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Lajja Taslima Nasrin Translated By Munmun Sarkar
Publisher:
Vani prakashan
| Author:
Taslima Nasrin Translated By Munmun Sarkar
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Vani prakashan
Author:
Taslima Nasrin Translated By Munmun Sarkar
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹300 ₹210
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10-12 Days
In stock
Weight | 400 g |
---|---|
Book Type |
ISBN:
SKU
9789350729151
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
184
लज्जा – एक नयी कथाभूमि ‘लज्जा’ बांग्लादेश की बहुचर्चित लेखिका तसलीमा नसरीन का पाँचवा उपन्यास है। इस उपन्यास ने न केवल बांग्लादेश में हलचल मचा दी है, बल्कि भारत में भी व्यापक उत्ताप की सृष्टि की है। यही वह उत्तेजक कृति है, जिसके लिए लेखिका को बांग्लादेश की कट्टरवादी साम्प्रदायिक ताक़तों ने सज़ा-ए-मौत की घोषणा की है। दिलचस्प यह है कि सीमा के इस पार की साम्प्रदायिक ताक़तों ने इसे ही सिर-माथे लगाया। कारण? क्योंकि यह उपन्यास बहुत ही शक्तिशाली ढंग से बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करता है और उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण करता है जो एक लम्बे अरसे से बांग्लादेशी हिन्दुओं की नियति बन चुका है। हमारे देश की हिन्दूवादी शक्तियों ने ‘लज्जा’ को मुस्लिम आक्रामकता के प्रमाण के रूप में पेश करना चाहा है, लेकिन वस्तुतः ‘लज्जा’ एक दुधारी तलवार है। यह मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर जितनी तालखी से आक्रमण करता है उतनी ही तीव्रता से हिन्दू साम्प्रदायिकता की परतें भी उघाड़ता है। वस्तुतः यह पुस्तक साम्प्रदायिकता मात्र के विरुद्ध है और यही उसकी ख़ूबसूरती है। ‘लज्जा’ की शुरुआत होती है 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़े जाने पर बांग्लादेश के मुसलमानों की आक्रामक प्रतिक्रिया से वे अपने हिन्दू भाई-बहनों पर टूट पड़ते हैं और उनके सैकड़ों धर्मस्थलों को नष्ट कर देते हैं। लेकिन इस अत्याचार, लूट, बलात्कार और मन्दिर ध्वंस के लिए वस्तुतः ज़िम्मेदार कौन है? कहना न कि भारत के वे हिन्दूवादी संगठन जिन्होंने बाबरी मस्जिद का ध्वंस कर प्रतिशोध की राजनीति का खूँखार चेहरा दुनिया के सामने रखा। वे भूल गये कि जिस तरह भारत में मुसलमान अल्पसंख्यक हैं, उसी तरह पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। लेखिका ने ठीक ही पहचाना है कि भारत कोई विच्छिन्न ‘जम्बूद्वीप’ नहीं है। भारत में यदि विष फोड़े का जन्म होता है, तो उसका दर्द सिर्फ़ भारत को ही नहीं भोगना पड़ेगा, बल्कि वह दर्द समूची दुनिया में, कम-से-कम पड़ोसी देशों में तो सबसे पहले फैल जायेगा। क्यों? क्योंकि इस पूरे उपमहादेश की आत्मा एक है, यहाँ के नागरिकों का एक साझा इतिहास और एक साझा भविष्य है। अतः एक जगह की घटनाओं का असर दूसरी जगह पर पड़ेगा ही। अतः हम सभी को एक-दूसरे की संवेदनशीलता का खयाल रखना चाहिए और एक प्रेम तथा सौहार्दपूर्ण समाज की रचना करनी चाहिए। ऐसे समाज में ही हिन्दू, मुसलमान तथा अन्य सभी समुदायों के लोग सुख और शान्ति से रह सकते हैं। प्रेम घृणा से अधिक संक्रामक होता है। लेकिन बांग्लादेश का यह ताजा उन्माद क्या सिर्फ़ बाबरी मस्जिद टूटने की प्रतिक्रिया भर थी? नहीं। तसलीमा की विवेक दृष्टि और दूर तक जाती है। ये यह दिखाने की कोशिश करती हैं कि इसका सम्बन्ध मूलतः धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल से है। यद्यपि पाकिस्तान का निर्माण होने के बाद क़ायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ने घोषणा की थी कि धर्म नहीं जातीयता ही किसी समुदाय को एक रख सकती है, लेकिन पाकिस्तान के दृष्टिहीन शासकों ने इस आदर्श को तिलांजलि दे दी और वे पाकिस्तान को एक मुस्लिम राष्ट्र बनाने पर तुल गये लेकिन क्या धर्म का बन्धन पाकिस्तान को एक रख सका? बांग्लादेश का मुक्ति संग्राम एक सर्वथा सेकुलर संघर्ष था किन्तु सेकुलरवाद का यही आदर्श स्वतन्त्र बांग्लादेश में भी ज़्यादा दिन टिक नहीं सका। वहाँ भी, पाकिस्तान की तरह ही धर्मतान्त्रिक राज्य बनाने की आधार्मिक कोशिश की गयी। नतीजा यह हुआ कि बांग्लादेश में एक बदसूरत आग फिर सुलग उठी, जिसके कारण पहले के दशकों में लाखों हिन्दुओं को देश-त्याग करना पड़ा था। संकेत स्पष्ट है जब भी धर्म और राजनीति का अनुचित सम्मिश्रण होगा, समाज में तरह-तरह की बर्बरताएँ फैलेंगी। तसलीमा नसरीन मूलतः नारीवादी लेखिका हैं। वे स्त्री की पूर्ण स्वाधीनता की प्रखर पक्षधर हैं। अपने अनुभवों से वे यह अच्छी तरह जानती हैं कि स्त्री के साथ होने वाला अन्याय व्यापक अन्याय का ही अंग है। इसीलिए वे यह भी देख सकीं कि कट्टरतावाद सिर्फ़ अल्पसंख्यकों का ही विनाश नहीं करता, बल्कि बहुसंख्यकों का जीवन भी दूषित कर देता है। कठमुल्ले पंडित और मोलवी जीवन के हर क्षेत्र को विकृत करना चाहते हैं। सुरंजन और परवीन एक-दूसरे को प्यार करते हुए भी विवाह के बन्धन में नहीं बँध सके, क्योंकि दोनों के बीच धर्म की दीवार थी और माहौल धर्मोन्माद से भरा हुआ था। धर्मोन्माद के माहौल में सबसे ज़्यादा कहर स्त्री पर ही टूटता है, उसे तरह-तरह से सीमित और प्रताड़ित किया जाता है। सुरंजन बहन माया का अपहरण करने वाले क्या किसी धार्मिक आदर्श पर चल रहे थे? उपन्यास का अन्त एक तरह की हताशा से भरा हुआ है और यह हताशा सिर्फ सुरंजन के आस्थावान पिता सुधामय की नहीं, हम सबकी लज्जा है, क्योंकि हम अब भी इस उपमहादेश में एक मानवीय समाज नहीं बना पाये हैं। यह एक नये ढंग का उपन्यास है। कथा के साथ रिपोर्ताज़ और टिप्पणी का सिलसिला भी चलता रहता है। इसीलिए यह हमें सिर्फ़ भिगोता नहीं, सोचने-विचारने की पर्याप्त सामग्री भी मुहैया करता है। कहानी और तथ्य उपन्यास में उसी तरह घुले-मिले हुए हैं, जिस तरह कल्पना और यथार्थ जीवन में आशा है, तसलीमा की यह विचारोत्तेजक कृति हिन्दी पाठक को न केवल एक नयी कथाभूमि से परिचित करायेगी, बल्कि उसे एक नया •विचार संस्कार भी देगी। -राजकिशोर “बहुसंख्यकों के आतंक के नीचे अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की समस्या है ‘लज्जा’, जिसे बांग्लादेश के ही सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए जहाँ मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं।” -राजेन्द्र यादव “‘लज्जा’ को जो सिर्फ़ एक उपन्यास या साहित्यिक कृति मान कर पढ़ेंगे, वे यह समझ पाने से चूक जायेंगे कि ‘लज्जा’ भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित दक्षिण एशियाई देशों की राजनीतिक और धार्मिक सत्ताओं के सामने एक विचलित और अपनी अन्तरात्मा तक विचलित अकेली स्त्री की गहरी मानवीय, आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और निडर आवाज़ है। किसी ईश्वर, पैगम्बर, धर्म या पुरानी आस्थाओं और मिथकों के नाम पर आज तक चलाये जा रहे मध्यकालीन निरंकुश सत्ताओं के किसी दुःस्वप्न जैसे अमानवीय कारनामों के बरक्स यह उस उपमहाद्वीप की उत्पीड़ित मानवीय नागरिकता की एक विकल और ग़ुस्से में भरी चीख़ है। ‘लज्जा’ कुफ़्र नहीं, करुणा का मार्मिक और निर्भय दस्तावेज़ है।” -उदय प्रकाश
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Description
लज्जा – एक नयी कथाभूमि ‘लज्जा’ बांग्लादेश की बहुचर्चित लेखिका तसलीमा नसरीन का पाँचवा उपन्यास है। इस उपन्यास ने न केवल बांग्लादेश में हलचल मचा दी है, बल्कि भारत में भी व्यापक उत्ताप की सृष्टि की है। यही वह उत्तेजक कृति है, जिसके लिए लेखिका को बांग्लादेश की कट्टरवादी साम्प्रदायिक ताक़तों ने सज़ा-ए-मौत की घोषणा की है। दिलचस्प यह है कि सीमा के इस पार की साम्प्रदायिक ताक़तों ने इसे ही सिर-माथे लगाया। कारण? क्योंकि यह उपन्यास बहुत ही शक्तिशाली ढंग से बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करता है और उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण करता है जो एक लम्बे अरसे से बांग्लादेशी हिन्दुओं की नियति बन चुका है। हमारे देश की हिन्दूवादी शक्तियों ने ‘लज्जा’ को मुस्लिम आक्रामकता के प्रमाण के रूप में पेश करना चाहा है, लेकिन वस्तुतः ‘लज्जा’ एक दुधारी तलवार है। यह मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर जितनी तालखी से आक्रमण करता है उतनी ही तीव्रता से हिन्दू साम्प्रदायिकता की परतें भी उघाड़ता है। वस्तुतः यह पुस्तक साम्प्रदायिकता मात्र के विरुद्ध है और यही उसकी ख़ूबसूरती है। ‘लज्जा’ की शुरुआत होती है 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़े जाने पर बांग्लादेश के मुसलमानों की आक्रामक प्रतिक्रिया से वे अपने हिन्दू भाई-बहनों पर टूट पड़ते हैं और उनके सैकड़ों धर्मस्थलों को नष्ट कर देते हैं। लेकिन इस अत्याचार, लूट, बलात्कार और मन्दिर ध्वंस के लिए वस्तुतः ज़िम्मेदार कौन है? कहना न कि भारत के वे हिन्दूवादी संगठन जिन्होंने बाबरी मस्जिद का ध्वंस कर प्रतिशोध की राजनीति का खूँखार चेहरा दुनिया के सामने रखा। वे भूल गये कि जिस तरह भारत में मुसलमान अल्पसंख्यक हैं, उसी तरह पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। लेखिका ने ठीक ही पहचाना है कि भारत कोई विच्छिन्न ‘जम्बूद्वीप’ नहीं है। भारत में यदि विष फोड़े का जन्म होता है, तो उसका दर्द सिर्फ़ भारत को ही नहीं भोगना पड़ेगा, बल्कि वह दर्द समूची दुनिया में, कम-से-कम पड़ोसी देशों में तो सबसे पहले फैल जायेगा। क्यों? क्योंकि इस पूरे उपमहादेश की आत्मा एक है, यहाँ के नागरिकों का एक साझा इतिहास और एक साझा भविष्य है। अतः एक जगह की घटनाओं का असर दूसरी जगह पर पड़ेगा ही। अतः हम सभी को एक-दूसरे की संवेदनशीलता का खयाल रखना चाहिए और एक प्रेम तथा सौहार्दपूर्ण समाज की रचना करनी चाहिए। ऐसे समाज में ही हिन्दू, मुसलमान तथा अन्य सभी समुदायों के लोग सुख और शान्ति से रह सकते हैं। प्रेम घृणा से अधिक संक्रामक होता है। लेकिन बांग्लादेश का यह ताजा उन्माद क्या सिर्फ़ बाबरी मस्जिद टूटने की प्रतिक्रिया भर थी? नहीं। तसलीमा की विवेक दृष्टि और दूर तक जाती है। ये यह दिखाने की कोशिश करती हैं कि इसका सम्बन्ध मूलतः धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल से है। यद्यपि पाकिस्तान का निर्माण होने के बाद क़ायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ने घोषणा की थी कि धर्म नहीं जातीयता ही किसी समुदाय को एक रख सकती है, लेकिन पाकिस्तान के दृष्टिहीन शासकों ने इस आदर्श को तिलांजलि दे दी और वे पाकिस्तान को एक मुस्लिम राष्ट्र बनाने पर तुल गये लेकिन क्या धर्म का बन्धन पाकिस्तान को एक रख सका? बांग्लादेश का मुक्ति संग्राम एक सर्वथा सेकुलर संघर्ष था किन्तु सेकुलरवाद का यही आदर्श स्वतन्त्र बांग्लादेश में भी ज़्यादा दिन टिक नहीं सका। वहाँ भी, पाकिस्तान की तरह ही धर्मतान्त्रिक राज्य बनाने की आधार्मिक कोशिश की गयी। नतीजा यह हुआ कि बांग्लादेश में एक बदसूरत आग फिर सुलग उठी, जिसके कारण पहले के दशकों में लाखों हिन्दुओं को देश-त्याग करना पड़ा था। संकेत स्पष्ट है जब भी धर्म और राजनीति का अनुचित सम्मिश्रण होगा, समाज में तरह-तरह की बर्बरताएँ फैलेंगी। तसलीमा नसरीन मूलतः नारीवादी लेखिका हैं। वे स्त्री की पूर्ण स्वाधीनता की प्रखर पक्षधर हैं। अपने अनुभवों से वे यह अच्छी तरह जानती हैं कि स्त्री के साथ होने वाला अन्याय व्यापक अन्याय का ही अंग है। इसीलिए वे यह भी देख सकीं कि कट्टरतावाद सिर्फ़ अल्पसंख्यकों का ही विनाश नहीं करता, बल्कि बहुसंख्यकों का जीवन भी दूषित कर देता है। कठमुल्ले पंडित और मोलवी जीवन के हर क्षेत्र को विकृत करना चाहते हैं। सुरंजन और परवीन एक-दूसरे को प्यार करते हुए भी विवाह के बन्धन में नहीं बँध सके, क्योंकि दोनों के बीच धर्म की दीवार थी और माहौल धर्मोन्माद से भरा हुआ था। धर्मोन्माद के माहौल में सबसे ज़्यादा कहर स्त्री पर ही टूटता है, उसे तरह-तरह से सीमित और प्रताड़ित किया जाता है। सुरंजन बहन माया का अपहरण करने वाले क्या किसी धार्मिक आदर्श पर चल रहे थे? उपन्यास का अन्त एक तरह की हताशा से भरा हुआ है और यह हताशा सिर्फ सुरंजन के आस्थावान पिता सुधामय की नहीं, हम सबकी लज्जा है, क्योंकि हम अब भी इस उपमहादेश में एक मानवीय समाज नहीं बना पाये हैं। यह एक नये ढंग का उपन्यास है। कथा के साथ रिपोर्ताज़ और टिप्पणी का सिलसिला भी चलता रहता है। इसीलिए यह हमें सिर्फ़ भिगोता नहीं, सोचने-विचारने की पर्याप्त सामग्री भी मुहैया करता है। कहानी और तथ्य उपन्यास में उसी तरह घुले-मिले हुए हैं, जिस तरह कल्पना और यथार्थ जीवन में आशा है, तसलीमा की यह विचारोत्तेजक कृति हिन्दी पाठक को न केवल एक नयी कथाभूमि से परिचित करायेगी, बल्कि उसे एक नया •विचार संस्कार भी देगी। -राजकिशोर “बहुसंख्यकों के आतंक के नीचे अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की समस्या है ‘लज्जा’, जिसे बांग्लादेश के ही सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए जहाँ मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं।” -राजेन्द्र यादव “‘लज्जा’ को जो सिर्फ़ एक उपन्यास या साहित्यिक कृति मान कर पढ़ेंगे, वे यह समझ पाने से चूक जायेंगे कि ‘लज्जा’ भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित दक्षिण एशियाई देशों की राजनीतिक और धार्मिक सत्ताओं के सामने एक विचलित और अपनी अन्तरात्मा तक विचलित अकेली स्त्री की गहरी मानवीय, आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और निडर आवाज़ है। किसी ईश्वर, पैगम्बर, धर्म या पुरानी आस्थाओं और मिथकों के नाम पर आज तक चलाये जा रहे मध्यकालीन निरंकुश सत्ताओं के किसी दुःस्वप्न जैसे अमानवीय कारनामों के बरक्स यह उस उपमहाद्वीप की उत्पीड़ित मानवीय नागरिकता की एक विकल और ग़ुस्से में भरी चीख़ है। ‘लज्जा’ कुफ़्र नहीं, करुणा का मार्मिक और निर्भय दस्तावेज़ है।” -उदय प्रकाश
About Author
तसलीमा नसरीन का जीवन संघर्षों का एक अनन्त सिलसिला है और उनका साहित्य उन तमाम संघर्षों की एक अन्तहीन दास्तान। अपने लेखन के जरिये उन्होंने संघर्ष, विद्रोह और मुक्ति की पुकार को एकाकार कर दिया है। जीवन में जो कुछ भी वर्जित, घृणित और उपेक्षित है, तसलीमा अपने साहित्य में उन सबको एक उदात्त आयाम देकर प्रस्तुत करती हैं। तसलीमा को पढने के बाद पाठक अपने आप को एक वीभत्स यथार्थ के सामने पाता है और उसका नजरिया बदलने लगता है। तसलीमा फेमिनिज्म के बने-बनाए ढाँचों को तोड़कर हमारे सामने उसका एक अलग पाठ प्रस्तुत करती हैं। तसलीमा के समूचे कथा-साहित्य और आत्मकथा-साहित्य में एक आवेग है और एक त्वरा है। चाहे वह 'लज्जा' हो, 'फेरा' हो, 'मेरे बचपन के दिन', 'उत्ताल हवा' या 'द्विखंडित' हो। तसलीमा औरत के हक़ में कुछ गद्य, कुछ पद्य भी लिखती हैं और कहती हैं कि 'औरत का कोई देश नहीं' होता। तसलीमा का लेखन एक हमेशा धधकते रहने वाली एक मशाल की तरह है जिसकी चिंगारियाँ स्त्री-मुक्ति की राहों को रौशन करती रहती हैं।
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