Sampoorn Kahaniyan : Gyanranjan (HB)

Publisher:
Radhakrishna Prakashan
| Author:
Gyan Ranjan
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Radhakrishna Prakashan
Author:
Gyan Ranjan
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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ऐसे लेखक विरले ही होते हैं जिनकी रचनाएँ अपनी विद्या को भी बदलती हों और उस विधा के इतिहास को भी ज्ञानरंजन के बारे में यह बात निर्विवाद कही जा सकती है कि उनकी कहानियों के बाद हिन्दी कहानी वैसी नहीं रही जैसी कि उनसे पहले थी। उनके साथ हिन्दी गद्य का एक नया, आधुनिक, सघन और समर्थ व्यक्तित्व सामने आया जो उस दौर की भाषा में व्याप्त काव्यात्मक रूमान के बजाय काव्यात्मक सचाई से निर्मित हुआ था। ज्ञानरंजन की भाषा में उस पीढ़ी की भाषा थी जो भारतीय समाज में आजादी महास्वप्नों के टूटने, परिवारों के बिखरने, मनुष्य के अकेला होते जाने और जीवन में अर्थहीनता के प्रवेश जैसे हादसों के बीच अपने विक्षोभ, अपनी हताशा और अपनी उम्मीद को पहचानने की बेचैन कोशिश कर रही थी। युवा होते समाज की इस आन्तरिक उथल-पुथल का इतना गहरा साक्षात्कार ज्ञानरंजन की कहानियों में मिलता है। कि उनके अनेक चरित्र प्रेमचन्द के कई चरित्रों की तरह हमारी स्मृति में अभिन्न रूप से शामिल हो गए। सन् साठ के बाद की हिन्दी कहानी एक महत्त्वपूर्ण प्रस्थान बिन्दु या कहानी का दूसरा इतिहास मानी गई और ज्ञानरंजन सामाजिक रूप से उसके सबसे बड़े रचनाकार कहे गए। लेकिन हर बड़े लेखक की तरह ज्ञानरंजन की कहानियाँ अपने दौर या समय को लाँघती गईं और इसीलिए आज भी पढ़ने पर उनकी प्रायः सभी कहानियाँ उतनी ही जीवन्त, प्रासंगिक और प्रामाणिक महसूस होती हैं। ‘क्षणजीवी’ जैसी कहानी लिखने और जीवन के निरर्थक क्षणों में अर्थ की खोज करनेवाले ज्ञानरंजन दरअसल हमारे समय के सबसे ‘दीर्घजीवी’ लेखकों में से हैं।
‘फेंस के इधर और उधर’, ‘पिता’, ‘शेष होते हुए’, ‘सम्बन्ध’, ‘यात्रा’, ‘घंटा’ और ‘बहिर्गमन’ आदि कहानियाँ जिस निम्न-मध्यवर्गीय यथार्थ से मुठभेड़ के कारण प्रसिद्ध हुई, वह भले ही बदल गया हो, लेकिन उस पर लिखी गई ये कहानियाँ कभी पुरानी या बासी नहीं हुईं। ज्ञानरंजन सरीखे कृती लेखक की ही यह सामर्थ्य है कि यथार्थ के पुराने पड़ जाने पर भी उसका अनुभव पुराना या समय सापेक्ष नहीं हो जाता। बल्कि इन कहानियों में अभिव्यक्त विराट हलचल के बीच आनेवाले यथार्थ की अनेक आहटें भी हम सुन सकते हैं। ‘अनुभव’ में तथाकथित उच्चवर्ग की विकृति और अश्लीलता के विवरणों में उस अपसंस्कृति का पूर्वाभास है जो आज हमारे समाज में चौतरफ बजबजा रही है। वह एक स्वस्थ समाज की मृत्यु पर हिला देनेवाला शोकगीत है।
ज्ञानरंजन की सभी कहानियों का यह संग्रह हमारे समय का एक साहित्यिक दस्तावेज़ भी है और हमारे यथार्थ का साफ आईना भी है, जिसमें दिखते जीवन के बिम्ब पाठक को हमेशा उद्वेलित करते रहेंगे।

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Description

ऐसे लेखक विरले ही होते हैं जिनकी रचनाएँ अपनी विद्या को भी बदलती हों और उस विधा के इतिहास को भी ज्ञानरंजन के बारे में यह बात निर्विवाद कही जा सकती है कि उनकी कहानियों के बाद हिन्दी कहानी वैसी नहीं रही जैसी कि उनसे पहले थी। उनके साथ हिन्दी गद्य का एक नया, आधुनिक, सघन और समर्थ व्यक्तित्व सामने आया जो उस दौर की भाषा में व्याप्त काव्यात्मक रूमान के बजाय काव्यात्मक सचाई से निर्मित हुआ था। ज्ञानरंजन की भाषा में उस पीढ़ी की भाषा थी जो भारतीय समाज में आजादी महास्वप्नों के टूटने, परिवारों के बिखरने, मनुष्य के अकेला होते जाने और जीवन में अर्थहीनता के प्रवेश जैसे हादसों के बीच अपने विक्षोभ, अपनी हताशा और अपनी उम्मीद को पहचानने की बेचैन कोशिश कर रही थी। युवा होते समाज की इस आन्तरिक उथल-पुथल का इतना गहरा साक्षात्कार ज्ञानरंजन की कहानियों में मिलता है। कि उनके अनेक चरित्र प्रेमचन्द के कई चरित्रों की तरह हमारी स्मृति में अभिन्न रूप से शामिल हो गए। सन् साठ के बाद की हिन्दी कहानी एक महत्त्वपूर्ण प्रस्थान बिन्दु या कहानी का दूसरा इतिहास मानी गई और ज्ञानरंजन सामाजिक रूप से उसके सबसे बड़े रचनाकार कहे गए। लेकिन हर बड़े लेखक की तरह ज्ञानरंजन की कहानियाँ अपने दौर या समय को लाँघती गईं और इसीलिए आज भी पढ़ने पर उनकी प्रायः सभी कहानियाँ उतनी ही जीवन्त, प्रासंगिक और प्रामाणिक महसूस होती हैं। ‘क्षणजीवी’ जैसी कहानी लिखने और जीवन के निरर्थक क्षणों में अर्थ की खोज करनेवाले ज्ञानरंजन दरअसल हमारे समय के सबसे ‘दीर्घजीवी’ लेखकों में से हैं।
‘फेंस के इधर और उधर’, ‘पिता’, ‘शेष होते हुए’, ‘सम्बन्ध’, ‘यात्रा’, ‘घंटा’ और ‘बहिर्गमन’ आदि कहानियाँ जिस निम्न-मध्यवर्गीय यथार्थ से मुठभेड़ के कारण प्रसिद्ध हुई, वह भले ही बदल गया हो, लेकिन उस पर लिखी गई ये कहानियाँ कभी पुरानी या बासी नहीं हुईं। ज्ञानरंजन सरीखे कृती लेखक की ही यह सामर्थ्य है कि यथार्थ के पुराने पड़ जाने पर भी उसका अनुभव पुराना या समय सापेक्ष नहीं हो जाता। बल्कि इन कहानियों में अभिव्यक्त विराट हलचल के बीच आनेवाले यथार्थ की अनेक आहटें भी हम सुन सकते हैं। ‘अनुभव’ में तथाकथित उच्चवर्ग की विकृति और अश्लीलता के विवरणों में उस अपसंस्कृति का पूर्वाभास है जो आज हमारे समाज में चौतरफ बजबजा रही है। वह एक स्वस्थ समाज की मृत्यु पर हिला देनेवाला शोकगीत है।
ज्ञानरंजन की सभी कहानियों का यह संग्रह हमारे समय का एक साहित्यिक दस्तावेज़ भी है और हमारे यथार्थ का साफ आईना भी है, जिसमें दिखते जीवन के बिम्ब पाठक को हमेशा उद्वेलित करते रहेंगे।

About Author

ज्ञानरंजन 

ज्ञानरंजन का जन्म 21 नवम्बर, 1936 को महाराष्ट्र के अकोला ज़ि‍ले में हुआ। प्रारम्भिक जीवन महाराष्ट्र, राजस्थान, दिल्ली, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में व्यतीत हुआ। उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई। 2013 में जबलपुर विश्वविद्यालय द्वारा मानद ‘डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर’ की उपाधि प्रदत्त (मानद डी.लिट.)।

जबलपुर विश्वविद्यालय से सम्बद्ध जी. एस. कॉलेज में हिन्दी के प्रोफ़ेसर रहे और चौंतीस वर्ष की सेवा के बाद 1996 में सेवानिवृत्त।

सातवें दशक के प्रमुख कथाकार। अनेक कहानी-संग्रह प्रकाशित। अनूठी गद्य रचनाओं की एक क़िताब कबाड़खाना बहुत लोकप्रिय हुई। कहानियाँ देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में उच्चतर पाठ्यक्रमों में पढ़ाई जाती हैं। शान्ति निकेतन से कहानियों का एक संग्रह बांग्ला में अनूदित होकर प्रकाशित। अंग्रेज़ी, पोल, रूसी, जापानी, फ़ारसी और जर्मन भाषाओं में कहानियाँ प्रकाशित। 

आपातकाल के आघातों के बावजूद 35 वर्ष निरन्तर विख्यात साहित्यिक पत्रिका ‘पहल’ का संपादन व प्रकाशन। 2 वर्ष के अन्तराल के बाद पुनः प्रकाशित। 

सम्मान : ‘सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड’, हिन्दी संस्थान का ‘साहित्य भूषण सम्मान’, म.प्र. साहित्य परिषद का ‘सुभद्रा कुमारी चौहान’ और 'अनिल कुमार पुरस्कार’, मध्य प्रदेश संस्कृति विभाग का ‘शिखर सम्मान’ और ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता का ‘प्रतिभा सम्मान’, ‘शमशेर सम्मान’ और पाखी का ‘शिखर सम्मान’, भारतीय ज्ञानपीठ का अखिल भारतीय ‘ज्ञानगरिमा मानद अलंकरण’, अमर उजाला का ‘शब्द सम्मान’।

आपातकाल के प्रतिरोध में मध्य प्रदेश संस्कृति विभाग का एक पुरस्कार और मुक्तिबोध फ़ेलोशिप का अस्वीकार।

ग्रीनविच विलेज (न्यूयार्क) में सातवें-आठवें दशक में कहानियों पर फ़िल्म निर्माण। भारतीय दूरदर्शन द्वारा जीवन और कृतित्व पर एक पूरी फ़िल्म। आई.सी.सी.आर. (विदेश मंत्रालय) समेत देश की अनेक उच्चतर संस्थाओं की सामयिक सदस्यताएँ। मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के ज्वलंत वर्षों में लम्बे समय तक उसके महासचिव रहे। हरिशंकर परसाई के साथ राष्ट्रीय नाट्य संस्था 'विवेचना' के संस्थापक सदस्य भी रहे।

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