kabaadkhana (HB)

Publisher:
Rajkamal
| Author:
Gyanranjan
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Rajkamal
Author:
Gyanranjan
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Hindi
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Hardback

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यह आश्चर्यजनक है कि ‘लौट आ जो धार’ में दूधनाथ सिंह ने ज्ञानरंजन के शिल्प की तुलना सुमित्रानन्दन पन्त से की है और बताना चाहा है कि कुछ दूर तक चलने के बाद ज्ञानरंजन अमूर्त दार्शनिकता में फँस जाते हैं। ज्ञानरंजन की कहानियाँ पढ़ने में तो ऐसा कुछ नहीं लगता। उत्सुकतावश उनकी गद्य रचनाओं के संकलन ‘कबाड़खाना’ को पढ़ा कि शायद यहाँ ऐसा कुछ दिख जाए, लेकिन यहाँ भी ज्ञानरंजन वही हैं–वही सीधी बात करने की जवाँमर्दी, वही सच्चाई का गुरूर। विचारधारा का आग्रह है, मार्क्सवाद का आग्रह है, पर फटी लंगोट बचाने जैसा आग्रह नहीं है, यह लड़ाई को दुश्मन के घर में घुसकर लड़ने का आग्रह है। संग्रह के हिसाब से यह एक बेतरतीब-सा संग्रह है। इसमें संस्मरण हैं, व्याख्यान हैं, सम्पादकीय हैं, रचनात्मक निबन्ध हैं, साक्षात्कार हैं, अखबारी टिप्पणियाँ हैं, और तो और, एक उपन्यास- अंश और काशीनाथ सिंह के नाम लिखा एक पत्र भी है, लेकिन ये सारी की सारी गद्य रचनाएँ मिलकर इस प्रदर्शनप्रिय समय में एक जीवन्त प्रतिवाद का निर्माण करती हैं। ये उसी ‘जेनुइन’ बेचैनी और छटपटाहट का मूर्त रूप बनती हैं, जो साठोत्तरी पीढ़ी की पहचान थी और उससे भी ज्यादा बेचैनी और छटपटाहट आज सर्वत्र मौजूद होने के बावजूद आज की साहित्यिक पीढ़ी की पहचान नहीं है।
‘कबाड़खाना’ पढ़ना दिलचस्प है और इसका हर शब्द झकझोरने वाला है। काफी हद तक यह ज्ञानरंजन के द्वारा कहानी न लिखने या न के बराबर लिखने की भरपाई करता है। यहाँ, ‘राजा हो, तुमने बुढ़ौती में चंचल प्यार कर मारा’ जैसे स्वतःस्फूर्त वाक्य है जो लाख गढ़न के बावजूद कहानियों में भी मुश्किल से ही मिलते हैं। लेकिन सबसे बड़ी बात है कि इसमें वह बेचैनी है जो सांस्कृतिक हमले और सतहीपन के इस दौर में हमारी भाषा और समाज को बेबस मौत से बचाएगी। सफाई देना ज्ञानजी की फितरत वैसे भी नहीं है लेकिन हिन्दी पाठकों की सन्तुष्टि तब होगी, जब वे ‘कबाड़खाना’ के ही मानदण्डों पर अपनी खास विधा में कुछ लेकर आएँ।
–चन्द्रभूषण

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Description

यह आश्चर्यजनक है कि ‘लौट आ जो धार’ में दूधनाथ सिंह ने ज्ञानरंजन के शिल्प की तुलना सुमित्रानन्दन पन्त से की है और बताना चाहा है कि कुछ दूर तक चलने के बाद ज्ञानरंजन अमूर्त दार्शनिकता में फँस जाते हैं। ज्ञानरंजन की कहानियाँ पढ़ने में तो ऐसा कुछ नहीं लगता। उत्सुकतावश उनकी गद्य रचनाओं के संकलन ‘कबाड़खाना’ को पढ़ा कि शायद यहाँ ऐसा कुछ दिख जाए, लेकिन यहाँ भी ज्ञानरंजन वही हैं–वही सीधी बात करने की जवाँमर्दी, वही सच्चाई का गुरूर। विचारधारा का आग्रह है, मार्क्सवाद का आग्रह है, पर फटी लंगोट बचाने जैसा आग्रह नहीं है, यह लड़ाई को दुश्मन के घर में घुसकर लड़ने का आग्रह है। संग्रह के हिसाब से यह एक बेतरतीब-सा संग्रह है। इसमें संस्मरण हैं, व्याख्यान हैं, सम्पादकीय हैं, रचनात्मक निबन्ध हैं, साक्षात्कार हैं, अखबारी टिप्पणियाँ हैं, और तो और, एक उपन्यास- अंश और काशीनाथ सिंह के नाम लिखा एक पत्र भी है, लेकिन ये सारी की सारी गद्य रचनाएँ मिलकर इस प्रदर्शनप्रिय समय में एक जीवन्त प्रतिवाद का निर्माण करती हैं। ये उसी ‘जेनुइन’ बेचैनी और छटपटाहट का मूर्त रूप बनती हैं, जो साठोत्तरी पीढ़ी की पहचान थी और उससे भी ज्यादा बेचैनी और छटपटाहट आज सर्वत्र मौजूद होने के बावजूद आज की साहित्यिक पीढ़ी की पहचान नहीं है।
‘कबाड़खाना’ पढ़ना दिलचस्प है और इसका हर शब्द झकझोरने वाला है। काफी हद तक यह ज्ञानरंजन के द्वारा कहानी न लिखने या न के बराबर लिखने की भरपाई करता है। यहाँ, ‘राजा हो, तुमने बुढ़ौती में चंचल प्यार कर मारा’ जैसे स्वतःस्फूर्त वाक्य है जो लाख गढ़न के बावजूद कहानियों में भी मुश्किल से ही मिलते हैं। लेकिन सबसे बड़ी बात है कि इसमें वह बेचैनी है जो सांस्कृतिक हमले और सतहीपन के इस दौर में हमारी भाषा और समाज को बेबस मौत से बचाएगी। सफाई देना ज्ञानजी की फितरत वैसे भी नहीं है लेकिन हिन्दी पाठकों की सन्तुष्टि तब होगी, जब वे ‘कबाड़खाना’ के ही मानदण्डों पर अपनी खास विधा में कुछ लेकर आएँ।
–चन्द्रभूषण

About Author

ज्ञानरंजन 

ज्ञानरंजन का जन्म 21 नवम्बर, 1936 को महाराष्ट्र के अकोला ज़ि‍ले में हुआ। प्रारम्भिक जीवन महाराष्ट्र, राजस्थान, दिल्ली, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में व्यतीत हुआ। उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई। 2013 में जबलपुर विश्वविद्यालय द्वारा मानद ‘डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर’ की उपाधि प्रदत्त (मानद डी.लिट.)।

जबलपुर विश्वविद्यालय से सम्बद्ध जी. एस. कॉलेज में हिन्दी के प्रोफ़ेसर रहे और चौंतीस वर्ष की सेवा के बाद 1996 में सेवानिवृत्त।

सातवें दशक के प्रमुख कथाकार। अनेक कहानी-संग्रह प्रकाशित। अनूठी गद्य रचनाओं की एक क़िताब कबाड़खाना बहुत लोकप्रिय हुई। कहानियाँ देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में उच्चतर पाठ्यक्रमों में पढ़ाई जाती हैं। शान्ति निकेतन से कहानियों का एक संग्रह बांग्ला में अनूदित होकर प्रकाशित। अंग्रेज़ी, पोल, रूसी, जापानी, फ़ारसी और जर्मन भाषाओं में कहानियाँ प्रकाशित। 

आपातकाल के आघातों के बावजूद 35 वर्ष निरन्तर विख्यात साहित्यिक पत्रिका ‘पहल’ का संपादन व प्रकाशन। 2 वर्ष के अन्तराल के बाद पुनः प्रकाशित। 

सम्मान : ‘सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड’, हिन्दी संस्थान का ‘साहित्य भूषण सम्मान’, म.प्र. साहित्य परिषद का ‘सुभद्रा कुमारी चौहान’ और 'अनिल कुमार पुरस्कार’, मध्य प्रदेश संस्कृति विभाग का ‘शिखर सम्मान’ और ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता का ‘प्रतिभा सम्मान’, ‘शमशेर सम्मान’ और पाखी का ‘शिखर सम्मान’, भारतीय ज्ञानपीठ का अखिल भारतीय ‘ज्ञानगरिमा मानद अलंकरण’, अमर उजाला का ‘शब्द सम्मान’।

आपातकाल के प्रतिरोध में मध्य प्रदेश संस्कृति विभाग का एक पुरस्कार और मुक्तिबोध फ़ेलोशिप का अस्वीकार।

ग्रीनविच विलेज (न्यूयार्क) में सातवें-आठवें दशक में कहानियों पर फ़िल्म निर्माण। भारतीय दूरदर्शन द्वारा जीवन और कृतित्व पर एक पूरी फ़िल्म। आई.सी.सी.आर. (विदेश मंत्रालय) समेत देश की अनेक उच्चतर संस्थाओं की सामयिक सदस्यताएँ। मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के ज्वलंत वर्षों में लम्बे समय तक उसके महासचिव रहे। हरिशंकर परसाई के साथ राष्ट्रीय नाट्य संस्था 'विवेचना' के संस्थापक सदस्य भी रहे।

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