Ramchandra Shukla Sanchayita 487

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Rani Padmini : Chittorh Ka Pratham Jauhar

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
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Vani Prakashan
Author:
ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल
Language:
Hindi
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Paperback

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SKU 9789387409651 Category
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Page Extent:
280

विद्वान् ग्रंथकर्ता की विचारणीय दो कृतियाँ हैं, जिन पर उन्होंने बड़े परिश्रमपूर्वक सर्वांगीण विचार किया है और कोई ऐसा कोना नहीं छोड़ा है जिसकी गहरी और सतर्क छानवीन न की हो। जहाँ प्रसंगतः अन्य कृतियों के विचार की जितनी आवश्यकता हुई उन्होंने ययासंभव उनका उपयोग किया है। पाठ-सम्पादन बड़ा दुष्कर और गंभीर साधना का काम है। श्रीयुत सिंहल ने पाठ-सम्पादन में जितने परिश्रम और ध्यान से पाठभेद को लक्षित किया है उतने, बल्कि उससे भी कहीं अधिक ध्यान से वे इस कथा से सम्बन्धित मूल विवेच्य और इतर काव्यों की सूक्ष्म पड़ताल में गये हैं और साथ ही अपने विवेचन में उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर घटनाओं तथा पात्रों का पूरे ब्यौरे के साथ विवेचन करते हुए अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं।

प्रस्तुत ग्रंथ के कर्ता श्रीसिंहल का विचार है कि पद्मिनी रणथम्भौर से सम्बन्धित है और रणथम्भौर के किले में कुछ स्थलों के नाम इसके प्रमाण हैं। उनके विचार से पद्मिनी महाराज हम्मीर की पुत्री थी। सत्य क्या है इसका निर्णय तो इतिहासकार ही कर सकते हैं, परन्तु राणा रत्नसेन और महाराज हम्मीर का समकालीन होना तो इतिहास – सिद्ध है ही और यह भी कि दोनों का युद्ध अलाउद्दीन खिलजी से हुआ था। जोधराज कृत ‘हम्मीर रासो’ से इस बात की भी पुष्टि होती है कि अलाउद्दीन पर विजय प्राप्त करके महाराज हम्मीर शत्रुओं से छीनी हुई विजय की ध्वजाओं को आगे किये गढ़ लौटे तो उनकी सेना को शत्रु की विजयी सेना समझकर तब तक रानी परिवार की वीर महिलाओं के साथ अग्नि में प्रवेश कर चुकी थीं। यह देखकर दुखी हम्मीर ने अपने सैनिकों को आज्ञा दी कि चित्तौड़ जाकर कुँवर रत्नसेन की रक्षा करें। ‘कुँवर’ शब्द का प्रयोग जहाँ सिंहासनासीन होने से पूर्व ‘राजकुमार’ होने की अवस्था के लिए होता है, वहीं ‘जामाता’ के लिए भी होता है। यदि यह वर्णन सही है तो रत्नसेन हम्मीर के जामाता हो सकते हैं और यदि सचमुच ऐसा है तो श्रीसिंहल की ‘सिंहल’ और ‘पद्मिनी’ विषयक धारणा में भी बल हो सकता है। विद्वानों को इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और जब तक इसका सप्रमाण खण्डन न हो जाय, इसे स्वीकार किया जाना चाहिए।

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विद्वान् ग्रंथकर्ता की विचारणीय दो कृतियाँ हैं, जिन पर उन्होंने बड़े परिश्रमपूर्वक सर्वांगीण विचार किया है और कोई ऐसा कोना नहीं छोड़ा है जिसकी गहरी और सतर्क छानवीन न की हो। जहाँ प्रसंगतः अन्य कृतियों के विचार की जितनी आवश्यकता हुई उन्होंने ययासंभव उनका उपयोग किया है। पाठ-सम्पादन बड़ा दुष्कर और गंभीर साधना का काम है। श्रीयुत सिंहल ने पाठ-सम्पादन में जितने परिश्रम और ध्यान से पाठभेद को लक्षित किया है उतने, बल्कि उससे भी कहीं अधिक ध्यान से वे इस कथा से सम्बन्धित मूल विवेच्य और इतर काव्यों की सूक्ष्म पड़ताल में गये हैं और साथ ही अपने विवेचन में उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर घटनाओं तथा पात्रों का पूरे ब्यौरे के साथ विवेचन करते हुए अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं।

प्रस्तुत ग्रंथ के कर्ता श्रीसिंहल का विचार है कि पद्मिनी रणथम्भौर से सम्बन्धित है और रणथम्भौर के किले में कुछ स्थलों के नाम इसके प्रमाण हैं। उनके विचार से पद्मिनी महाराज हम्मीर की पुत्री थी। सत्य क्या है इसका निर्णय तो इतिहासकार ही कर सकते हैं, परन्तु राणा रत्नसेन और महाराज हम्मीर का समकालीन होना तो इतिहास – सिद्ध है ही और यह भी कि दोनों का युद्ध अलाउद्दीन खिलजी से हुआ था। जोधराज कृत ‘हम्मीर रासो’ से इस बात की भी पुष्टि होती है कि अलाउद्दीन पर विजय प्राप्त करके महाराज हम्मीर शत्रुओं से छीनी हुई विजय की ध्वजाओं को आगे किये गढ़ लौटे तो उनकी सेना को शत्रु की विजयी सेना समझकर तब तक रानी परिवार की वीर महिलाओं के साथ अग्नि में प्रवेश कर चुकी थीं। यह देखकर दुखी हम्मीर ने अपने सैनिकों को आज्ञा दी कि चित्तौड़ जाकर कुँवर रत्नसेन की रक्षा करें। ‘कुँवर’ शब्द का प्रयोग जहाँ सिंहासनासीन होने से पूर्व ‘राजकुमार’ होने की अवस्था के लिए होता है, वहीं ‘जामाता’ के लिए भी होता है। यदि यह वर्णन सही है तो रत्नसेन हम्मीर के जामाता हो सकते हैं और यदि सचमुच ऐसा है तो श्रीसिंहल की ‘सिंहल’ और ‘पद्मिनी’ विषयक धारणा में भी बल हो सकता है। विद्वानों को इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और जब तक इसका सप्रमाण खण्डन न हो जाय, इसे स्वीकार किया जाना चाहिए।

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