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Paritapt Lankeshwari

Publisher:
Prabhat Prakashan
| Author:
Mridula Sinha
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Prabhat Prakashan
Author:
Mridula Sinha
Language:
Hindi
Format:
Hardback

338

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In stock

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1-4 Days

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Book Type

ISBN:
SKU 9789351861669 Categories , Tag
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Page Extent:
232

मेरी आँखें बंद हो गईं। कान भी आगे कुछ सुनने को तैयार नहीं थे। युद्ध, युद्ध, युद्ध। केवल युद्ध की तैयारी। यह कैसा वरदान। ब्रह्मा ने इस संसार की रचना की है। महेश इसके प्रतिपालक हैं। फिर अपने भक्तों को ऐसे वरदान क्यों देते हैं जो उनकी बसाई दुनिया को समाप्त करने की मनोकामना रखता हो? मेरे पुत्र को मिले वरदानों का उपयोग मात्र युद्धभूमि में ही हो सकता है। युद्धभूमि, जहाँ धनजन की हानि होती है। पशु भी मारे जाते हैं। हजारोंलाखों विधवाएँ अपना जीवन विलाप कर ही बिताने के लिए बाध्य होती हैं। विध्वंसहीविध्वंस। निर्माण नहीं। रचना नहीं। मेरे मानस का प्रवाह मेरे पति की मनःस्थिति से बिलकुल विपरीत दिशा में हो रहा था। मेरे पति और देवर विभीषण को भी मेरे मानस की थाह थी। मेघनाद की जयघोष का उच्च स्वर था। सर्वत्र उत्साह और प्रसन्नता का वातावरण। मैं ही क्यों अवसाद में डूबी जा रही थी। मैंने मन को समझाया। दृढ़ किया। वर्तमान में जीने का संकल्प लिया। भूत और भविष्य की वीथियों में चलचलकर थक गया था मन। इसीलिए तो वर्तमान में लौटना थोड़ा सुखद लगा। —इसी उपन्यास से एक ऐतिहासिक कथा की सशक्त महिला पात्र मंदोदरी की वीरता, विद्वता और व्यावहारिकता आधारित जीवन संघर्ष को उकेरकर आज जल, थल, नभ पर कदम रखती युवतियों के लिए आदर्श गढ़ती संवेदनशील लेखनी का प्रयास है —परितप्त लंकेश्वरी।.

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Description

मेरी आँखें बंद हो गईं। कान भी आगे कुछ सुनने को तैयार नहीं थे। युद्ध, युद्ध, युद्ध। केवल युद्ध की तैयारी। यह कैसा वरदान। ब्रह्मा ने इस संसार की रचना की है। महेश इसके प्रतिपालक हैं। फिर अपने भक्तों को ऐसे वरदान क्यों देते हैं जो उनकी बसाई दुनिया को समाप्त करने की मनोकामना रखता हो? मेरे पुत्र को मिले वरदानों का उपयोग मात्र युद्धभूमि में ही हो सकता है। युद्धभूमि, जहाँ धनजन की हानि होती है। पशु भी मारे जाते हैं। हजारोंलाखों विधवाएँ अपना जीवन विलाप कर ही बिताने के लिए बाध्य होती हैं। विध्वंसहीविध्वंस। निर्माण नहीं। रचना नहीं। मेरे मानस का प्रवाह मेरे पति की मनःस्थिति से बिलकुल विपरीत दिशा में हो रहा था। मेरे पति और देवर विभीषण को भी मेरे मानस की थाह थी। मेघनाद की जयघोष का उच्च स्वर था। सर्वत्र उत्साह और प्रसन्नता का वातावरण। मैं ही क्यों अवसाद में डूबी जा रही थी। मैंने मन को समझाया। दृढ़ किया। वर्तमान में जीने का संकल्प लिया। भूत और भविष्य की वीथियों में चलचलकर थक गया था मन। इसीलिए तो वर्तमान में लौटना थोड़ा सुखद लगा। —इसी उपन्यास से एक ऐतिहासिक कथा की सशक्त महिला पात्र मंदोदरी की वीरता, विद्वता और व्यावहारिकता आधारित जीवन संघर्ष को उकेरकर आज जल, थल, नभ पर कदम रखती युवतियों के लिए आदर्श गढ़ती संवेदनशील लेखनी का प्रयास है —परितप्त लंकेश्वरी।.

About Author

27 नवंबर, 1942 (विवाह पंचमी), छपरा गाँव (बिहार) के एक मध्यम परिवार में जन्म। गाँव के प्रथम शिक्षित पिता की अंतिम संतान। बड़ों की गोद और कंधों से उतरकर पिताजी के टमटम, रिक्शा पर सवारी, आठ वर्ष की उम्र में छात्रावासीय विद्यालय में प्रवेश। 16 वर्ष की आयु में ससुराल पहुँचकर बैलगाड़ी से यात्रा, पति के मंत्री बनने पर 1971 में पहली बार हवाई जहाज की सवारी। 1964 से लेखन प्रारंभ। 1956-57 से प्रारंभ हुई लेखनी की यात्रा कभी रुकती, कभी थमती रही। 1977 में पहली कहानी कादंबिनी' पत्रिका में छपी। तब से लेखनी भी सक्रिय हो गई। विभिन्न विधाओं में लिखती रहीं। गाँव-गरीब की कहानियाँ हैं तो राजघरानों की भी। रधिया की कहानी है तो रजिया और मैरी की भी। लेखनी ने सीता, सावित्री, मंदोदरी के जीवन को खंगाला है, उनमें से आधुनिक बेटियों के लिए जीवन-संबल हूँढ़ा है तो जल, थल और नभ पर पाँव रख रही आज की ओजस्विनियों की गाथाएँ भी हैं।

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