Krishnavtar : Vol. 4 : Mahabali Bheem (HB)

Publisher:
Rajkamal
| Author:
K. M. Munshi
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Rajkamal
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K. M. Munshi
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Hindi
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कोई द्रष्टा साहित्यकार जब इतिहास को देखता है तो उसे उसकी समग्रता में दिखाता भी है, और ऐतिहासिक-पौराणिक चरित्रों को आधार बनाकर गुजराती में अनेक श्रेष्ठ उपन्यासों की रचना करनेवाले सुविख्यात उपन्यासकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी भारतीय कथा-साहित्य में ऐसे ही द्रष्टा साहित्यकार के रूप में समादृत हैं।
‘कृष्णावतार’ मुंशी जी की कई खंडों में प्रकाशित और कई भाषाओं में अनूदित बृहत् औपन्यासिक कृति है। ‘महाबली भीम’ इसका चौथा खंड है।
महाभारतकालीन योद्धाओं में भीम का चरित्र सर्वाधिक रोमांचक है और इस खंड में उसके विभिन्न आयामों का अविस्मरणीय अंकन हुआ है। यों समूचे उपन्यास की तरह यह खंड भी कृष्ण-सरीखे नीतिज्ञ और महायोद्धा की उपस्थिति से अछूता नहीं है, पर द्रौपदी-स्वयंवर से महाभारत युद्ध-पर्व तक का राजनीतिक परिदृश्य भीम से जिस तरह अनुप्राणित है, उससे उसका रुक्ष और कोमल, विनोदी और गम्भीर तथा सर्वोपरि यौद्धेय स्वभाव मुग्धकारी रूप में सामने आता है। साथ ही तत्कालीन राजनीति को समाज की जिस विस्तृत पटभूमि पर चित्रित किया गया है, उससे पाठक के सामने अनेकानेक सुपरिचित चरित्रों का एक नया ही रूप उद्घाटित होता है और वे अपने साथ जुड़ी तमाम पौराणिकता के बावजूद अपनी ऐतिहासिकता में ज़्यादा वास्तविक और विश्वसनीय लगते हैं।

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Description

कोई द्रष्टा साहित्यकार जब इतिहास को देखता है तो उसे उसकी समग्रता में दिखाता भी है, और ऐतिहासिक-पौराणिक चरित्रों को आधार बनाकर गुजराती में अनेक श्रेष्ठ उपन्यासों की रचना करनेवाले सुविख्यात उपन्यासकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी भारतीय कथा-साहित्य में ऐसे ही द्रष्टा साहित्यकार के रूप में समादृत हैं।
‘कृष्णावतार’ मुंशी जी की कई खंडों में प्रकाशित और कई भाषाओं में अनूदित बृहत् औपन्यासिक कृति है। ‘महाबली भीम’ इसका चौथा खंड है।
महाभारतकालीन योद्धाओं में भीम का चरित्र सर्वाधिक रोमांचक है और इस खंड में उसके विभिन्न आयामों का अविस्मरणीय अंकन हुआ है। यों समूचे उपन्यास की तरह यह खंड भी कृष्ण-सरीखे नीतिज्ञ और महायोद्धा की उपस्थिति से अछूता नहीं है, पर द्रौपदी-स्वयंवर से महाभारत युद्ध-पर्व तक का राजनीतिक परिदृश्य भीम से जिस तरह अनुप्राणित है, उससे उसका रुक्ष और कोमल, विनोदी और गम्भीर तथा सर्वोपरि यौद्धेय स्वभाव मुग्धकारी रूप में सामने आता है। साथ ही तत्कालीन राजनीति को समाज की जिस विस्तृत पटभूमि पर चित्रित किया गया है, उससे पाठक के सामने अनेकानेक सुपरिचित चरित्रों का एक नया ही रूप उद्घाटित होता है और वे अपने साथ जुड़ी तमाम पौराणिकता के बावजूद अपनी ऐतिहासिकता में ज़्यादा वास्तविक और विश्वसनीय लगते हैं।

About Author

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी

गुजराती के सुप्रसिद्ध कथाकार, इतिहास और संस्कृति के मर्मज्ञ तथा प्राच्य विद्या के बहुश्रुत विद्वान।

जन्म : 30 दिसम्बर, 1887, भड़ौच (गुजरात)।

शिक्षा : बी.ए., एल.एल.बी., डी.लिट्., एल.एल.डी.।

प्रारम्भ (1915) में ‘यंग इंडिया’ के संयुक्त सम्पादक, सन् 1938 से आजीवन, भारतीय विद्या भवन के अध्यक्ष और ‘भवन्स जर्नल’ के सम्पादक। सन् 1937-57 के दौरान दस वर्षों तक गुजराती साहित्य परिषद की अध्यक्षता की। सन् 1944 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष। सन् 1951 से मृत्युपर्यन्त वह संस्कृत विश्व परिषद के भी अध्यक्ष रहे। सन् 1952 से 1957 तक उत्तर प्रदेश के राज्यपाल का पद-भार सँभाला। उसी दौरान सन् 1957 में उन्होंने भारतीय इतिहास कांग्रेस की अध्यक्षता की।

प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ : ‘लोमहर्षिणी’, ‘लोपामुद्रा’, ‘भगवान परशुराम’, ‘तपस्विनी’, ‘पृथ्वीवल्लभ’, ‘भग्नपादुका’, ‘पाटण का प्रभुत्व’, कृष्णावतार के सात खंड—‘बंसी की धुन’, ‘रुक्मिणीहरण’, ‘पाँच पांडव’, ‘महाबली भीम’, ‘सत्यभामा’, ‘महामुनि व्यास’, ‘युधिष्ठिर’ (उपन्यास); ‘वाह रे मैं वाह’ (नाटक); ‘आधे रास्ते’, ‘सीधी चढ़ान’, ‘स्वप्नसिद्धि की खोज में’ (आत्मकथा के तीन खंड)।

निधन : 8 फरवरी, 1971

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