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Sampurna Natak : Mrinal Pandey (HB)
Publisher:
Radhakrishna Prakashan
| Author:
Mrinal Pandey
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Radhakrishna Prakashan
Author:
Mrinal Pandey
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹895 ₹716
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In stock
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ISBN:
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9788183614108
Category Hindi
Category: Hindi
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विख्यात कथाकार, पत्रकार और समाज-चिन्तक मृणाल पाण्डे के नाटकों का यह संग्रह उनके एक और महत्त्वपूर्ण रचना-पक्ष को सामने लाता है। नाटककार के रूप में उनकी यात्रा अस्सी के दशक से शुरू हुई और अपनी तमाम कार्यकारी तथा रचनात्मक व्यस्तताओं के बीच समय-समय पर उन्होंने इसे बरक़रार रखा। उनका पहला नाटक ‘मौजूदा हालात को देखते हुए’ था जिसका प्रकाशन ‘नटरंग’ में और भोपाल में मंचन भी हुआ, लेकिन दुर्भाग्य से उसकी कोई प्रतिलिपि अब प्राप्य नहीं है। यही स्थिति उनके रेडियो नाटकों की भी है, जिनमें से अधिकांश आकाशवाणी के आर्काइव्ज़ में गुम हैं। सो इस संग्रह में दो ही रेडियो नाटक शामिल हो सके हैं, ‘सुपर मैन की वापसी’ और ‘धीरे-धीरे रे मना’।
पुस्तक के मुख्य भाग में मृणाल जी के पाँच पूर्णकालिक नाटक हैं जो न केवल नाटककार के रूप में उनकी प्रतिभा के परिचायक हैं बल्कि उनकी वैचारिक आत्मनिर्भरता को भी रेखांकित करते हैं। संग्रह का पहला नाटक ‘जो राम रचि राखा’ उस दौर में लिखा गया था जब हिन्दी में जनवादी तर्ज की ‘प्रतिबद्धता’ धार्मिक आस्था की तरह स्थापित थी। उस दौर में उन्होंने इस नाटक के पात्र मन्ना सेठ के हास्यास्पद क्रान्ति-स्वप्नों के माध्यम से अपने समाज से अपरिचित और निरर्थक प्रतीकों से भरी तत्कालीन वैचारिक दुनिया की तरफ़ इशारा किया। इस पर उनको आलोचना भी सहनी पड़ी।
आलोचना उन्हें अपने नवीनतम नाटक ‘शर्मा जी की मुक्तिकथा’ (2002) पर भी मिली जिसको आलोचकों ने जटिल और ‘बहुत प्रयोगधर्मी’ कहा। लेकिन इस सबके बावजूद मृणाल पाण्डे का नाटककार अपने समय की जटिलताओं का सामना करता रहा। उनका मानना है कि “अपनी सच्ची स्थिति को, वह चाहे जितनी भी जटिल क्यों न हो, परिभाषित करना हर लेखक की लेखकीय अनिवार्यता है।” उनके एक पहले नाटक ‘आदमी जो मछुआरा नहीं था’ का फोकस ही यह है कि मनुष्य के लिए उसकी स्वतंत्रता और नियति अन्तत: एक निजी सवाल है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि मृणाल पाण्डे के ये सभी नाटक मंच की कसौटी पर भी खरे उतर चुके हैं। इसलिए सिर्फ़ पाठक ही नहीं, रंगकर्मी भी इस संकलन को उपयोगी पाएँगे और हमें उम्मीद है कि इससे उनकी यह शिकायत काफ़ी हद तक दूर हो जाएगी कि हिन्दी में मंचन करने लायक मौलिक नाटक नहीं लिखे जा रहे।
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Description
विख्यात कथाकार, पत्रकार और समाज-चिन्तक मृणाल पाण्डे के नाटकों का यह संग्रह उनके एक और महत्त्वपूर्ण रचना-पक्ष को सामने लाता है। नाटककार के रूप में उनकी यात्रा अस्सी के दशक से शुरू हुई और अपनी तमाम कार्यकारी तथा रचनात्मक व्यस्तताओं के बीच समय-समय पर उन्होंने इसे बरक़रार रखा। उनका पहला नाटक ‘मौजूदा हालात को देखते हुए’ था जिसका प्रकाशन ‘नटरंग’ में और भोपाल में मंचन भी हुआ, लेकिन दुर्भाग्य से उसकी कोई प्रतिलिपि अब प्राप्य नहीं है। यही स्थिति उनके रेडियो नाटकों की भी है, जिनमें से अधिकांश आकाशवाणी के आर्काइव्ज़ में गुम हैं। सो इस संग्रह में दो ही रेडियो नाटक शामिल हो सके हैं, ‘सुपर मैन की वापसी’ और ‘धीरे-धीरे रे मना’।
पुस्तक के मुख्य भाग में मृणाल जी के पाँच पूर्णकालिक नाटक हैं जो न केवल नाटककार के रूप में उनकी प्रतिभा के परिचायक हैं बल्कि उनकी वैचारिक आत्मनिर्भरता को भी रेखांकित करते हैं। संग्रह का पहला नाटक ‘जो राम रचि राखा’ उस दौर में लिखा गया था जब हिन्दी में जनवादी तर्ज की ‘प्रतिबद्धता’ धार्मिक आस्था की तरह स्थापित थी। उस दौर में उन्होंने इस नाटक के पात्र मन्ना सेठ के हास्यास्पद क्रान्ति-स्वप्नों के माध्यम से अपने समाज से अपरिचित और निरर्थक प्रतीकों से भरी तत्कालीन वैचारिक दुनिया की तरफ़ इशारा किया। इस पर उनको आलोचना भी सहनी पड़ी।
आलोचना उन्हें अपने नवीनतम नाटक ‘शर्मा जी की मुक्तिकथा’ (2002) पर भी मिली जिसको आलोचकों ने जटिल और ‘बहुत प्रयोगधर्मी’ कहा। लेकिन इस सबके बावजूद मृणाल पाण्डे का नाटककार अपने समय की जटिलताओं का सामना करता रहा। उनका मानना है कि “अपनी सच्ची स्थिति को, वह चाहे जितनी भी जटिल क्यों न हो, परिभाषित करना हर लेखक की लेखकीय अनिवार्यता है।” उनके एक पहले नाटक ‘आदमी जो मछुआरा नहीं था’ का फोकस ही यह है कि मनुष्य के लिए उसकी स्वतंत्रता और नियति अन्तत: एक निजी सवाल है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि मृणाल पाण्डे के ये सभी नाटक मंच की कसौटी पर भी खरे उतर चुके हैं। इसलिए सिर्फ़ पाठक ही नहीं, रंगकर्मी भी इस संकलन को उपयोगी पाएँगे और हमें उम्मीद है कि इससे उनकी यह शिकायत काफ़ी हद तक दूर हो जाएगी कि हिन्दी में मंचन करने लायक मौलिक नाटक नहीं लिखे जा रहे।
About Author
मृणाल पाण्डे
जन्म : 26 फरवरी, 1946 को टीकमगढ़, मध्य प्रदेश में।
शिक्षा : एम.ए. (अंग्रेज़ी साहित्य), प्रयाग विश्वविद्यालय, इलाहाबाद। गन्धर्व महाविद्यालय से ‘संगीत विशारद’ तथा कॉरकोरन स्कूल ऑफ़ आर्ट, वाशिंगटन में चित्रकला एवं डिजाइन का विधिवत् अध्ययन।
कई वर्षों तक विभिन्न विश्वविद्यालयों (प्रयाग, दिल्ली, भोपाल) में अध्यापन के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में आईं। ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘वामा’ तथा ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ के सम्पादक के बतौर समय-समय पर कार्य किया। ‘स्टार न्यूज़’ और ‘दूरदर्शन’ के लिए हिन्दी समाचार बुलेटिन का सम्पादन किया। तदुपरान्त प्रधान सम्पादक के रूप में ‘दैनिक हिन्दुस्तान’, ‘कादम्बिनी’ एवं ‘नन्दन’ से जुड़ीं। वर्ष 2010 से 2014 तक प्रसार भारती की चेयरमैन भी रहीं।
प्रकाशित पुस्तकें : ‘विरुद्ध’, ‘पटरंगपुर पुराण’, ‘देवी’, ‘हमका दियो परदेस’, ‘अपनी गवाही’ (उपन्यास); ‘दरम्यान’, ‘शब्दवेधी’, ‘एक नीच ट्रैजिडी’, ‘एक स्त्री का विदागीत’, ‘यानी कि एक बात थी’, ‘बचुली चौकीदारिन की कढ़ी’, ‘चार दिन की जवानी तेरी’ (कहानी-संग्रह); ‘मौजूदा हालात को देखते हुए’, ‘जो राम रचि राखा’, ‘आदमी जो मछुआरा नहीं था’, ‘चोर निकल के भागा’, ‘सम्पूर्ण नाटक’ (नाटक) और देवकीनन्दन खत्री के उपन्यास ‘काजर की कोठरी’ का इसी नाम से नाट्य-रूपान्तरण; ‘परिधि पर स्त्री’, ‘स्त्री : देह की राजनीति से देश की राजनीति तक’, ‘स्त्री : लम्बा सफ़र’ (निबन्ध); ‘बन्द गलियों के विरुद्ध’ (सम्पादन); ‘ओ उब्बीरी’ (स्वास्थ्य); मराठी की अमर कृति ‘माझा प्रवास : उन्नीसवीं सदी’ तथा अमृतलाल नागर की हिन्दी कृति ‘गदर के फूल’ का अंग्रेज़ी में अनुवाद।
अंग्रेज़ी : ‘द सब्जेक्ट इज वूमन’ (महिला-विषयक लेखों का संकलन); ‘द डॉटर्स डॉटर’, ‘माई ओन विटनेस’ (उपन्यास); ‘देवी’ (उपन्यास-रिपोर्ताज); ‘स्टेपिंग आउट : लाइफ़ एंड सेक्सुअलिटी इन रुरल इंडिया’।
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