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Kahni Upkhan (HB)
Publisher:
Rajkamal
| Author:
Kashinath Singh
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Rajkamal
Author:
Kashinath Singh
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹995 ₹697
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In stock
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3-5 days
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ISBN:
SKU
9788126707768
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
सुप्रसिद्ध कथाकार काशीनाथ सिंह पिछले चालीस वर्षों से हिन्दी कथा में सक्रिय और तरो-ताज़ा हैं। उन्होंने अपने लेखन के ज़रिए पाठकों की नई जमात तैयार की है—युवाओं की जमात ‘अपना मोर्चा’ लिखकर और साहित्य से कोई सरोकार न रखनेवाले सामान्य पाठकों के संस्मरण और ‘काशी का अस्सी’ लिखकर। लेकिन ऊपर से आरोप यह कि उन्होंने साहित्य की कुलीनता की धज्जियाँ उड़ाई हैं। इसके एवज़ में उन्होंने गालियाँ भी खाई हैं, उपेक्षाएँ भी झेली हैं और ख़तरे भी उठाए हैं। यह यों ही नहीं है कि कथा-कहानी में आनेवाली हर युवा पीढ़ी काशी को अपना समकालीन और सहयात्री समझती रही है। ऐसा क्यों है—यह देखना हो तो कहनी उपखान पढ़ना चाहिए।
कहनी उपखान काशी की सारी छोटी-बड़ी कहानियों का संग्रह है—अब तक की कुल जमा-पूँजी। मात्र चालीस कहानियाँ। देखा जाना चाहिए कि वह कौन-सी ख़ासियत है कि इतनी-सी पूँजी पर काशी लगातार कथा-चर्चा में बने रहे हैं और आलोचकों के लिए भी ‘अपरिहार्य’ रहे हैं।
काल और काल से छेड़छाड़ और मुठभेड़—पहचान है काशी की कहानियों की। काल के केन्द्र में है सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों से घिरा आदमी—कभी अकेले, कभी परिवार में, कभी समाज में। इस आदमी से मिलना यानी कहानियों को पढ़ना हरी-भरी ज़िन्दगी के बीच चहलक़दमी करने जैसा है। न कहीं बोरियत, न एकरसता, न मनहूसियत, न दुहराव। उठने-गिरने, चलने-फिरने, लड़ने-हारने में भी हँसी-ठट्ठा और व्यंग्य-विनोद। ज़िन्दादिली कहीं भी पाठक का साथ नहीं छोड़ती। जियो तो हँसते हुए, मरो तो हँसते हुए—यही जैसे जीने का नुस्खा हो पात्रों के जीवन का।
जैसे-जैसे ज़़िन्दगी बदली है, वैसे-वैसे काशी की कहानी भी बदली है—अगर नहीं बदला है तो कहानी कहने का अन्दाज़। जातक, पंचतंत्र और लोकप्रचलित कथाशैलियाँ जैसे उनके कहानीकार के ख़ून में हैं। कई कहानियाँ तो चौपाल या अलाव के गिर्द बैठकर सुनने का सुख देती हैं।
आइए, वह सुख आप भी लीजिए ‘कहनी उपखान’ पढ़कर। कहनी (कहानी) और उपखान (उपाख्यान) कहकर तो काशी ने लिया है, आप भी लीजिए पढ़कर, क्योंकि काशी को पढ़ना ही सुनना है।
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Description
सुप्रसिद्ध कथाकार काशीनाथ सिंह पिछले चालीस वर्षों से हिन्दी कथा में सक्रिय और तरो-ताज़ा हैं। उन्होंने अपने लेखन के ज़रिए पाठकों की नई जमात तैयार की है—युवाओं की जमात ‘अपना मोर्चा’ लिखकर और साहित्य से कोई सरोकार न रखनेवाले सामान्य पाठकों के संस्मरण और ‘काशी का अस्सी’ लिखकर। लेकिन ऊपर से आरोप यह कि उन्होंने साहित्य की कुलीनता की धज्जियाँ उड़ाई हैं। इसके एवज़ में उन्होंने गालियाँ भी खाई हैं, उपेक्षाएँ भी झेली हैं और ख़तरे भी उठाए हैं। यह यों ही नहीं है कि कथा-कहानी में आनेवाली हर युवा पीढ़ी काशी को अपना समकालीन और सहयात्री समझती रही है। ऐसा क्यों है—यह देखना हो तो कहनी उपखान पढ़ना चाहिए।
कहनी उपखान काशी की सारी छोटी-बड़ी कहानियों का संग्रह है—अब तक की कुल जमा-पूँजी। मात्र चालीस कहानियाँ। देखा जाना चाहिए कि वह कौन-सी ख़ासियत है कि इतनी-सी पूँजी पर काशी लगातार कथा-चर्चा में बने रहे हैं और आलोचकों के लिए भी ‘अपरिहार्य’ रहे हैं।
काल और काल से छेड़छाड़ और मुठभेड़—पहचान है काशी की कहानियों की। काल के केन्द्र में है सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों से घिरा आदमी—कभी अकेले, कभी परिवार में, कभी समाज में। इस आदमी से मिलना यानी कहानियों को पढ़ना हरी-भरी ज़िन्दगी के बीच चहलक़दमी करने जैसा है। न कहीं बोरियत, न एकरसता, न मनहूसियत, न दुहराव। उठने-गिरने, चलने-फिरने, लड़ने-हारने में भी हँसी-ठट्ठा और व्यंग्य-विनोद। ज़िन्दादिली कहीं भी पाठक का साथ नहीं छोड़ती। जियो तो हँसते हुए, मरो तो हँसते हुए—यही जैसे जीने का नुस्खा हो पात्रों के जीवन का।
जैसे-जैसे ज़़िन्दगी बदली है, वैसे-वैसे काशी की कहानी भी बदली है—अगर नहीं बदला है तो कहानी कहने का अन्दाज़। जातक, पंचतंत्र और लोकप्रचलित कथाशैलियाँ जैसे उनके कहानीकार के ख़ून में हैं। कई कहानियाँ तो चौपाल या अलाव के गिर्द बैठकर सुनने का सुख देती हैं।
आइए, वह सुख आप भी लीजिए ‘कहनी उपखान’ पढ़कर। कहनी (कहानी) और उपखान (उपाख्यान) कहकर तो काशी ने लिया है, आप भी लीजिए पढ़कर, क्योंकि काशी को पढ़ना ही सुनना है।
About Author
काशीनाथ सिंह
जन्म : 1 जनवरी, 1937; बनारस ज़िले के जीयनपुर गाँव में।
शिक्षा : आरम्भिक शिक्षा गाँव के पास के विद्यालयों में। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. (1959) और पीएच.डी. (1963)।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष रहे।
पहली कहानी ‘संकट’ ‘कृति’ पत्रिका (सितम्बर, 1960) में प्रकाशित।
कृतियाँ : ‘लोग बिस्तरों पर’, ‘सुबह का डर’, ‘आदमीनामा’, ‘नई तारीख’, ‘सदी का सबसे बड़ा आदमी’, ‘कल की फटेहाल कहानियाँ’, ‘कहानी उपख्यान’, ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’, ‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ (कहानी-संग्रह); ‘घोआस’ (नाटक); ‘हिन्दी में संयुक्त क्रियाएँ’ (शोध); ‘आलोचना भी रचना है’ (समीक्षा); ‘काशी का अस्सी’, ‘रेहन पर रग्घू’, ‘महुआचरित’, ‘उपसंहार’ (उपन्यास); ‘याद हो कि न याद हो’, ‘आछे दिन पाछे गए’, ‘घर का जोगी जोगड़ा’ (संस्मरण); ‘गपोड़ी से गपशप’ (साक्षात्कार)।
‘अपना मोर्चा’ का जापानी एवं कोरियाई भाषाओं में अनुवाद। जापानी में कहानियों का अनूदित संग्रह। कई कहानियों के भारतीय और अन्य विदेशी भाषाओं में अनुवाद। उपन्यास और कहानियों की रंग-प्रस्तुतियाँ। ‘तीसरी दुनिया’ के लेखकों-संस्कृतिकर्मियों के सम्मेलन के सिलसिले में जापान-यात्रा (नवम्बर, 1981)।
सम्मान : ‘रेहन पर रग्घू’ उपन्यास के लिए ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’, ‘भारत भारती पुरस्कार’, ‘कैफ़ी आज़मी अवार्ड’, ‘कथा सम्मान’, ‘समुच्चय सम्मान’, ‘शरद जोशी सम्मान’, ‘साहित्य भूषण सम्मान’, ‘रचना समग्र पुरस्कार’ आदि।
सम्प्रति : बनारस में रहकर स्वतंत्र लेखन।
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