्यास का वाचक व्यंग्य के उस ठंडे कोने में जा पहुँचा है जहाँ ‘कोई उम्मीदबर नहीं आती’। उपन्यास पढ़कर हम सचमुच यह सोचने पर बाध्य हो जाते हैं कि अगर यह हताशा वास्तव में हमारे इतने भीतर तक उतर चुकी है तो फिर रास्ता है किधर!

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Description

बहुराष्ट्रीय निगमों की बढ़ती मौजूदगी और कॉरपोरेट दुनिया में कार्य-संस्कृति पर लगातार एक नैतिक मूल्य के रूप में ज़ोर दिए जाने के बावजूद भारतीय मध्यवर्ग की पहली पसन्द आज भी सरकारी नौकरी ही है, तो उसका सम्बन्ध, उस आनन्द से ही है जो ग़ैर-ज़िम्मेदारी, काहिली, अकुंठ स्वार्थ और भ्रष्टाचार से मिलता है; और हमारे स्वाधीन पचास सालों में सरकारी नौकरी इन सब ‘गुणों’ का पर्याय बनकर उभरी है। इन्हीं के चलते तबादला-उद्योग वजूद में आया तो आज दफ़्तरों से लेकर राजनेताओं के बँगलों तक, शायद बाक़ी कई उद्योगों से ज़्यादा, फल-फूल रहा है।
इस उद्योग की जिन बारीक डिटेल्स को हम बिना इसके भीतर उतरे, बिना इसका हिस्सेदार बने, नहीं जान सकते, उन्हीं को यह उपन्यास इतने तीखे और मारक व्यंग्य के साथ हमारे सामने रखता है कि हमें उस हताशा को लेकर नए सिरे से चिन्ता होने लगती है जो भारतीय नौकरशाही ने पिछले पचास सालों में आम जनता को दी है। इस उपन्यास का वाचक व्यंग्य के उस ठंडे कोने में जा पहुँचा है जहाँ ‘कोई उम्मीदबर नहीं आती’। उपन्यास पढ़कर हम सचमुच यह सोचने पर बाध्य हो जाते हैं कि अगर यह हताशा वास्तव में हमारे इतने भीतर तक उतर चुकी है तो फिर रास्ता है किधर!

About Author

विभूति नारायण राय

मूलत: उपन्यासकार विभूति नारायण राय का जन्म 28 नवम्बर, 1950 को हुआ। अब तक आपके पाँच उपन्यास प्रकाशित— ‘घर’, ‘शहर में कर्फ़्यू’, ‘क़िस्सा लोकतंत्र’, ‘तबादला’ तथा ‘प्रेम की भूतकथा’। ‘घर’ बांग्ला, उर्दू तथा पंजाबी; ‘शहर में कर्फ़्यू’ उर्दू, अँग्रेज़ी, पंजाबी, बांग्ला, मराठी, कन्नड़, मलयालम, असमिया, उड़िया, तेलगू तथा तमिल; ‘क़िस्सा लोकतंत्र’ पंजाबी तथा मराठी; ‘तबादला’ उर्दू तथा अंग्रेज़ी और ‘प्रेम की भूतकथा’ उर्दू, मराठी, पंजाबी, कन्नड़ तथा अंग्रेज़ी में अनूदित और प्रकाशित।

‘क़िस्सा लोकतंत्र’, ‘उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान’ द्वारा सम्मानित। ‘तबादला’ कथा यू.के. द्वारा 'इन्दु शर्मा कथा सम्मान' से सम्मानित।

भारतीय समाज में व्याप्त साम्प्रदायिकता को समझने के क्रम में ‘साम्प्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस’ तथा ‘हाशिमपुरा 22 मई’ नामक दो महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन। इन दोनों पुस्तकों का अंग्रेज़ी, उर्दू, कन्नड़, मराठी, तेलगू तथा तमिल में अनुवाद।

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए व्यंग्य-लेखन जो संग्रह के रूप में ‘एक छात्र नेता का रोज़नामचा’ नाम से प्रकाशित। लेखों के तीन संग्रह ‘रणभूमि में भाषा’, ‘फ़ेंस के उस पार’, ‘किसे चाहिए सभ्य पुलिस’ प्रकाशित। कई पत्र-पत्रिकाओं में स्तम्भ-लेखन। लगभग दो दशकों तक हिन्दी की महत्त्वपूर्ण मासिक पत्रिका ‘वर्तमान साहित्य’ का सम्पादन।

पुलिस में लम्बी नौकरी के बाद आप पाँच वर्षों तक ‘महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा’ के कुलपति भी रहे।

 

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