Mauktikam (Kavya Manimala Evam Sambodhi Sootra)

Publisher:
Vani prakashan
| Author:
Muni Vishlyasagar
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
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Vani prakashan
Author:
Muni Vishlyasagar
Language:
Hindi
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Paperback

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192

मौक्तिकम् (काव्य-मणिमाला एवं सम्बोधि-सूत्र) – यथार्थता तो यह है कि कविता का जन्म अन्तर्जगत की गहराई में ही होता है। किन्तु यदि कवि की अभिव्यंजना शब्दों से होती है, और उपसंहार विषयानुरंजन में, तो वह नियमतः स्वानुभाव से एवं समरस सिंचित चिदानन्द से वंचित होगी। शब्दानुगामिनी कविता में जीवन नहीं होता, प्रायः मृतसी होती है। उस काव्य में जीवन रस नहीं होता है। उसके पठन से मनोरंजन का अनुभव भले ही हो जाये, चेतना की प्यास नहीं बुझती। उसमें आत्मरंजन सम्भव नहीं। ऐसी स्थिति में, “जहाँ न जाये रवि, वहाँ पहुँचे कवि” लोकोक्ति अपूर्ण और औपचारिक ही सिद्ध होगी। इसलिए उसमें मौलिकता और परिपूर्णता लाने हेतु कहा जा सकता है, “जहाँ न जाता कवि, वहाँ जाता आत्मानुभवी”। एतावता इस वक्तव्य का, काव्य के गन्तव्य का मन्तव्य इतना है कि कविता से श्रेष्ठ, स्वानुभाविता ही मौलिक है; स्वभाव है। ऊर्ध्वता का यही आयाम और प्रगतिशीलता का यही उपादान है, यही उपादेय भी। यह सब मेरे जीवन स्रष्टा मोक्षमार्गोपदेष्टा मेरी ज्योति, मेरी आस्था, मेरी श्वाँस, मेरे आस, मेरे परम विश्वास, मेरे रास्ता, जिनसे मुमुक्षुओं को है वास्ता, मम ‘गुरुवर’ जगत् वन्द्य परमपूज्य आचार्य प्रवर श्रीविरागसागरजी महाराज के परम प्रसाद का विपाक-परिपाक है; उसी सिन्धु की बिन्दु है। उनके वरदहस्त में अणु को विराट् और बिन्दु को सिन्धु बनते देखा है, गागर को सागर, किंकर को तीर्थंकर होने की आभा दृष्टिगोचर होती है। अतः, उन्हीं की आशीष आभा ‘भरा बूँद से सागर’ का समर्पण त्रयभक्ति पूर्वक अनन्तशः नमन-वन्दन सहित ‘गुरुवर’ के करकमलों में समर्पित। – मुनि विशल्यसागर

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मौक्तिकम् (काव्य-मणिमाला एवं सम्बोधि-सूत्र) – यथार्थता तो यह है कि कविता का जन्म अन्तर्जगत की गहराई में ही होता है। किन्तु यदि कवि की अभिव्यंजना शब्दों से होती है, और उपसंहार विषयानुरंजन में, तो वह नियमतः स्वानुभाव से एवं समरस सिंचित चिदानन्द से वंचित होगी। शब्दानुगामिनी कविता में जीवन नहीं होता, प्रायः मृतसी होती है। उस काव्य में जीवन रस नहीं होता है। उसके पठन से मनोरंजन का अनुभव भले ही हो जाये, चेतना की प्यास नहीं बुझती। उसमें आत्मरंजन सम्भव नहीं। ऐसी स्थिति में, “जहाँ न जाये रवि, वहाँ पहुँचे कवि” लोकोक्ति अपूर्ण और औपचारिक ही सिद्ध होगी। इसलिए उसमें मौलिकता और परिपूर्णता लाने हेतु कहा जा सकता है, “जहाँ न जाता कवि, वहाँ जाता आत्मानुभवी”। एतावता इस वक्तव्य का, काव्य के गन्तव्य का मन्तव्य इतना है कि कविता से श्रेष्ठ, स्वानुभाविता ही मौलिक है; स्वभाव है। ऊर्ध्वता का यही आयाम और प्रगतिशीलता का यही उपादान है, यही उपादेय भी। यह सब मेरे जीवन स्रष्टा मोक्षमार्गोपदेष्टा मेरी ज्योति, मेरी आस्था, मेरी श्वाँस, मेरे आस, मेरे परम विश्वास, मेरे रास्ता, जिनसे मुमुक्षुओं को है वास्ता, मम ‘गुरुवर’ जगत् वन्द्य परमपूज्य आचार्य प्रवर श्रीविरागसागरजी महाराज के परम प्रसाद का विपाक-परिपाक है; उसी सिन्धु की बिन्दु है। उनके वरदहस्त में अणु को विराट् और बिन्दु को सिन्धु बनते देखा है, गागर को सागर, किंकर को तीर्थंकर होने की आभा दृष्टिगोचर होती है। अतः, उन्हीं की आशीष आभा ‘भरा बूँद से सागर’ का समर्पण त्रयभक्ति पूर्वक अनन्तशः नमन-वन्दन सहित ‘गुरुवर’ के करकमलों में समर्पित। – मुनि विशल्यसागर

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