Shrimadbhagwadgita : Tatvik Bhav (PB)

Publisher:
Lokbharti
| Author:
UDAI PRATAP SINGH
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Lokbharti
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UDAI PRATAP SINGH
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Hindi
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श्रीमद्भगवद्गीता में अभिहित कर्म एवं इसके फल के रहस्य को यथार्थ रूप से समझकर तथा तदनुसार जीवन दर्शन को अंगीकार करके अपने वर्णधर्म के अनुसार करने योग्य कर्मों को ईश्वर को अर्पण करके निष्काम भाव से चित्त की शुद्धि हेतु यज्ञरूप से करते हुए गीतोक्त कर्म, ज्ञान व भक्ति योगमार्ग में से अपने-अपने स्वभाव के अनुसार आधाररूप से किसी एक योगमार्ग के अभ्यास में लगे रहकर ईश्वर का स्मरण व ध्यान करके किसी भी देश, काल, धर्म, सम्प्रदाय अथवा लिंग का मनुष्य परम तत्त्व से योग (ऐक्य) स्थापित करके इस जीवन को आनन्दमय बनाते हुए परम पुरुषार्थ रूपी मोक्ष की प्राप्ति करके जन्म-मरण रूपी बन्धन से मुक्त हो सकता है।
अभ्यास के उपर्युक्त क्रम में कर्म तथा कर्मफल में अनासक्ति का भाव, जगत के सुख-दुःखादि द्वंदों में समभाव, सभी जीवों में परमात्मा रूप से स्थित ‘आत्मा’ के एकत्व का भाव, सतत् आनन्ददायक परम सत्ता में प्रेम का भाव तथा उच्चतम आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु आवश्यक अन्यान्य मानवीय कल्याणकारी मूलभूत भावों व गुणों का अन्तःकरण में प्रादुर्भाव ईश्वर की अहैतुकी कृपा से सहज ही हो जाता है। इस प्रकार से प्राप्त लौकिक तथा पारलौकिक दिव्यता के प्रत्यक्ष अनुभव की अभिव्यक्ति सम्पूर्णता से वाणी द्वारा व्यक्त करना कठिन है।

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Description

श्रीमद्भगवद्गीता में अभिहित कर्म एवं इसके फल के रहस्य को यथार्थ रूप से समझकर तथा तदनुसार जीवन दर्शन को अंगीकार करके अपने वर्णधर्म के अनुसार करने योग्य कर्मों को ईश्वर को अर्पण करके निष्काम भाव से चित्त की शुद्धि हेतु यज्ञरूप से करते हुए गीतोक्त कर्म, ज्ञान व भक्ति योगमार्ग में से अपने-अपने स्वभाव के अनुसार आधाररूप से किसी एक योगमार्ग के अभ्यास में लगे रहकर ईश्वर का स्मरण व ध्यान करके किसी भी देश, काल, धर्म, सम्प्रदाय अथवा लिंग का मनुष्य परम तत्त्व से योग (ऐक्य) स्थापित करके इस जीवन को आनन्दमय बनाते हुए परम पुरुषार्थ रूपी मोक्ष की प्राप्ति करके जन्म-मरण रूपी बन्धन से मुक्त हो सकता है।
अभ्यास के उपर्युक्त क्रम में कर्म तथा कर्मफल में अनासक्ति का भाव, जगत के सुख-दुःखादि द्वंदों में समभाव, सभी जीवों में परमात्मा रूप से स्थित ‘आत्मा’ के एकत्व का भाव, सतत् आनन्ददायक परम सत्ता में प्रेम का भाव तथा उच्चतम आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु आवश्यक अन्यान्य मानवीय कल्याणकारी मूलभूत भावों व गुणों का अन्तःकरण में प्रादुर्भाव ईश्वर की अहैतुकी कृपा से सहज ही हो जाता है। इस प्रकार से प्राप्त लौकिक तथा पारलौकिक दिव्यता के प्रत्यक्ष अनुभव की अभिव्यक्ति सम्पूर्णता से वाणी द्वारा व्यक्त करना कठिन है।

About Author

डॉ. उदय प्रताप सिंह

जन्म तिथि : 16 सितम्बर, 1951

जन्म स्थान : ग्राम-डिहिया (गायत्री नगर), पोस्ट-डिहिया, तहसील-शाहगंज, जिला-जौनपुर, उत्तर प्रदेश।

शिक्षा : एम.एस-सी.(भौतिकी) एवं पी-एच.डी. (भौतिकी), बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी; रिसर्च एसोसिएट, बोस्टन कालेज, मैसैचुसेट्स, संयुक्त राज्य अमेरिका (1986-89)

दीक्षा : सद्गुरुदेव स्वामी नारायण तीर्थ जी महाराज, सिद्धयोगाश्रम, छोटी गैवी, वाराणसी, उ.प्र.-221010

अभिरुचि : सद्गुरु प्रदत्त दीक्षा में योग साधना, भक्ति एवं निर्गुण संगीत श्रवण एवं संकलन, आध्यात्मिक एवं धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन एवं संकलन तथा सत्संगति में प्रियता।

शोध पत्र : 09 अन्तर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं एवं 01  राष्ट्रीय शोध पत्रिका में।

सेवा स्थान : प्राचार्य (सेवानिवृत्त), राजा हरपाल सिंह महाविद्यालय, सिंगरामऊ, जौनपुर, उत्तर प्रदेश।

आवासीय पता : 1/1012, रतन खण्ड, शारदा नगर योजना, लखनऊ, उ.प्र.- 226002, भारत

सम्पर्क : 9451148320, 7897569265

ई-मेल : singhudaipratap51@gmail.com

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