Lekhak Ka Jantantra (HB)

Publisher:
Rajkamal
| Author:
Krishna Sobti
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Rajkamal
Author:
Krishna Sobti
Language:
Hindi
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Hardback

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कृष्णा सोबती के लिए लेखक की पहचान एक साधारण नागरिक का बस थोड़ा-सा विशेष हो जाना है। समाज की मंथर लेकिन गहरी और शक्तिशाली धारा में अपनी क़ीमत पर पैर जमाकर खड़ा हुआ एक व्यक्ति जो जीवन को जीते हुए उसे देखने की कोशिश भी करता है। उनके अनुसार लेखक का काम अपनी अन्तरभाषा को चीन्हते और सँवारते हुए अज्ञात दूरियों को निकटताओं में ध्वनित करना है।
लेखक की इस पहचान को स्वयं उन्होंने जिस अकुंठ निष्ठा और मौन संकल्प के साथ जिया, उसके आयाम ऐतिहासिक हैं। उनका लेखक सिर्फ़ लिखता नहीं रहा, उसने अपनी सामाजिक, राजनैतिक और नागरिक ज़िम्मेदारियों का आविष्कार भी किया और लेखकीय अस्तित्व के सहज विस्तार के रूप में उन्हें स्थापित भी किया।
उन्होंने कई बार पुरस्कारों और सम्मानों को लेने से इनकार किया, क्योंकि वह उन्हें लेखक होने की हैसियत से ज़रूरी लगा। उन्होंने दशकों-दशक एक सम्पूर्ण रचना के अवतरण की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की,  क्योंकि लेखक होने की उनकी अपनी कसौटी बहुत ऊँची और कठोर रही। लेखक के रूप में अपने युवा दिनों में ही उन्होंने अपने पहले और बड़े उपन्यास को एक प्रतिष्ठित प्रकाशक से छपाई के बीच में ही इसलिए वापस ले लिया कि उन्हें अपनी भाषा से खिलवाड़ स्वीकार नहीं था। उन्होंने जीवन के लगभग तीन दशक कॉपीराइट की सुरक्षा के लिए लोकप्रियता और राजनीतिक पहुँच की धनी ताक़तों से अकेले अदालती लड़ाई लड़ी।
और आज उन्हें अपने स्वास्थ्य से ज़्यादा चिन्ता इस बात की है कि सत्तर साल की आज़ादी के बाद देश फिर एक ख़तरनाक मोड़ पर है। वे रात-दिन सोचती हैं कि भेदभाव की राजनीति के चलते जैसे उन्हें 1947 में विभाजन की विभीषिका से गुज़रना पड़ा, कहीं आज की राजनीति वही समय आज के बच्चों के लिए न लौटा लाए! मौजूदा सरकार की राजनीतिक और वैचारिक संकीर्णताएँ उन्हें एक सात्त्विक क्रोध से भर देती हैं जिसमें पूरी सदी छटपटाती दिखाई पड़ती है।
इस पुस्तक में हमने उनके कुछ चुनिन्दा साक्षात्कारों को संकलित किया है जो अलग-अलग कालखंडों में अलग-अलग आयु और भिन्न अनुशासनों के लेखकों, पत्रकारों और विचारकों ने उनसे किए। पाठक इन्हें पढ़कर स्वयं महसूस करेगा कि साहित्य की, लेखक की और नागरिक की मुकम्मल तस्वीर कैसे बनती है।

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Description

कृष्णा सोबती के लिए लेखक की पहचान एक साधारण नागरिक का बस थोड़ा-सा विशेष हो जाना है। समाज की मंथर लेकिन गहरी और शक्तिशाली धारा में अपनी क़ीमत पर पैर जमाकर खड़ा हुआ एक व्यक्ति जो जीवन को जीते हुए उसे देखने की कोशिश भी करता है। उनके अनुसार लेखक का काम अपनी अन्तरभाषा को चीन्हते और सँवारते हुए अज्ञात दूरियों को निकटताओं में ध्वनित करना है।
लेखक की इस पहचान को स्वयं उन्होंने जिस अकुंठ निष्ठा और मौन संकल्प के साथ जिया, उसके आयाम ऐतिहासिक हैं। उनका लेखक सिर्फ़ लिखता नहीं रहा, उसने अपनी सामाजिक, राजनैतिक और नागरिक ज़िम्मेदारियों का आविष्कार भी किया और लेखकीय अस्तित्व के सहज विस्तार के रूप में उन्हें स्थापित भी किया।
उन्होंने कई बार पुरस्कारों और सम्मानों को लेने से इनकार किया, क्योंकि वह उन्हें लेखक होने की हैसियत से ज़रूरी लगा। उन्होंने दशकों-दशक एक सम्पूर्ण रचना के अवतरण की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की,  क्योंकि लेखक होने की उनकी अपनी कसौटी बहुत ऊँची और कठोर रही। लेखक के रूप में अपने युवा दिनों में ही उन्होंने अपने पहले और बड़े उपन्यास को एक प्रतिष्ठित प्रकाशक से छपाई के बीच में ही इसलिए वापस ले लिया कि उन्हें अपनी भाषा से खिलवाड़ स्वीकार नहीं था। उन्होंने जीवन के लगभग तीन दशक कॉपीराइट की सुरक्षा के लिए लोकप्रियता और राजनीतिक पहुँच की धनी ताक़तों से अकेले अदालती लड़ाई लड़ी।
और आज उन्हें अपने स्वास्थ्य से ज़्यादा चिन्ता इस बात की है कि सत्तर साल की आज़ादी के बाद देश फिर एक ख़तरनाक मोड़ पर है। वे रात-दिन सोचती हैं कि भेदभाव की राजनीति के चलते जैसे उन्हें 1947 में विभाजन की विभीषिका से गुज़रना पड़ा, कहीं आज की राजनीति वही समय आज के बच्चों के लिए न लौटा लाए! मौजूदा सरकार की राजनीतिक और वैचारिक संकीर्णताएँ उन्हें एक सात्त्विक क्रोध से भर देती हैं जिसमें पूरी सदी छटपटाती दिखाई पड़ती है।
इस पुस्तक में हमने उनके कुछ चुनिन्दा साक्षात्कारों को संकलित किया है जो अलग-अलग कालखंडों में अलग-अलग आयु और भिन्न अनुशासनों के लेखकों, पत्रकारों और विचारकों ने उनसे किए। पाठक इन्हें पढ़कर स्वयं महसूस करेगा कि साहित्य की, लेखक की और नागरिक की मुकम्मल तस्वीर कैसे बनती है।

About Author

कृष्णा सोबती

कृष्णा सोबती का जन्म 18 फरवरी, 1925 को गुजरात के उस हिस्से में हुआ जो अब पाकिस्तान में है। अपनी लम्बी साहित्यिक यात्रा में कृष्णा सोबती ने हर नई कृति के साथ अपनी क्षमताओं का अतिक्रमण किया। निकष में विशेष कृति के रूप में प्रकाशित डार से बिछुड़ी से लेकर मित्रो मरजानी, यारों के यार, तिन पहाड़, बादलों के घेरे, सूरजमुखी अँधेरे के, ज़िन्दगीनामा, ऐ लड़की, दिलो-दानिश, गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान, चन्ना, हम हशमत, समय सरगम, शब्दों के आलोक में, जैनी मेहरबान सिंह, सोबती-वैद संवाद, लद्दाख : बुद्ध का कमण्डल, मुक्तिबोध : एक व्यक्तित्व सही की तलाश में, लेखक का जनतंत्र और मार्फ़त दिल्ली तक उनकी रचनात्मकता ने जो बौद्धिक उत्तेजना, आलोचनात्मक विमर्श, सामाजिक और नैतिक बहसें साहित्य-संसार में पैदा कीं, उनकी अनुगूँज पाठकों में बराबर बनी रही।

ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादेमी पुरस्कार और साहित्य अकादेमी की महत्तर सदस्यता के अतिरिक्त अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों और अलंकरणों से शोभित कृष्णा सोबती कम लिखने को ही अपना परिचय मानती थीं, जिसे स्पष्ट इस तरह किया जा सकता है कि उनका ‘कम लिखना’ दरअसल ‘विशिष्ट’ लिखना था।

निधन 25 जनवरी, 2019 को दिल्ली में हुआ।

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