Shabda Aur Smriti

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
निर्मल वर्मा
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
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Vani Prakashan
Author:
निर्मल वर्मा
Language:
Hindi
Format:
Paperback

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रोमन खंडहरों या पुराने मुस्लिम मकबरों के बीच घूमते हुए एक अजीब गहरी उदासी घिर आती है जैसे कोई हिचकी, कोई साँस, कोई चीख़ इनके बीच फँसी रह गयी हो…जो न अतीत से छुटकारा पा सकती हो, न वर्तमान में जज़्ब हो पाती हो… किन्तु यह उदासी उनके लिए नहीं हैं, जो एक ज़माने में जीवित थे और अब नहीं हैं… वह बहुत कुछ अपने लिए है, जो एक दिन खंडहरों को देखने के लिए नहीं बचेंगे… पुराने स्मारक और खँडहर हमें उस मृत्यु का बोध कराते हैं, जो हम अपने भीतर लेकर चलते हैं, बहता पानी उस जीवन का बोध कराता है, जो मृत्यु के बावजूद वर्तमान है, गतिशील है, अन्तहीन है….

एक महान कलाकृति मनुष्य को नहीं बदलती, न उसके संसार को बदलती है, वह सिर्फ उस रिश्ते को बदलती है, जो अब तक मनुष्य अपने संसार से बनाता आया था; लेकिन एक बार रिश्ता बदल जाने के बाद न तो मनुष्य ही वैसा मनुष्य रह पाता है जैसा वह कलाकृति के सम्पर्क में आने से पहले था, न उसका संसार वैसा रह पाता है जो कलाकृति के अनुभव के बाद दिखाई देता है… इसलिए महत्त्वपूर्ण मेरे लिए अनुभव नहीं, स्मृति का वह झरोखा है जिसमें से गुज़रकर वे कहानियाँ बनते हैं… लेखक चाहे अपने अनुभव में अकेला हो, अपनी स्मृति में नहीं, जो अनुभव को ‘बुलाती’ है, उसे रचना में बदलती है-उसकी सामूहिकता में हर कलाकार दूसरों से जुड़ा है….

– निर्मल वर्मा

शब्द और स्मृति में निर्मल वर्मा ने स्पष्ट कर दिया था कि प्रश्न ‘भारतीय अनुभव’ का नहीं, भारतीय ‘स्मृति’ का है और ‘स्मृति’ व्यक्ति और अतीत के बीच एक विशिष्ट जुड़ाव, एक सांस्कृतिक सम्बन्ध से जन्म लेती है। अतः स्मृति का प्रश्न इतिहास का नहीं, ‘संस्कृति का प्रश्न’ है।

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Description

रोमन खंडहरों या पुराने मुस्लिम मकबरों के बीच घूमते हुए एक अजीब गहरी उदासी घिर आती है जैसे कोई हिचकी, कोई साँस, कोई चीख़ इनके बीच फँसी रह गयी हो…जो न अतीत से छुटकारा पा सकती हो, न वर्तमान में जज़्ब हो पाती हो… किन्तु यह उदासी उनके लिए नहीं हैं, जो एक ज़माने में जीवित थे और अब नहीं हैं… वह बहुत कुछ अपने लिए है, जो एक दिन खंडहरों को देखने के लिए नहीं बचेंगे… पुराने स्मारक और खँडहर हमें उस मृत्यु का बोध कराते हैं, जो हम अपने भीतर लेकर चलते हैं, बहता पानी उस जीवन का बोध कराता है, जो मृत्यु के बावजूद वर्तमान है, गतिशील है, अन्तहीन है….

एक महान कलाकृति मनुष्य को नहीं बदलती, न उसके संसार को बदलती है, वह सिर्फ उस रिश्ते को बदलती है, जो अब तक मनुष्य अपने संसार से बनाता आया था; लेकिन एक बार रिश्ता बदल जाने के बाद न तो मनुष्य ही वैसा मनुष्य रह पाता है जैसा वह कलाकृति के सम्पर्क में आने से पहले था, न उसका संसार वैसा रह पाता है जो कलाकृति के अनुभव के बाद दिखाई देता है… इसलिए महत्त्वपूर्ण मेरे लिए अनुभव नहीं, स्मृति का वह झरोखा है जिसमें से गुज़रकर वे कहानियाँ बनते हैं… लेखक चाहे अपने अनुभव में अकेला हो, अपनी स्मृति में नहीं, जो अनुभव को ‘बुलाती’ है, उसे रचना में बदलती है-उसकी सामूहिकता में हर कलाकार दूसरों से जुड़ा है….

– निर्मल वर्मा

शब्द और स्मृति में निर्मल वर्मा ने स्पष्ट कर दिया था कि प्रश्न ‘भारतीय अनुभव’ का नहीं, भारतीय ‘स्मृति’ का है और ‘स्मृति’ व्यक्ति और अतीत के बीच एक विशिष्ट जुड़ाव, एक सांस्कृतिक सम्बन्ध से जन्म लेती है। अतः स्मृति का प्रश्न इतिहास का नहीं, ‘संस्कृति का प्रश्न’ है।

About Author

निर्मल वर्मा (1929-2005) भारतीय मनीषा की उस उज्ज्वल परम्परा के प्रतीक-पुरुष हैं, जिनके जीवन में कर्म, चिन्तन और आस्था के बीच कोई फाँक नहीं रह जाती। कला का मर्म जीवन का सत्य बन जाता है और आस्था की चुनौती जीवन की कसौटी। ऐसा मनीषी अपने होने की कीमत देता भी है और माँगता भी। अपने जीवनकाल में ग़लत समझे जाना उसकी नियति है और उससे बेदाग उबर आना उसका पुरस्कार। निर्मल वर्मा के हिस्से में भी ये दोनों बखूब से आये । स्वतन्त्र भारत की आरम्भिक आधी से अधिक सदी निर्मल वर्मा की लेखकीय उपस्थिति से गरिमांकित रही। वह उन थोड़े से रचनाकारों में थे जिन्होंने संवेदना की व्यक्तिगत स्पेस और उसके जागरूक वैचारिक हस्तक्षेप के बीच एक सुन्दर सन्तुलन का आदर्श प्रस्तुत किया। उनके रचनाकार का सबसे महत्त्वपूर्ण दशक, साठ का दशक, चेकोस्लोवाकिया के विदेश प्रवास में बीता। अपने लेखन में उन्होंने न केवल मनुष्य के दूसरे मनुष्यों के साथ सम्बन्धों की चीर-फाड़ की, वरन् उसकी सामाजिक, राजनैतिक भूमिका क्या हो, तेज़ी से बदलते जाते हमारे आधुनिक समय में एक प्राचीन संस्कृति के वाहक के रूप में उसके आदर्शों की पीठिका क्या हो, इन सब प्रश्नों का भी सामना किया। अपने जीवनकाल में निर्मल वर्मा साहित्य के लगभग सभी श्रेष्ठ सम्मानों से समादृत हुए, जिनमें साहित्य अकादेमी पुरस्कार (1985), ज्ञानपीठ पुरस्कार (1999), साहित्य अकादेमी महत्तर सदस्यता (2005) उल्लेखनीय हैं। भारत के राष्ट्रपति द्वारा तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान, पद्मभूषण, उन्हें सन् 2002 में दिया गया। अक्तूबर 2005 में निधन के समय निर्मल वर्मा भारत सरकार द्वारा औपचारिक रूप से नोबल पुरस्कार के लिए नामित थे।

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