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Kanyadan • Dwiragaman (PB)
Publisher:
Rajkamal
| Author:
Harimohan Jha
| Language:
Maithili
| Format:
Paperback
Publisher:
Rajkamal
Author:
Harimohan Jha
Language:
Maithili
Format:
Paperback
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ISBN:
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9788119028078
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
‘कन्यादान’ मिथिलाक एहन व्यथा-कथा अछि, जकरा सँ अजुका समाज सेहो मुक्त नहि भ सकल अछि। उपन्यासक पहिल संस्करण नौ दशक पहिने, यानी 1933 मे पुस्तकाकार छपल छल, मुदा आइ धरि मिथिलाक समाज मे ‘बुच्चिदाइ’ देखल जायत छैथ, आ हुनकर संघर्ष अनवरत चलि रहल छैन। कन्यादान नाम कें साकार करैत घरक मुखिया आइयो अपन कन्या कें जड़ पदार्थ जकाँ दान करबाक हेतु निमित्त रहैत छैथ आ ‘बुच्चिदाइ’ कें विवाहक हेतु सूत्रधार भाँति-भाँतिक तिकड़म लगबैत छैथ। बेस, आइ परिस्थिति बदलल अछि। आब गाम-घरक बुच्ची सेहो स्कूल जायत छैथ। मुदा लड़का-लड़किक भेद एखनो बनल अछि। आइयो कतेको घर मे लड़का कें दूध मिलैत अछि, त लड़की कें माँड़ सँ सन्तोष करऽ पड़ैत छैन।
इ पोथी कें लोकप्रियता सिर्फ समाजक यथार्थ चित्रण सँ नहि मिलल। एकर भाषा आ शिल्प अप्रतिम अछि। इ उपन्यास मैथिली समाजक मनोवृत्ति आ विसंगति कें बिना लाग-लपेट अभिव्यक्त करैत अछि। हास्यक रस होयतो इ पुस्तक मर्मस्पर्शी अछि। अहि लेल एकरा पढ़बा लेल गैर-मैथिली भाषी सेहो मैथिली सिखलाह। आ जे पढ़बा मे समर्थ नहि छलाह, से वाचन सं एकर रसास्वादन कैलाह। हरिमोहन झा हास्य सम्राट जरूर कहल जायत छैथ, मुदा ओ एहन दक्ष गद्यकार सेहो छलाह, जे मनोरंजक ढंग सँ कथा कहैत पाठक कें यथार्थक भूमि पर विस्मित कऽ दैत छथिन। हुनकर लेखनी विमर्शक एतेक द्वारि खोलैत अछि कि पाठकगण सोचबा लेल विवश होयत छैथ। ‘कन्यादान’ सेहो इ कसौटी कें सार्थक करैत अछि। इ उपन्यास मे अपन बिटियाक विवाहक हेतु माय-बाप कें चिन्ता अछि, विवाह कें सम्भव बनैबाक हेतु सूत्रधारक दाँव-पेच, नव रंग-ढंग मे रंगल पतिक आकांक्षा, अनपढ़ आ गामक संस्कृति मे रमल पत्निक कायान्तरण, आ सबसँ उल्लेखनीय, पुरातन बनाम आधुनिक परम्पराक जंग अछि। हरिमोहन झा कें नजर से केओ बाँचल नहि छैथ, अहि लेल ‘कन्यादान’ अनवरत प्रासंगिक बनल अछि।
इ पोथी मे ‘कन्यादान’ तथा ‘द्विरागमन’ (1943)— जे वस्तुत: एके उपन्यासक दू भाग अछि—एक संग प्रकाशित अछि। पाठक लोकनि हरिमोहन झा कऽ इ करिश्मा कें स्वयं अनुभव करू…
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Description
‘कन्यादान’ मिथिलाक एहन व्यथा-कथा अछि, जकरा सँ अजुका समाज सेहो मुक्त नहि भ सकल अछि। उपन्यासक पहिल संस्करण नौ दशक पहिने, यानी 1933 मे पुस्तकाकार छपल छल, मुदा आइ धरि मिथिलाक समाज मे ‘बुच्चिदाइ’ देखल जायत छैथ, आ हुनकर संघर्ष अनवरत चलि रहल छैन। कन्यादान नाम कें साकार करैत घरक मुखिया आइयो अपन कन्या कें जड़ पदार्थ जकाँ दान करबाक हेतु निमित्त रहैत छैथ आ ‘बुच्चिदाइ’ कें विवाहक हेतु सूत्रधार भाँति-भाँतिक तिकड़म लगबैत छैथ। बेस, आइ परिस्थिति बदलल अछि। आब गाम-घरक बुच्ची सेहो स्कूल जायत छैथ। मुदा लड़का-लड़किक भेद एखनो बनल अछि। आइयो कतेको घर मे लड़का कें दूध मिलैत अछि, त लड़की कें माँड़ सँ सन्तोष करऽ पड़ैत छैन।
इ पोथी कें लोकप्रियता सिर्फ समाजक यथार्थ चित्रण सँ नहि मिलल। एकर भाषा आ शिल्प अप्रतिम अछि। इ उपन्यास मैथिली समाजक मनोवृत्ति आ विसंगति कें बिना लाग-लपेट अभिव्यक्त करैत अछि। हास्यक रस होयतो इ पुस्तक मर्मस्पर्शी अछि। अहि लेल एकरा पढ़बा लेल गैर-मैथिली भाषी सेहो मैथिली सिखलाह। आ जे पढ़बा मे समर्थ नहि छलाह, से वाचन सं एकर रसास्वादन कैलाह। हरिमोहन झा हास्य सम्राट जरूर कहल जायत छैथ, मुदा ओ एहन दक्ष गद्यकार सेहो छलाह, जे मनोरंजक ढंग सँ कथा कहैत पाठक कें यथार्थक भूमि पर विस्मित कऽ दैत छथिन। हुनकर लेखनी विमर्शक एतेक द्वारि खोलैत अछि कि पाठकगण सोचबा लेल विवश होयत छैथ। ‘कन्यादान’ सेहो इ कसौटी कें सार्थक करैत अछि। इ उपन्यास मे अपन बिटियाक विवाहक हेतु माय-बाप कें चिन्ता अछि, विवाह कें सम्भव बनैबाक हेतु सूत्रधारक दाँव-पेच, नव रंग-ढंग मे रंगल पतिक आकांक्षा, अनपढ़ आ गामक संस्कृति मे रमल पत्निक कायान्तरण, आ सबसँ उल्लेखनीय, पुरातन बनाम आधुनिक परम्पराक जंग अछि। हरिमोहन झा कें नजर से केओ बाँचल नहि छैथ, अहि लेल ‘कन्यादान’ अनवरत प्रासंगिक बनल अछि।
इ पोथी मे ‘कन्यादान’ तथा ‘द्विरागमन’ (1943)— जे वस्तुत: एके उपन्यासक दू भाग अछि—एक संग प्रकाशित अछि। पाठक लोकनि हरिमोहन झा कऽ इ करिश्मा कें स्वयं अनुभव करू…
About Author
हरिमोहन झा
जन्म : 18 सितम्बर, 1908; कुँवर बाजितपुर, वैशाली (बिहार)।
सन् 1932 में पटना विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एम.ए.। इसके बाद पटना विश्वविद्यालय में ही दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर और फिर विभागाध्यक्ष रहे।
अपने बहुमुखी रचनात्मक अवदान से मैथिली साहित्य की श्री-वृद्धि करनेवाले विशिष्ट लेखक। भारतीय दर्शन और संस्कृति-काव्य साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान के रूप में विशेष ख्याति अर्जित की। धर्म, दर्शन और इतिहास, पुराण के अस्वस्थ, लोकविरोधी प्रसंगों की दिलचस्प लेकिन कड़ी आलोचना। इस सन्दर्भ में ‘खट्टर काका’ जैसी बहुचर्चित व्यंग्यकृति विशेष उल्लेखनीय। मूल मैथिली में क़रीब 20 पुस्तकें प्रकाशित। कुछ कहानियों का हिन्दी, गुजराती और तमिल में अनुवाद।
प्रमुख कृतियाँ: ‘कन्यादान’, ‘द्विरागमन’ (उपन्यास); ‘प्रणम्य देवता’, ‘रंगशाला’ (हास्य कथाएँ); ‘खट्टर काका’ (व्यंग्य-कृति); ‘चरचरी’ (विधा-विविधा)।
निधन : 23 फरवरी, 1984
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