Rashtravad Banam DesHardbackhakti

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
आशिस नंदी , अनुवाद अभय कुमार दुबे
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
आशिस नंदी , अनुवाद अभय कुमार दुबे
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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राष्ट्रवाद बनाम देशभक्ति’ के केन्द्र में रवींद्रनाथ ठाकुर का चिन्तन है। पूरी किताब में एक बिल्कुल नया और नफीस ख़याल चलता रहता है कि भारतीय ज़मीन पर औपनिवेशिक प्रभाव के ख़िलाफ़ संघर्ष करने के सीधे और सरल लगने वाले तौर-तरीके भीतर से कितने पेचीदा थे। यह रचना रवींद्रनाथ के ज़रिये बताती है कि भारतीय समाज में परम्पराप्रदत्त जड़ता और औपनिवेशिक जकड़बन्दी से संघर्ष करना ज़्यादा आसान था, लेकिन इस संघर्ष के दौरान खुफिया तौर पर चल रही उस प्रक्रिया का मुकाबला करना कठिन था जिसके तहत हम उपनिवेशवादी मूल्यों को ही आत्मसात करते जा रहे थे । उपनिवेशवाद का एक ‘डबल’ या प्रतिरूप हमारे भीतर बनता जा रहा था। इस परिघटना में आधुनिकता, राष्ट्रवाद और राज्यवाद का निर्णायक योगदान था । अक्सर शिनाख़्त से बच निकलने वाली इस प्रक्रिया को जिन कुछ लोगों ने पहचान लिया था, उनमें रवींद्रनाथ ठाकुर प्रमुख थे। उन्होंने न केवल इस प्रक्रिया को पहचाना, बल्कि उपनिवेशवादी संघर्ष के प्रचलित मुहावरे के बावजूद इसकी समग्र आलोचना विकसित की। लेकिन, यह आलोचना बहुत दिनों तक नहीं टिक सकी और हमारे भीतर का यह औपनिवेशिक ‘डबल’ यानी राष्ट्रवाद उस वास्तविक भारतीय इयत्ता यानी देशभक्ति के रूपों पर हावी होता चला गया।

܀܀܀

रवींद्रनाथ ठाकुर भारत की राष्ट्रीय पहचान के प्रमुख निर्माताओं में से एक थे। लेकिन, साम्राज्यवाद विरोधी नज़रिये को अनुलंघनीय मानते हुए भी वे यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे कि राष्ट्रवाद का पश्चिमी विचार हमारे युग का एक अपरिहार्य सार्वभौमिक विचार है। उस ज़माने में राष्ट्रवाद पर की जाने वाली कोई भी आपत्ति एक तरफ़ पश्चिमी साम्राज्यवाद से और दूसरी तरफ़ देशी क़िस्म के दक़ियानूसी रवैये से जानबूझकर या अनजाने में समझौता करने के बराबर मानी जाती थी।

अपने इन्हीं राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचारों के कारण रवींद्रनाथ को ‘असहमतों के बीच असहमत’ की संज्ञा दी जा सकती थी। वे राष्ट्रवाद को पश्चिमी राष्ट्र राज्य प्रणाली की पैदाइश मानते थे। उनका विचार था कि इसे पश्चिमी विश्व दृष्टिकोण से निकली समरूपीकरण की शक्तियों ने जन्म दिया है, और समरूपीकृत सार्वभौमिकता अपने-आप में परसंस्कृतिकरण और ज़मीन से उखड़ने की उस परिघटना की देन है जिसे भारत पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने थोपा है। इसलिए उनकी निगाह में यह सार्वभौमिकता राष्ट्रवाद का विकल्प नहीं बन सकती थी। उन्होंने एक दूसरा विकल्प सुझाया और उसे सार्वभौमिकता की विशिष्ट सभ्यतामूलक समझ के रूप में पेश किया। इस विशिष्ट सार्वभौमिकता का आधार एक अत्यन्त विविध और बहुलतापूर्ण समाज की नाना-विध जीवन-शैलियों में सन्निहित था ।

रवींद्रनाथ ने राष्ट्रवाद से सार्वजनिक मोर्चा लिया और अपने प्रतिरोध का आधार भारत की सांस्कृतिक विरासत और नाना प्रकार की जीवन-शैलियों को बनाया। रवींद्रनाथ की असहमति सिलसिलेवार और सीधी रेखा में विकसित नहीं हुई थी। वैचारिक स्पष्टता हासिल करने के लिए उन्हें कई तरह के अन्तर्विरोधों और एक के बाद एक उलझनों से गुज़रना पड़ा। वैसे भी उनकी चिन्तन-शैली किसी राजनीतिक विचारक की तरह नहीं हो सकती थी। वे तो अपने युग की भारतीय जन-चेतना के अनकहे सरोकारों को व्यक्त करने वाले एक कवि थे। रवींद्रनाथ के इन अन्तर्विरोधों और व्यतिक्रमों को अंशतः उनके समय की सांस्कृतिक राजनीति की रोशनी में समझा जाना चाहिए।

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राष्ट्रवाद बनाम देशभक्ति’ के केन्द्र में रवींद्रनाथ ठाकुर का चिन्तन है। पूरी किताब में एक बिल्कुल नया और नफीस ख़याल चलता रहता है कि भारतीय ज़मीन पर औपनिवेशिक प्रभाव के ख़िलाफ़ संघर्ष करने के सीधे और सरल लगने वाले तौर-तरीके भीतर से कितने पेचीदा थे। यह रचना रवींद्रनाथ के ज़रिये बताती है कि भारतीय समाज में परम्पराप्रदत्त जड़ता और औपनिवेशिक जकड़बन्दी से संघर्ष करना ज़्यादा आसान था, लेकिन इस संघर्ष के दौरान खुफिया तौर पर चल रही उस प्रक्रिया का मुकाबला करना कठिन था जिसके तहत हम उपनिवेशवादी मूल्यों को ही आत्मसात करते जा रहे थे । उपनिवेशवाद का एक ‘डबल’ या प्रतिरूप हमारे भीतर बनता जा रहा था। इस परिघटना में आधुनिकता, राष्ट्रवाद और राज्यवाद का निर्णायक योगदान था । अक्सर शिनाख़्त से बच निकलने वाली इस प्रक्रिया को जिन कुछ लोगों ने पहचान लिया था, उनमें रवींद्रनाथ ठाकुर प्रमुख थे। उन्होंने न केवल इस प्रक्रिया को पहचाना, बल्कि उपनिवेशवादी संघर्ष के प्रचलित मुहावरे के बावजूद इसकी समग्र आलोचना विकसित की। लेकिन, यह आलोचना बहुत दिनों तक नहीं टिक सकी और हमारे भीतर का यह औपनिवेशिक ‘डबल’ यानी राष्ट्रवाद उस वास्तविक भारतीय इयत्ता यानी देशभक्ति के रूपों पर हावी होता चला गया।

܀܀܀

रवींद्रनाथ ठाकुर भारत की राष्ट्रीय पहचान के प्रमुख निर्माताओं में से एक थे। लेकिन, साम्राज्यवाद विरोधी नज़रिये को अनुलंघनीय मानते हुए भी वे यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे कि राष्ट्रवाद का पश्चिमी विचार हमारे युग का एक अपरिहार्य सार्वभौमिक विचार है। उस ज़माने में राष्ट्रवाद पर की जाने वाली कोई भी आपत्ति एक तरफ़ पश्चिमी साम्राज्यवाद से और दूसरी तरफ़ देशी क़िस्म के दक़ियानूसी रवैये से जानबूझकर या अनजाने में समझौता करने के बराबर मानी जाती थी।

अपने इन्हीं राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचारों के कारण रवींद्रनाथ को ‘असहमतों के बीच असहमत’ की संज्ञा दी जा सकती थी। वे राष्ट्रवाद को पश्चिमी राष्ट्र राज्य प्रणाली की पैदाइश मानते थे। उनका विचार था कि इसे पश्चिमी विश्व दृष्टिकोण से निकली समरूपीकरण की शक्तियों ने जन्म दिया है, और समरूपीकृत सार्वभौमिकता अपने-आप में परसंस्कृतिकरण और ज़मीन से उखड़ने की उस परिघटना की देन है जिसे भारत पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने थोपा है। इसलिए उनकी निगाह में यह सार्वभौमिकता राष्ट्रवाद का विकल्प नहीं बन सकती थी। उन्होंने एक दूसरा विकल्प सुझाया और उसे सार्वभौमिकता की विशिष्ट सभ्यतामूलक समझ के रूप में पेश किया। इस विशिष्ट सार्वभौमिकता का आधार एक अत्यन्त विविध और बहुलतापूर्ण समाज की नाना-विध जीवन-शैलियों में सन्निहित था ।

रवींद्रनाथ ने राष्ट्रवाद से सार्वजनिक मोर्चा लिया और अपने प्रतिरोध का आधार भारत की सांस्कृतिक विरासत और नाना प्रकार की जीवन-शैलियों को बनाया। रवींद्रनाथ की असहमति सिलसिलेवार और सीधी रेखा में विकसित नहीं हुई थी। वैचारिक स्पष्टता हासिल करने के लिए उन्हें कई तरह के अन्तर्विरोधों और एक के बाद एक उलझनों से गुज़रना पड़ा। वैसे भी उनकी चिन्तन-शैली किसी राजनीतिक विचारक की तरह नहीं हो सकती थी। वे तो अपने युग की भारतीय जन-चेतना के अनकहे सरोकारों को व्यक्त करने वाले एक कवि थे। रवींद्रनाथ के इन अन्तर्विरोधों और व्यतिक्रमों को अंशतः उनके समय की सांस्कृतिक राजनीति की रोशनी में समझा जाना चाहिए।

About Author

आशीष नंदी - अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के समाज-मनोविदः आधुनिकतावाद, सेकुलरवाद और राष्ट्रवाद के प्रखर आलोचक; सांस्कृतिक-राजनीतिक संदर्भ में यूरोकेंद्रीयता के खिलाफ एशियायी सांस्कृतिक दावेदारी के प्रमुख पैरोकार; समरूप सांस्कृतिक महाआख्यानों के मुकाबले लघु संस्कृतियों को प्रमुखता देने के पक्षधर; आधुनिकतावादी सेकुलरवाद से लेकर हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता का प्रबल विरोध। विकासशील समाज अध्ययन पीठ के साथ आजीवन जुड़े रहे प्रोफेसर नंदी की रचनाओं की लोकप्रियता का अंदाजा केवल इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उनकी मशहूर कृति द इंटीमेट इनेमी : लास एंड रिकवरी ऑव सेल्फ अंडर कॉलोनियलिज्म के पंद्रह पुनर्मुद्रण हो चुके हैं। समाज मनोविज्ञान के दायरे में प्रोफेसर नंदी ने राजनीति, कला, साहित्य, संस्कृति, सिनेमा और खेल पर विशद वांड्मय की रचना की है। कमेटी फॉर द कल्चरल च्वाइसेज़ के अध्यक्ष आशीष नंदी की प्रमुख कृतियों में 'द इंटीमेट इनेमी' के अलावा द न्यू वैश्यास (रेमंड एल. आवेंस के साथ); आल्टरनेटिव साइंसेज क्रियेटिविटी एंड अथांटिसिटी इन टू इंडियन साइंटिस्ट; एट द ऍज ऑव साइकोलॉजी एसेज ऑन पॉलिटिक्स एंड कल्चर; ट्रेडीशंस, टायरनी एंड यूटोपियाज : एसेज इन द पॉलिटिक्स ऑव अवेयरनेस; साइंस, हेजेमनी एंड वायलेंस : ए रेक्विम फॉर माडर्निटी; द ताओ ऑव क्रिकेट ऑन गेम्स ऑव डेस्टिनी एंड डेस्टिनी ऑव गेम्स; द ब्लाइंडिड आई : ५०० इयर्स ऑव क्रिस्टोफर कोलंबस (जियाउद्दीन सरदार, क्लॉड अलवारिस और मेरिल विन डेवीस के साथ); इल्लेजिटिमेसी ऑव नेशनलिज्म : रवींद्रनाथ टैगोर एंड इंडियन पॉलिटिक्स ऑव सेल्फ, प्रतिशब्द (गुजराती में); द सेवेज फ्रायड एंड अदर एसेज इन पासिबिल एंड रिट्रीवेबिल सेल्व्ज; आशीष नंदी : ए रीडर (संपादक: डी. आर. नागराज); क्रियेटिंग ए नेशनलिटी : द राम जन्म- भूमि मूवमेंट एंड फियर आँव सेल्फ (शिखा त्रिवेदी, अच्युत याग्निक और शैल मायाराम के साथ); मल्टीवर्स ऑव डेमोक्रेसी (धीरूभाई शेठ के साथ); द न्यूक्लियर डिबेट : आयरनीज एंड इम्पोरलिटीज (जिया मियाँ के साथ); कंटेम्परेरी इंडिया (बी.ए. पाईपनांडी कर के साथ संपादित), द सीक्रेट पॉलिटिक्स ऑव अवर डिज़ायर्स : इन्नोसेंस, कल्पेबिलिटी एंड पॉपुलर सिनेमा (संपादित), टाइम वार्ल्स और दि रोमांस ऑव दि स्टेट एंड दि फेट ऑव दि डिसेंट इन दि ट्रॉपिंक्स भी शामिल हैं। ܀܀܀ अभय कुमार दुबे - लेखक, संपादक, अनुवादक और अनुसंधानकर्ता। नक्सलवादी आंदोलन से लंबा जुड़ाव। करीब आठ साल तक भाकपा (माले) (लिबरेशन) के कार्यकर्ता। लंबे अरसे तक एक्सप्रेस समूह के दैनिक जनसत्ता में काम करने के बाद विकासशील समाज अध्ययन पीठ में भारतीय भाषा कार्यक्रम के संपादक। नक्सलवादी आंदोलन, दलित आंदोलन, सांप्रदायिकता, सेकुलरवाद, भूमंडलीकरण, नारी मुक्ति आंदोलन, यौनिकता और संस्कृति संबंधी विषयों पर अध्ययन। सिनेमा और खेल पर भी लेखन। प्रमुख कृतियाँ : क्रांति का आत्म संघर्ष : नक्सलवादी आंदोलन के बदलते चेहरे का अध्ययन; सांप्रदायिकता के स्त्रोत (संपादित); आज के नेता : राजनीति के नये उद्यमी (बाल ठाकरे, कांशी राम, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, ज्योति बसु, कल्याण सिंह और मेधा पाटकर के राजनीतिक जीवन के आलोचनात्मक अध्ययन पर आधारित पुस्तक माला का संपादन और अरुण त्रिपाठी, अरुण पांडेय और अंबरीश कुमार के साथ लेखन)। भारतीय भाषा कार्यक्रम के तहत प्रकाशित लोक-चिंतक ग्रंथमाला और लोक-चिंतन ग्रंथमाला की सभी कड़ियों (आधुनिकता के आईने में दलित, लोकतंत्र के साथ अध्याय, भारत का भूमंडलीकरण, राजनीतिक की किताब / रजनी कोठारी का कृतित्व और बीच बहस में सेकुलरवाद) का संपादन। घोटाले में घोटाला (शेयर घोटाले पर एक प्रचार पुस्तिका); 'हंस' के महिला विशेषांक 'स्त्री-भूमंडलीकरण : पितृसत्ता के नये रूप' का प्रभा खेतान के साथ संपादन; भारत के मध्यवर्ग की अजीब दास्तान (पवन वर्मा की कृति द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास का अनुवाद); भारतनामा (सुनील खिलनानी की कृति द आइडिया ऑव इंडिया का अनुवाद) और पूँजी के भूमंडलीकरण से कैसे लड़ें? (कंवलजीत सिंह की कृति ग्लोबलाइज़ेशन ऑव फाइनेंस का अनुवाद) के अलावा आठ किशोरोपयोगी पुस्तकों की रचना और दो का अनुवाद । १९९५-९६ में गंभीर मासिक पत्रिका समय चेतना के चौदह अंकों का संपादन।

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