Saras Samvad 175

Save: 30%

Back to products
Ameena 265

Save: 10%

Shahanshah Ke Kapde Kahan Hain

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
वागीश शुक्ल, भूमिका : मदन सोनी
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
वागीश शुक्ल, भूमिका : मदन सोनी
Language:
Hindi
Format:
Hardback

245

Save: 30%

In stock

Ships within:
1-4 Days

In stock

Book Type

Availiblity

ISBN:
SKU 9788181434890 Category
Category:
Page Extent:
166

“वागीश शुक्ल का लेखन हिन्दी आलोचना के दरवाज़े पर एक सर्वथा अजनबी आगन्तुक की दस्तक है।” इस “लेखन की अजनबीयत, हिन्दी आलोचना और उसकी ‘आधुनिकता’ के सन्दर्भ में, जिस मूलगामी अर्थ में सबसे ज़्यादा उभरती है, वह है मृत्यु”—“लेखन में, और लेखन के रूप में मृत्यु का निष्पादन ( Performance)।”

“वागीश शुक्ल को पढ़ते हुए हम एक विचित्र मुठभेड़ के साक्षी होते हैं, मुठभेड़ के उस रूपक के एकदम विपरीत जिसे हम हिन्दी आलोचना का आदर्श रूपक कह सकते हैं, जिसमें पक्ष (आलोचक) प्रतिपक्ष (कृति) के सामने आते ही प्रतिपक्ष की आधी शक्ति अपने भीतर खींच लेता है, और परिणामतः, जिसका अन्त प्रतिपक्ष की मृत्यु से होता है । वागीश शुक्ल की आलोचना दूसरे रूप की माँग करता है। वागीश शुक्ल की आलोचना दूसरे रूपक की माँग करती है, ऐसा जिसमें पक्ष की सारी शक्ति, उसकी प्रामाणिकता और सार्थकता, प्रतिपक्ष की शक्ति के अन्वेषण में, उसके संयोजन और संघटन में, और ज़रूरत पड़ने पर उसकी उत्प्रेक्षा में व्यय होती है। यह प्रतिपक्ष को ‘समस्याग्रस्त’ करने की बजाय अपनी दृष्टि को प्रतिपक्ष रूपी समस्या के समक्ष दावँ पर लगाती है।”

“वागीश शुक्ल को पढ़ना पाठों को एक साथ उनकी अद्वितीयता, पूर्वापरता, समक्रमिकता, अनुदर्शिता, परस्परव्याप्ति में पढ़ना है; एक नियम को दूसरे नियम के सहारे पहचानते, थामते, काटते, गढ़ते हुए पढ़ना । वह एक ऐसे पाठ-समय में होना है जिसमें, मसलन, भरतमुनि और मिशेल फूको, अभिनवगुप्त और ज़्याँ फ्रान्सुआ लियोतार, वाल्मीकि और बेदिल, कालिदास और शेक्सपीयर, देरिदा और मिर्ज़ा ग़ालिब एक साथ मौजूद हैं। वह एक आदि-अन्त-हीन, अशान्त अन्तरजात में, एक अलौकिक रूप से बीहड़ स्थल में संचरण करना है, जिसके विक्षेप पाठक की चेतना को तार-तार कर देते हैं।

‘भूमिका’ से

Reviews

There are no reviews yet.

Be the first to review “Shahanshah Ke Kapde Kahan Hain”

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Description

“वागीश शुक्ल का लेखन हिन्दी आलोचना के दरवाज़े पर एक सर्वथा अजनबी आगन्तुक की दस्तक है।” इस “लेखन की अजनबीयत, हिन्दी आलोचना और उसकी ‘आधुनिकता’ के सन्दर्भ में, जिस मूलगामी अर्थ में सबसे ज़्यादा उभरती है, वह है मृत्यु”—“लेखन में, और लेखन के रूप में मृत्यु का निष्पादन ( Performance)।”

“वागीश शुक्ल को पढ़ते हुए हम एक विचित्र मुठभेड़ के साक्षी होते हैं, मुठभेड़ के उस रूपक के एकदम विपरीत जिसे हम हिन्दी आलोचना का आदर्श रूपक कह सकते हैं, जिसमें पक्ष (आलोचक) प्रतिपक्ष (कृति) के सामने आते ही प्रतिपक्ष की आधी शक्ति अपने भीतर खींच लेता है, और परिणामतः, जिसका अन्त प्रतिपक्ष की मृत्यु से होता है । वागीश शुक्ल की आलोचना दूसरे रूप की माँग करता है। वागीश शुक्ल की आलोचना दूसरे रूपक की माँग करती है, ऐसा जिसमें पक्ष की सारी शक्ति, उसकी प्रामाणिकता और सार्थकता, प्रतिपक्ष की शक्ति के अन्वेषण में, उसके संयोजन और संघटन में, और ज़रूरत पड़ने पर उसकी उत्प्रेक्षा में व्यय होती है। यह प्रतिपक्ष को ‘समस्याग्रस्त’ करने की बजाय अपनी दृष्टि को प्रतिपक्ष रूपी समस्या के समक्ष दावँ पर लगाती है।”

“वागीश शुक्ल को पढ़ना पाठों को एक साथ उनकी अद्वितीयता, पूर्वापरता, समक्रमिकता, अनुदर्शिता, परस्परव्याप्ति में पढ़ना है; एक नियम को दूसरे नियम के सहारे पहचानते, थामते, काटते, गढ़ते हुए पढ़ना । वह एक ऐसे पाठ-समय में होना है जिसमें, मसलन, भरतमुनि और मिशेल फूको, अभिनवगुप्त और ज़्याँ फ्रान्सुआ लियोतार, वाल्मीकि और बेदिल, कालिदास और शेक्सपीयर, देरिदा और मिर्ज़ा ग़ालिब एक साथ मौजूद हैं। वह एक आदि-अन्त-हीन, अशान्त अन्तरजात में, एक अलौकिक रूप से बीहड़ स्थल में संचरण करना है, जिसके विक्षेप पाठक की चेतना को तार-तार कर देते हैं।

‘भूमिका’ से

About Author

वागीश शुक्ल आई.आई.टी. दिल्ली में गणित के प्राध्यापक हैं। उनकी दो पुस्तकें 'छन्द छन्द पर कुंकुम' (निराला की 'राम की शक्तिपूजा' की टीका) और ‘उर्दू साहित्य का देवनागरी में लिपिकरण : कुछ समस्याएँ, कुछ सुझाव' प्रकाशित हैं।

Reviews

There are no reviews yet.

Be the first to review “Shahanshah Ke Kapde Kahan Hain”

Your email address will not be published. Required fields are marked *

RELATED PRODUCTS

RECENTLY VIEWED