Sahityamukhi-(HB) 556

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Riturain-(PB) 159

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Riturain-(HB)

Publisher:
Radhakrishna Prakashan
| Author:
Shirish Kumar Mourya
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Radhakrishna Prakashan
Author:
Shirish Kumar Mourya
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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SKU 9788183619561 Category
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जीवन-राग, दुःखानुभव और सम्वेदना की सजल छवियों से फूटता रुलाई का गीत; जो इक्कीसवीं सदी के हमारे आज में भी कील की तरह बिंधा है। किसी ख़ास ऋतु में फूटनेवाली रुलाई का गाना; बिछोह में कूकती आत्मा की आँखों से गिरते अदृश्य आँसू!
ये कविताएँ उन्हीं आँसुओं का शब्दानुवाद हैं। शिरीष कुमार मौर्य अपनी स्थानिकता और लोक की परिष्कृत संवेदना के सुपरिचित कवि हैं। ‘रितुरैण’ में उन्होंने गीतात्मक लय में बँधी अपनी गहन संवेदनापरक कविताओं को संकलित किया है।
‘मैं हिन्दी का एक लगभग कवि/लिखता हूँ/हर ऋतु में/हर आस/हर याद…’ जहाँ इस ‘कठकरेजों की दुनिया में/यों ही/बेमतलब हुआ जाता है/मनुष्य होने तक का/हर इन्तजार।’ ये कविताएँ मनुष्य के अपने परिवेश से एकमेक होकर मनुष्यता के आह्वान की कविताएँ हैं और उस दुःख की जो बार-बार हो रहे मनुष्यता के हनन और उपेक्षा से उपजता है।
भूखे मनुष्य, ऋतुओं के बदलाव के साथ और-और असहाय होते मनुष्य और पूनो का चाँद जो जवाब नहीं देता ‘सवाल भर उठाता है/लोकतंत्र के रितुरैण में।’ और ‘पूनो की ही रात में राजा हमारा/बजाता है/राग जनसम्मोहिनी।’
ये कविताएँ इस राग के लिए एक सान्‍द्र, शान्‍त चुनौती की तरह खुलती हैं एक-एक कर। कहती हुई कि ‘हत्या के बाद/ज़िम्मेदार व्यक्तियों के चेहरे पर/जो मुस्कान आती है/सब ऋतुओं को उजाड़ जाती है।’ ये उजड़ी हुई उन ऋतुओं की रुलाई की कविताएँ हैं।

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Description

जीवन-राग, दुःखानुभव और सम्वेदना की सजल छवियों से फूटता रुलाई का गीत; जो इक्कीसवीं सदी के हमारे आज में भी कील की तरह बिंधा है। किसी ख़ास ऋतु में फूटनेवाली रुलाई का गाना; बिछोह में कूकती आत्मा की आँखों से गिरते अदृश्य आँसू!
ये कविताएँ उन्हीं आँसुओं का शब्दानुवाद हैं। शिरीष कुमार मौर्य अपनी स्थानिकता और लोक की परिष्कृत संवेदना के सुपरिचित कवि हैं। ‘रितुरैण’ में उन्होंने गीतात्मक लय में बँधी अपनी गहन संवेदनापरक कविताओं को संकलित किया है।
‘मैं हिन्दी का एक लगभग कवि/लिखता हूँ/हर ऋतु में/हर आस/हर याद…’ जहाँ इस ‘कठकरेजों की दुनिया में/यों ही/बेमतलब हुआ जाता है/मनुष्य होने तक का/हर इन्तजार।’ ये कविताएँ मनुष्य के अपने परिवेश से एकमेक होकर मनुष्यता के आह्वान की कविताएँ हैं और उस दुःख की जो बार-बार हो रहे मनुष्यता के हनन और उपेक्षा से उपजता है।
भूखे मनुष्य, ऋतुओं के बदलाव के साथ और-और असहाय होते मनुष्य और पूनो का चाँद जो जवाब नहीं देता ‘सवाल भर उठाता है/लोकतंत्र के रितुरैण में।’ और ‘पूनो की ही रात में राजा हमारा/बजाता है/राग जनसम्मोहिनी।’
ये कविताएँ इस राग के लिए एक सान्‍द्र, शान्‍त चुनौती की तरह खुलती हैं एक-एक कर। कहती हुई कि ‘हत्या के बाद/ज़िम्मेदार व्यक्तियों के चेहरे पर/जो मुस्कान आती है/सब ऋतुओं को उजाड़ जाती है।’ ये उजड़ी हुई उन ऋतुओं की रुलाई की कविताएँ हैं।

About Author

डॉ. पी.एन. सिंह

जन्म : 01 जुलाई, 1942; वासुदेवपुर, गाजीपुर, उत्तर प्रदेश।

शिक्षा : एम. ए. (अंग्रेज़ी), पीएच.डी.।

ज्ञानभारती विद्यापीठ, कोलकाता 1964-68; महाराजा वीर विक्रम शासकीय कॉलेज, अगरतला 1968-71; स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गाजीपुर में 1971-2002, विभागाध्यक्ष, अंग्रेज़ी विभाग।

कृतियाँ : ‘भारतीय वाल्तेयर और मार्क्स : बी.आर. अम्बेडकर’, ‘मंडल आयोग : एक विश्लेषण’; ‘नायपॉल का भारत’, ‘गाँधी अम्बेडकर लोहिया’, ‘उच्चशिक्षा का संकट : समस्या और समाधान के बिन्दु’, ‘रामविलास शर्मा और हिन्दी जाति’, ‘अम्बेडकर प्रेमचंद और दलित समाज’, ‘हिन्दी दलित साहित्य : संवेदना और विमर्श’, ‘Society, Culture, Literary Theory and Criticism’, ‘निष्प्रभ आईना’ आदि।

सम्पादन : ‘कर्मयोगी की अविराम यात्रा’, ‘उच्च शिक्षा की चुनौतियाँ’, ‘प्रभु नारायण सिह : गाजीपुर की दृष्टि में’, ‘बुद्धिधर्मी डॉ. सरजू तिवारी’ इत्यादि पुस्तकों तथा जून 1989 से ‘समकालीन सोच' पत्रिका का सम्पादन।

उत्तर प्रदेश शासन द्वारा पुरस्कृत : ‘गाँधी और उनका वर्धा’ (2012), ‘कुबेरनाथ राय : साहित्यिक-सांस्कृतिक दृष्टि’ (2012), ‘अम्बेडकर चिन्‍तन और हिन्दी दलित साहित्य’ (2009)।

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