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Mallika ka Rachna Sansar (HB)
Publisher:
Rajkamal
| Author:
VASUDHA DALMIYA
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Rajkamal
Author:
VASUDHA DALMIYA
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹595 ₹417
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ISBN:
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9789390971930
Category Hindi
Category: Hindi
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औरतों के प्रति जब कभी पुरानी धारणा की मुठभेड़ आधुनिकता से होती है, तो भारतीय मन मनुष्य और समाज को पुरुषार्थ के उजाले में देखने-दिखाने के लिए मुड़ जाता है। पर हमारी परम्परा में पुरुषार्थ की साधना वही कर सकता है जो स्वतंत्र हो। और स्त्री की बाबत स्मृतियों की राय यही है कि वह बुद्धि और विवेक से रहित है। इसलिए वह स्वतंत्र हुई तो स्वैराचारिणी बनी। बेहतर हो वह पराश्रयी बन कर रहे। प्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु की रक्षिता मल्लिका का निजी जीवन और उनका यह दुर्लभ कृतित्व इस धारणा को उसी के धरातल में जाकर प्रखर चुनौती देता है। काशी के एक सम्पन्न परिवार के कुलदीपक की रक्षिता यह बांग्ला मूल की महिला 19वीं सदी के समाज में सामाजिक स्वीकार से वंचित रहीं। फिर भी उनकी नैसर्गिक प्रतिभा और कुछ हद तक भारतेन्दु के साथ रहते हुए उस प्रतिभा के निरन्तर परिष्कार से वह अपने समय के समाज में स्त्री जाति की असली दशा, विशेषकर युवा विधवाओं और किसी भी वजह से समाज की डार से बिछड़ गई औरतों की दुनिया पर निडर रचनात्मक नज़र डाल सकीं। यह आज भी विरल है, तब के युग में तो वह दुर्लभ ही था।
—मृणाल पाण्डे
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Description
औरतों के प्रति जब कभी पुरानी धारणा की मुठभेड़ आधुनिकता से होती है, तो भारतीय मन मनुष्य और समाज को पुरुषार्थ के उजाले में देखने-दिखाने के लिए मुड़ जाता है। पर हमारी परम्परा में पुरुषार्थ की साधना वही कर सकता है जो स्वतंत्र हो। और स्त्री की बाबत स्मृतियों की राय यही है कि वह बुद्धि और विवेक से रहित है। इसलिए वह स्वतंत्र हुई तो स्वैराचारिणी बनी। बेहतर हो वह पराश्रयी बन कर रहे। प्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु की रक्षिता मल्लिका का निजी जीवन और उनका यह दुर्लभ कृतित्व इस धारणा को उसी के धरातल में जाकर प्रखर चुनौती देता है। काशी के एक सम्पन्न परिवार के कुलदीपक की रक्षिता यह बांग्ला मूल की महिला 19वीं सदी के समाज में सामाजिक स्वीकार से वंचित रहीं। फिर भी उनकी नैसर्गिक प्रतिभा और कुछ हद तक भारतेन्दु के साथ रहते हुए उस प्रतिभा के निरन्तर परिष्कार से वह अपने समय के समाज में स्त्री जाति की असली दशा, विशेषकर युवा विधवाओं और किसी भी वजह से समाज की डार से बिछड़ गई औरतों की दुनिया पर निडर रचनात्मक नज़र डाल सकीं। यह आज भी विरल है, तब के युग में तो वह दुर्लभ ही था।
—मृणाल पाण्डे
About Author
वसुधा डालमिया
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से जर्मन साहित्य में और यूनिवर्सिटी ऑफ़ हाइडेलबर्ग से इंडोलॉजी तथा हिन्दी साहित्य में शोध करने के बाद लम्बे समय तक यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, बर्कले में हिन्दी और साउथ एशियन स्टडीज़ की प्रोफ़ेसर रहीं। उसके बाद येल यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट ऑफ़ रिलीजियस स्टडीज़ के अन्तर्गत चन्द्रिका एंड रंजन टंडन प्रोफ़ेसर ऑफ़ हिन्दू स्टडीज़ के पद पर कार्य किया। ‘दि नेशनलाइज़ेशन ऑफ़ हिन्दू ट्रेडिशंस : भारतेन्दु हरिश्चन्द्र एंड नाइन्टींथ सेंचुरी बनारस', ‘पोएटिक्स, प्लेज़र एंड परफ़ॉर्मेंसेज़ : दि पॉलिटिक्स ऑफ़ मॉडर्न इंडियन थियेटर', ‘हिन्दू पास्ट्स : वीमेन, रिलीजन, हिस्ट्रीज़' उनकी चर्चित पुस्तकें हैं। सम्पादित पुस्तकों की लम्बी फेहरिस्त में से हाल के वर्षों की पुस्तकें हैं : 'रिलीजियस इंटरैक्शंस इन मुग़ल इंडिया', ‘बालाबोधिनी' (हिन्दी में), ‘कैम्ब्रिज कॉम्पैनियन टु मॉडर्न इंडियन कल्चर', ‘हिन्दी मॉडर्निज़्म : रीथिंकिंग अज्ञेय एंड हिज़ टाइम्स' इत्यादि।
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