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Rashtravad Kee Chakri Mein Dharm Evam Anya Lekh (CSDS)
Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
मंधु पूर्णिमा किश्वर, अनुवाद : योगेन्द्र दत्त
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
मंधु पूर्णिमा किश्वर, अनुवाद : योगेन्द्र दत्त
Language:
Hindi
Format:
Paperback
₹195 ₹194
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ISBN:
SKU
9788181433742
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
372
दिल्ली और उत्तर भारत के कई दूसरे स्थानों पर नवंबर, १९८४ में सिखों के नरसंहार के बाद लिखे गए इन लेखों में मधु पूर्णिमा किश्वर ने सांप्रदायिक हिंसा और तनाव की स्थितियों का विश्लेषण किया है। वे सवाल उठाती हैं कि सांप्रदायिक नरसंहार क्यों होते हैं, वे हमारी राजनीतिक व्यवस्था का एक नियमित अंग क्यों बनते जा रहे हैं, ऐसा क्यों है कि इस तरह की हत्याओं के लिए जिम्मेदार लगभग सभी लोग खुले घूम रहे हैं और ताकतवर माने जाते हैं, इन निर्मम कृत्यों को किस तरह वैधता मिल रही है और इन्हें रोकने के लिए क्या किया जा सकता है?
इस किताब का एक हिस्सा हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर केंद्रित है। यह एक ऐसी समस्या जो स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर आज तक हल नहीं हो पाई है। हिंदू-मुस्लिम समस्याओं के लंबे इतिहास और सन् ४७ की विरासत के कारण मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए मौजूदा भ्रांतियों का इस्तेमाल करना और यह दावा करना ज्यादा आसान हो जाता है कि वे राष्ट्र विरोधी होते हैं। इस हिस्से में दिए गए लेखों के जरिए इन रूढ़ छवियों को तोड़ने की कोशिश की गई है।
‘राष्ट्रवाद की चाकरी में धर्म’ के कई लेख हिंदू-मुस्लिम टकराव का समाधान निकालने के लिए नई रणनीतियों की दिशा में एक ज्यादा व्यावहारिक समझ का सूत्रपात करते हैं। हालांकि मधु किश्वर आज भी राजनीतिक जीवन में राष्ट्रवाद की जगह को लेकर महात्मा गांधी की संवेदनशील और बहुपरती पोजीशन से प्रभावित हैं, परंतु अब वे अपने सोच में रवींद्रनाथ ठाकुर के ज्यादा नजदीक चली गई हैं। रवींद्रनाथ ठाकुर ने इस बात पर जोर दिया था कि राष्ट्रवाद का यूरोपीय जहर ही उस हिंसा और नफरत का सबसे बड़ा स्रोत है जिसने भारतीय समाज को इतने संकटों में धकेला है।
इस किताब के ज्यादातर लेख एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं- समाज की बेहतरी और विभिन्न समुदायों के बीच आपसी संबंधों के लिए सबसे बड़ा खतरा उन लोगों की तरफ से है जो हम पर शासन कर रहे हैं। उन्हें अपने लालच और कुकृत्यों के भयानक परिणामों की रत्ती भर भी चिंता नही है। हमारे देश में जातीय शत्रुताओं को यूरोप के जातीय तनावों से जो चीज भिन्न करती है वह यह है कि जब कभी भी हमारे समुदायों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है तो वे सहज ही सहअस्तित्व के काफी सम्मानजनक तरीके ढूंढ लेते हैं। यहाँ तक कि वह साँझे सांस्कृतिक प्रतीक और दायरे भी गढ़ लेते हैं और एक-दूसरे के रीति-रिवाजों और तीज-त्यौहारों में शामिल होते हैं।
मधु किश्वर का निष्कर्ष है कि भारत में लोकतंत्र का भविष्य बहुसंख्यक – अल्पसंख्यक संबंधों के ऐसे संतोषजनक समाधान विकसित करने की हमारी क्षमता पर निर्भर करता है जो तात्कालिक फायदे-नुकसान और नैतिक उपदेशों के परे जाते हों। विभिन्न समूहों के बीच सत्ता में हिस्सेदारी के ऐसे व्यावहारिक संस्थागत तौर-तरीके विकसित करना आज की जरूरत है जिनसे समुदायों के बीच परस्पर स्वीकार्य समुच्चय गढ़े जा सकें। ऐसा केवल तभी हो सकता है जब हम अपनी सरकार को कानूनसम्मत व्यवहार करने के लिए बाध्य करने और उसके व्यवहार पर निगरानी के सुपरिभाषित एवं प्रभावी तरीके निकालने में सफल हो जाएँगे।
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Description
दिल्ली और उत्तर भारत के कई दूसरे स्थानों पर नवंबर, १९८४ में सिखों के नरसंहार के बाद लिखे गए इन लेखों में मधु पूर्णिमा किश्वर ने सांप्रदायिक हिंसा और तनाव की स्थितियों का विश्लेषण किया है। वे सवाल उठाती हैं कि सांप्रदायिक नरसंहार क्यों होते हैं, वे हमारी राजनीतिक व्यवस्था का एक नियमित अंग क्यों बनते जा रहे हैं, ऐसा क्यों है कि इस तरह की हत्याओं के लिए जिम्मेदार लगभग सभी लोग खुले घूम रहे हैं और ताकतवर माने जाते हैं, इन निर्मम कृत्यों को किस तरह वैधता मिल रही है और इन्हें रोकने के लिए क्या किया जा सकता है?
इस किताब का एक हिस्सा हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर केंद्रित है। यह एक ऐसी समस्या जो स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर आज तक हल नहीं हो पाई है। हिंदू-मुस्लिम समस्याओं के लंबे इतिहास और सन् ४७ की विरासत के कारण मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए मौजूदा भ्रांतियों का इस्तेमाल करना और यह दावा करना ज्यादा आसान हो जाता है कि वे राष्ट्र विरोधी होते हैं। इस हिस्से में दिए गए लेखों के जरिए इन रूढ़ छवियों को तोड़ने की कोशिश की गई है।
‘राष्ट्रवाद की चाकरी में धर्म’ के कई लेख हिंदू-मुस्लिम टकराव का समाधान निकालने के लिए नई रणनीतियों की दिशा में एक ज्यादा व्यावहारिक समझ का सूत्रपात करते हैं। हालांकि मधु किश्वर आज भी राजनीतिक जीवन में राष्ट्रवाद की जगह को लेकर महात्मा गांधी की संवेदनशील और बहुपरती पोजीशन से प्रभावित हैं, परंतु अब वे अपने सोच में रवींद्रनाथ ठाकुर के ज्यादा नजदीक चली गई हैं। रवींद्रनाथ ठाकुर ने इस बात पर जोर दिया था कि राष्ट्रवाद का यूरोपीय जहर ही उस हिंसा और नफरत का सबसे बड़ा स्रोत है जिसने भारतीय समाज को इतने संकटों में धकेला है।
इस किताब के ज्यादातर लेख एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं- समाज की बेहतरी और विभिन्न समुदायों के बीच आपसी संबंधों के लिए सबसे बड़ा खतरा उन लोगों की तरफ से है जो हम पर शासन कर रहे हैं। उन्हें अपने लालच और कुकृत्यों के भयानक परिणामों की रत्ती भर भी चिंता नही है। हमारे देश में जातीय शत्रुताओं को यूरोप के जातीय तनावों से जो चीज भिन्न करती है वह यह है कि जब कभी भी हमारे समुदायों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है तो वे सहज ही सहअस्तित्व के काफी सम्मानजनक तरीके ढूंढ लेते हैं। यहाँ तक कि वह साँझे सांस्कृतिक प्रतीक और दायरे भी गढ़ लेते हैं और एक-दूसरे के रीति-रिवाजों और तीज-त्यौहारों में शामिल होते हैं।
मधु किश्वर का निष्कर्ष है कि भारत में लोकतंत्र का भविष्य बहुसंख्यक – अल्पसंख्यक संबंधों के ऐसे संतोषजनक समाधान विकसित करने की हमारी क्षमता पर निर्भर करता है जो तात्कालिक फायदे-नुकसान और नैतिक उपदेशों के परे जाते हों। विभिन्न समूहों के बीच सत्ता में हिस्सेदारी के ऐसे व्यावहारिक संस्थागत तौर-तरीके विकसित करना आज की जरूरत है जिनसे समुदायों के बीच परस्पर स्वीकार्य समुच्चय गढ़े जा सकें। ऐसा केवल तभी हो सकता है जब हम अपनी सरकार को कानूनसम्मत व्यवहार करने के लिए बाध्य करने और उसके व्यवहार पर निगरानी के सुपरिभाषित एवं प्रभावी तरीके निकालने में सफल हो जाएँगे।
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