Sanskriti Ke Prashn Aur Ramvilas Sharma

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
सम्पादक विजय बहादुर सिंह, राधावल्लभ त्रिपाठी
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Vani Prakashan
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सम्पादक विजय बहादुर सिंह, राधावल्लभ त्रिपाठी
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Hindi
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Hardback

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रामविलास शर्मा भारतीय समाज, संस्कृति और परम्परा के एक अद्वितीय भाष्यकार हैं। वे अपनी सुदीर्घ साहित्य साधना के द्वारा भारत के अतीत की सटीक पहचान और भारत के भविष्य-निर्माण में संलग्न रहे। उन्होंने साहित्य, कला, संस्कृति और समकालीन इतिहास तथा राजनीति में यूरोपकेन्द्रित विमर्श को विखण्डित करके भारत को आत्म में प्रतिष्ठित करने का अतुल्य प्रयत्न किया। इसके साथ ही उन्होंने भारतीय भाषाओं तथा भाषाचिन्तन को लेकर सम्पूर्ण पश्चिमी सोच को प्रबल तार्किक चुनौती देते हुए तार्किक भाषापरिवार की अवधारणा की भी शवपरीक्षा की। शर्मा जी ने हिन्दी की जातीयता और भारत की अस्मिता को पुनःपरिभाषित किया, नवजागरण की अवधारणा को विस्तार देते हुए उन्होंने इसकी अन्विति और व्याप्ति भारतीय इतिहास के अनेक सन्धिस्थलों पर सत्यापित की। वे वैदिक और औपनिषदिक सर्वात्मवाद तथा योरोप के रोमांटिक कवियों के सर्वात्मवाद-दोनों की उनके अनोखेपन में पहचान करते हैं। प्लेटो के द्वारा प्रतिपादित चेतना और पदार्थ का द्वैतभाव तथा हेगल के दर्शन में प्रकृति के परकीकरण की समीक्षा के साथ शर्मा जी योरोपीय सभ्यता की पुनर्मीमांसा भी करते हैं। रामविलास शर्मा और कवि केदारनाथ अग्रवाल के बीच हुए एक महत्त्वपूर्ण पत्राचार और उनके साथ विजय बहादुर सिंह तथा कवि शलभ श्रीराम सिंह की बातचीत के एक दुर्लभ प्रसंग के साथ प्रस्तुत पुस्तक के विभिन्न लेख उनके द्वारा प्रणीत विपुल वाङ्मय में अन्तर्निहित एकात्मकता, अन्तःसम्बद्धता और अन्तस्सूत्रता की तलाश करते हैं। एक कवि के रूप में रामविलास शर्मा प्रकृति और मनुष्य के सम्बन्धों की नापजोख करते हैं और प्रकृति की गत्यात्मकता के साथ इतिहास को करवट लेता देखते हैं। यह पुस्तक रामविलास शर्मा के कविकर्म की नये सिरे से पहचान कराते हुए उसकी व्याप्ति उनके समग्र आलोचनाकर्म में देखने की ज़रूरत को रेखांकित करती है। यह पुस्तक इस तथ्य को भी प्रामाणिक रूप से सत्यापित करती है कि विचारों के इतिहास, सभ्यता समीक्षा तथा कविता और आलोचना के क्षेत्र में रामविलास शर्मा के समग्र अवदान को आज के सन्दर्भ में नये सिरे से समझा जाना बहुत ज़रूरी है।

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Description

रामविलास शर्मा भारतीय समाज, संस्कृति और परम्परा के एक अद्वितीय भाष्यकार हैं। वे अपनी सुदीर्घ साहित्य साधना के द्वारा भारत के अतीत की सटीक पहचान और भारत के भविष्य-निर्माण में संलग्न रहे। उन्होंने साहित्य, कला, संस्कृति और समकालीन इतिहास तथा राजनीति में यूरोपकेन्द्रित विमर्श को विखण्डित करके भारत को आत्म में प्रतिष्ठित करने का अतुल्य प्रयत्न किया। इसके साथ ही उन्होंने भारतीय भाषाओं तथा भाषाचिन्तन को लेकर सम्पूर्ण पश्चिमी सोच को प्रबल तार्किक चुनौती देते हुए तार्किक भाषापरिवार की अवधारणा की भी शवपरीक्षा की। शर्मा जी ने हिन्दी की जातीयता और भारत की अस्मिता को पुनःपरिभाषित किया, नवजागरण की अवधारणा को विस्तार देते हुए उन्होंने इसकी अन्विति और व्याप्ति भारतीय इतिहास के अनेक सन्धिस्थलों पर सत्यापित की। वे वैदिक और औपनिषदिक सर्वात्मवाद तथा योरोप के रोमांटिक कवियों के सर्वात्मवाद-दोनों की उनके अनोखेपन में पहचान करते हैं। प्लेटो के द्वारा प्रतिपादित चेतना और पदार्थ का द्वैतभाव तथा हेगल के दर्शन में प्रकृति के परकीकरण की समीक्षा के साथ शर्मा जी योरोपीय सभ्यता की पुनर्मीमांसा भी करते हैं। रामविलास शर्मा और कवि केदारनाथ अग्रवाल के बीच हुए एक महत्त्वपूर्ण पत्राचार और उनके साथ विजय बहादुर सिंह तथा कवि शलभ श्रीराम सिंह की बातचीत के एक दुर्लभ प्रसंग के साथ प्रस्तुत पुस्तक के विभिन्न लेख उनके द्वारा प्रणीत विपुल वाङ्मय में अन्तर्निहित एकात्मकता, अन्तःसम्बद्धता और अन्तस्सूत्रता की तलाश करते हैं। एक कवि के रूप में रामविलास शर्मा प्रकृति और मनुष्य के सम्बन्धों की नापजोख करते हैं और प्रकृति की गत्यात्मकता के साथ इतिहास को करवट लेता देखते हैं। यह पुस्तक रामविलास शर्मा के कविकर्म की नये सिरे से पहचान कराते हुए उसकी व्याप्ति उनके समग्र आलोचनाकर्म में देखने की ज़रूरत को रेखांकित करती है। यह पुस्तक इस तथ्य को भी प्रामाणिक रूप से सत्यापित करती है कि विचारों के इतिहास, सभ्यता समीक्षा तथा कविता और आलोचना के क्षेत्र में रामविलास शर्मा के समग्र अवदान को आज के सन्दर्भ में नये सिरे से समझा जाना बहुत ज़रूरी है।

About Author

विजय बहादुर सिंह जन्म : 16 फ़रवरी, 1940, जयमलपुर, (फ़ैज़ाबाद) उ.प्र. । आलोचना, कविता, संस्मरण, जीवनी लेखन के अलावा धर्म, राजनीति और संस्कृति के प्रश्नों से जूझने वाले प्रखर विचारक विजय बहादुर सिंह ने कई चर्चित रचनावलियों का सम्पादन भी किया है। छायावाद के कवि, महादेवी के काव्य का नेपथ्य, नागार्जुन का रचना संसार, भवानीप्रसाद मिश्र, कविता और संवेदना, उपन्यास : समय और संवेदना, लेखक की भूमिका आदि इनकी आलोचना पुस्तकें हैं। हाल ही में प्रकाशित अपनी कृति जातीय अस्मिता के प्रश्न और जयशंकर प्रसाद के द्वारा उन्होंने हमारे समय के एक पारदृश्वा आलोचक के रूप में पहचान बनाई है। गद्य में उनकी अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं आलोचक का स्वदेश (जीवनी) तथा वह मणियारा साँप (संस्मरणात्मक आलोचना)। मौसम की चिट्ठी, पृथ्वी का प्रेमगीत, पतझर की बाँसुरी, शब्द जिन्हें भूल गयी भाषा, अर्धसत्य का संगीत तथा लम्बी कविता (भीम बैठका) जैसे चर्चित कविता संग्रहों के साथ शिक्षा और समाजचिन्तन पर भी महत्त्वपूर्ण लेखन। सम्पर्क : 29, निराला नगर, दुष्यन्त कुमार मार्ग, भोपाल-462003 राधावल्लभ त्रिपाठी जन्म : 15 फ़रवरी, 1949, मध्य प्रदेश के राजगढ़ ज़िले में। संस्कृत, अंग्रेज़ी तथा हिन्दी में 175 ग्रन्थ तथा 270 शोध लेख/समीक्षात्मक लेख प्रकाशित। श्री त्रिपाठी संस्कृत और हिन्दी के चर्चित साहित्यकार हैं। संस्कृत के मौलिक रचनात्मक लेखन में इनका सराहनीय योगदान रहा है। संस्कृत और हिन्दी में इनके अनेक मौलिक काव्य, नाटक तथा कथाकृतियाँ प्रकाशित हैं। इन्होंने अनेक नाटकों और काव्यों के संस्कृत से हिन्दी में सरस अनुवाद भी किये हैं। श्री त्रिपाठी की शोधपरक पुस्तकों में संस्कृत कविता की लोकधर्मी परम्परा, संस्कृत काव्यशास्त्र और काव्यपरम्परा (दो संस्करण), नाट्यशास्त्र विश्वकोश, नया साहित्य नया साहित्यशास्त्र, भारतीय काव्यशास्त्र की आचार्यपरम्परा, बहस में स्त्री, संस्कृत साहित्य का समग्र इतिहास (चार खण्डों में) आदि उल्लेख्य हैं। राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर के सैंतीस पुरस्कार व सम्मान। संस्कृत साहित्य को इनके रचनात्मक अवदान पर विभिन्न विश्वविद्यालयों में पीएच.डी. हेतु बीस से अधिक शोधकार्य हुए हैं और इनके अतिरिक्त आठ पुस्तकें व तीन पत्रिकाओं के विशेषांक इनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर प्रकाशित हैं।

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