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Katha Jagat Ki Baghi Muslim Auratein (PB)
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‘मुसलमान औरत’ नाम आते ही घर की चारदीवारी में बन्द या क़ैद, पर्दे में रहनेवाली एक ‘ख़ातून’ का चेहरा उभरता है। अब से कुछ साल पहले तक मुसलमान औरतों का मिला-जुला यही चेहरा ज़ेहन में महफ़ूज़ था। घर में मोटे-मोटे पर्दों के पीछे जीवन काट देनेवाली या घर से बाहर ख़तरनाक ‘बुर्कों’ में ऊपर से लेकर नीचे तक ख़ुद को छुपाए हुए।
समय के साथ काले-काले बुर्कों के रंग भी बदल गए, लेकिन कितनी बदलीं मुस्लिम औरत या बिलकुल ही नहीं बदलीं! क़ायदे से देखें, तो अब भी छोटे-छोटे शहरों की औरतें बुर्का-संस्कृति में एक न ख़त्म होनेवाली घुटन का शिकार हैं, लेकिन घुटन से बग़ावत भी जन्म लेती है और मुसलमान औरतों के बग़ावत की लम्बी दास्तान रही है। ऐसा भी देखा गया है कि ‘मज़हबी फ़रीज़ों’ से जकड़ी, सौमो-सलात की पाबन्द औरत ने यकबारगी ही बग़ावत या जेहाद के बाज़ू फैलाए और खुली आज़ाद फ़िजा में समुद्री पक्षी की तरह उड़ती चली गई।
लेखन के शुरुआती सफ़र में ही इन मुस्लिम महिलाओं ने जैसे मर्दों की वर्षों पुरानी हुक्मरानी के तौक़ को अपने गले से उतार फेंका था। ये महज़ इत्तेफ़ाक़ नहीं है कि मुस्लिम महिलाओं ने जब क़लम सॅंभाली तो अपनी क़लम से तलवार का काम लिया। इस तलवार की ज़द पर पुरुषों का, अब तक का समाज था। वर्षों की ग़ुलामी थी। भेदभाव और कुंठा से जन्मा, भयानक पीड़ा देनेवाला एहसास था। संग्रह में शामिल कहानियों में इस बात का ख़ास ख़याल रखा गया है कि कहानी में नर्म, गर्म बग़ावत के संकेत ज़रूर मिलते हों। संग्रह की कुछ कहानियाँ तो पूरी-पूरी बगावत का ‘अलम’ (झंडा) लिए चलती नज़र आती हैं, लेकिन कुछ कहानियाँ ऐसी भी हैं, जहाँ बस दूर से इस एहसास को छुआ भर गया है।
निःसन्देह ये कहानियाँ औरतों की अपने अस्तित्व की लड़ाई की दास्ताँ बयान करती हैं जो तरक़्क़पसन्द पाठकों को बेहद प्रभावित करेंगी।
‘मुसलमान औरत’ नाम आते ही घर की चारदीवारी में बन्द या क़ैद, पर्दे में रहनेवाली एक ‘ख़ातून’ का चेहरा उभरता है। अब से कुछ साल पहले तक मुसलमान औरतों का मिला-जुला यही चेहरा ज़ेहन में महफ़ूज़ था। घर में मोटे-मोटे पर्दों के पीछे जीवन काट देनेवाली या घर से बाहर ख़तरनाक ‘बुर्कों’ में ऊपर से लेकर नीचे तक ख़ुद को छुपाए हुए।
समय के साथ काले-काले बुर्कों के रंग भी बदल गए, लेकिन कितनी बदलीं मुस्लिम औरत या बिलकुल ही नहीं बदलीं! क़ायदे से देखें, तो अब भी छोटे-छोटे शहरों की औरतें बुर्का-संस्कृति में एक न ख़त्म होनेवाली घुटन का शिकार हैं, लेकिन घुटन से बग़ावत भी जन्म लेती है और मुसलमान औरतों के बग़ावत की लम्बी दास्तान रही है। ऐसा भी देखा गया है कि ‘मज़हबी फ़रीज़ों’ से जकड़ी, सौमो-सलात की पाबन्द औरत ने यकबारगी ही बग़ावत या जेहाद के बाज़ू फैलाए और खुली आज़ाद फ़िजा में समुद्री पक्षी की तरह उड़ती चली गई।
लेखन के शुरुआती सफ़र में ही इन मुस्लिम महिलाओं ने जैसे मर्दों की वर्षों पुरानी हुक्मरानी के तौक़ को अपने गले से उतार फेंका था। ये महज़ इत्तेफ़ाक़ नहीं है कि मुस्लिम महिलाओं ने जब क़लम सॅंभाली तो अपनी क़लम से तलवार का काम लिया। इस तलवार की ज़द पर पुरुषों का, अब तक का समाज था। वर्षों की ग़ुलामी थी। भेदभाव और कुंठा से जन्मा, भयानक पीड़ा देनेवाला एहसास था। संग्रह में शामिल कहानियों में इस बात का ख़ास ख़याल रखा गया है कि कहानी में नर्म, गर्म बग़ावत के संकेत ज़रूर मिलते हों। संग्रह की कुछ कहानियाँ तो पूरी-पूरी बगावत का ‘अलम’ (झंडा) लिए चलती नज़र आती हैं, लेकिन कुछ कहानियाँ ऐसी भी हैं, जहाँ बस दूर से इस एहसास को छुआ भर गया है।
निःसन्देह ये कहानियाँ औरतों की अपने अस्तित्व की लड़ाई की दास्ताँ बयान करती हैं जो तरक़्क़पसन्द पाठकों को बेहद प्रभावित करेंगी।
About Author
राजेन्द्र यादव
जन्म : 28 अगस्त, 1929; आगरा।
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), 1951; आगरा विश्वविद्यालय।
प्रकाशित पुस्तकें : ‘देवताओं की मूर्तियाँ’, ‘खेल-खिलौने’, ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’, ‘अभिमन्यु की आत्महत्या’, ‘छोटे-छोटे ताजमहल’, ‘किनारे से किनारे तक’, ‘टूटना’, ‘ढोल और अपने पार’, ‘चौखटे तोड़ते त्रिकोण’, ‘वहाँ तक पहुँचने की दौड़’, ‘अनदेखे अनजाने पुल’, ‘हासिल और अन्य कहानियाँ’, ‘श्रेष्ठ कहानियाँ’, ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ (कहानी-संग्रह); ‘सारा आकाश’, ‘उखड़े हुए लोग’, ‘शह और मात’, ‘एक इंच मुस्कान’ (मन्नू भंडारी के साथ), ‘मंत्र-विद्ध और कुलटा’ (उपन्यास); ‘आवाज तेरी है’ (कविता-संग्रह); ‘कहानी : स्वरूप और संवेदना’, ‘प्रेमचन्द की विरासत’, ‘अठारह उपन्यास’, ‘काँटे की बात’ (बारह खंड), ‘कहानी : अनुभव और अभिव्यक्ति’, ‘उपन्यास : स्वरूप और संवेदना’ (समीक्षा-निबन्ध-विमर्श); ‘वे देवता नहीं हैं’, ‘एक दुनिया : समानान्तर’, ‘कथा जगत की बागी मुस्लिम औरतें’, ‘वक़्त है एक ब्रेक का’, ‘औरत : उत्तरकथा’, ‘पितृसत्ता के नए रूप’, ‘पच्चीस बरस : पच्चीस कहानियाँ’, ‘मुबारक पहला क़दम’ (सम्पादन); ‘औरों के बहाने’ (व्यक्ति-चित्र); ‘मुड़-मुडक़े देखता हूँ’... (आत्मकथा); ‘राजेन्द्र यादव रचनावली’ (15 खंड)।
प्रेमचन्द द्वारा स्थापित कथा-मासिक ‘हंस’ के अगस्त, 1986 से 27 अक्टूबर, 2013 तक सम्पादन। चेख़व, तुर्गनेव, कामू आदि लेखकों की कई कालजयी कृतियों का अनुवाद।
निधन : 28 अक्टूबर, 2013
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