Ramdhari Singh Diwakar Ki Lokpriya Kahaniyan

Publisher:
Prabhat Prakashan
| Author:
Ramdhari Singh Diwakar
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Prabhat Prakashan
Author:
Ramdhari Singh Diwakar
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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ग्रामीण जीवन के कथाशिल्पी रामधारी सिंह दिवाकर का, उनके ही द्वारा चयनित कहानियों का यह संग्रह उनकी आधी सदी की कथायात्रा का प्रतिनिधित्व करता है। सत्तर के दशक से कथा-लेखन में सक्रिय दिवाकरजी ने संक्रमणशील ग्रामीण यथार्थ को बहुत अंतरंगता से जाना-समझा है, और उसे अपनी कहानियों में विन्यस्त करने की कोशिश की है। बदलता हुआ ग्रामीण जीवन आज जिस मुहाने पर खड़ा है, वहाँ अजीब-सी बेचैनी है। गाँव को लेकर पुरानी अवधारणाएँ खंडित हो रही हैं। देखने-समझने के लिए नए मान-मूल्यों की आवश्यकता है। पंचायती राज व्यवस्था का युरोपिया, हिंसा-प्रतिहिंसा, भ्रष्टाचार, राजनीतिक दलबंदी, जातीय वैमनस्य, गरीबी, बेरोजगारी, मजदूरों का पलायन आदि नकारात्मक पक्षों ने गाँव को बदहाली के कगार पर ला खड़ा किया है। इन सबके बीच से नई चेतना की किरणें भी झाँकती दिखाई पड़ती हैं। लोकतांत्रिक नई चेतना ने गाँव की प्रताडि़त-प्रवंचित जातियों में एक नए आशावाद को जन्म दिया है। सबसे बड़ी बात हुई है दलित-पिछड़ी जातियों में अधिकार-चेतना, अस्मिता-बोध और स्वाभिमान का उदय। इस नवोन्मेष ने पुरानी सामंती व्यवस्था पर जबरदस्त चोट की है। गाँव की बोली-बानी को आत्मसात् करनेवाली दिवाकरजी की कथाभाषा में आत्मीयता और प्रवाह है। नब्बे के दशक के बाद ग्रामीण संवेदना में आए परिवर्तन और प्रत्यावर्तन को देखना-समझना हो तो उनकी कहानियाँ प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में दर्ज की जाएँगी।

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ग्रामीण जीवन के कथाशिल्पी रामधारी सिंह दिवाकर का, उनके ही द्वारा चयनित कहानियों का यह संग्रह उनकी आधी सदी की कथायात्रा का प्रतिनिधित्व करता है। सत्तर के दशक से कथा-लेखन में सक्रिय दिवाकरजी ने संक्रमणशील ग्रामीण यथार्थ को बहुत अंतरंगता से जाना-समझा है, और उसे अपनी कहानियों में विन्यस्त करने की कोशिश की है। बदलता हुआ ग्रामीण जीवन आज जिस मुहाने पर खड़ा है, वहाँ अजीब-सी बेचैनी है। गाँव को लेकर पुरानी अवधारणाएँ खंडित हो रही हैं। देखने-समझने के लिए नए मान-मूल्यों की आवश्यकता है। पंचायती राज व्यवस्था का युरोपिया, हिंसा-प्रतिहिंसा, भ्रष्टाचार, राजनीतिक दलबंदी, जातीय वैमनस्य, गरीबी, बेरोजगारी, मजदूरों का पलायन आदि नकारात्मक पक्षों ने गाँव को बदहाली के कगार पर ला खड़ा किया है। इन सबके बीच से नई चेतना की किरणें भी झाँकती दिखाई पड़ती हैं। लोकतांत्रिक नई चेतना ने गाँव की प्रताडि़त-प्रवंचित जातियों में एक नए आशावाद को जन्म दिया है। सबसे बड़ी बात हुई है दलित-पिछड़ी जातियों में अधिकार-चेतना, अस्मिता-बोध और स्वाभिमान का उदय। इस नवोन्मेष ने पुरानी सामंती व्यवस्था पर जबरदस्त चोट की है। गाँव की बोली-बानी को आत्मसात् करनेवाली दिवाकरजी की कथाभाषा में आत्मीयता और प्रवाह है। नब्बे के दशक के बाद ग्रामीण संवेदना में आए परिवर्तन और प्रत्यावर्तन को देखना-समझना हो तो उनकी कहानियाँ प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में दर्ज की जाएँगी।

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