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Jati Hi Puchho Sadhu ki (PB)
Publisher:
Rajkamal
| Author:
Vijay Tendulkar
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
Publisher:
Rajkamal
Author:
Vijay Tendulkar
Language:
Hindi
Format:
Paperback
₹150 ₹149
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ISBN:
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9788126721214
Category Hindi
Category: Hindi
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जीवन के स्याह पक्षों को निर्मम पर्यवेक्षण से उजागर करने के लिए प्रसिद्ध रहे विजय तेन्दुलकर का यह नाटक समकालीन सामाजिक विद्रूप को थोड़ा व्यंग्यात्मक नज़रिए से खोलता है।
एम.ए. की डिग्री से लैस होकर महीपत नौकरी की जिस खोज-यात्रा से गुज़रता है, वह शिक्षा की वर्तमान दशा, समाज के विभिन्न शैक्षिक स्तरों के परस्पर संघर्ष और स्थानीय स्तर पर सत्ता के विभिन्न केन्द्रों के टकराव की अनेक परतों को खोलती जाती है।
इस नाटक को पढ़ते-देखते हुए हमें स्वातंत्र्योत्तर भारत की कई ऐसी छवियों का साक्षात्कार होता है जो धीरे-धीरे हमारे सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन का हिस्सा हो चुकी हैं। वे हमें स्वीकार्य लगती हैं लेकिन उन्हीं के चलते धीरे-धीरे हमारा सामूहिक चरित्र खोखला होता जा रहा है।
अपने दो-टूकपन, सामाजिक सरोकार और व्यंग्य की तीव्रता के कारण अनेक निर्देशकों, अभिनेताओं और असंख्य दर्शकों की पसन्द रहे इस नाटक के दिल्ली में ही शताधिक मंचन हो चुके हैं। मूल मराठी से वसन्त देव द्वारा किए गए इस अनुवाद की गुणवत्ता तो इसी तथ्य से साबित हो जाती है कि पुस्तक रूप में इस नाटक के पाठ और मंच पर उसके प्रदर्शन में कोई बिन्दु ऐसा नहीं आता, जहाँ हिन्दी पाठक किसी अभिव्यक्ति या व्यंजना को अपने लिए अपरिचित महसूस करता हो।
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Description
जीवन के स्याह पक्षों को निर्मम पर्यवेक्षण से उजागर करने के लिए प्रसिद्ध रहे विजय तेन्दुलकर का यह नाटक समकालीन सामाजिक विद्रूप को थोड़ा व्यंग्यात्मक नज़रिए से खोलता है।
एम.ए. की डिग्री से लैस होकर महीपत नौकरी की जिस खोज-यात्रा से गुज़रता है, वह शिक्षा की वर्तमान दशा, समाज के विभिन्न शैक्षिक स्तरों के परस्पर संघर्ष और स्थानीय स्तर पर सत्ता के विभिन्न केन्द्रों के टकराव की अनेक परतों को खोलती जाती है।
इस नाटक को पढ़ते-देखते हुए हमें स्वातंत्र्योत्तर भारत की कई ऐसी छवियों का साक्षात्कार होता है जो धीरे-धीरे हमारे सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन का हिस्सा हो चुकी हैं। वे हमें स्वीकार्य लगती हैं लेकिन उन्हीं के चलते धीरे-धीरे हमारा सामूहिक चरित्र खोखला होता जा रहा है।
अपने दो-टूकपन, सामाजिक सरोकार और व्यंग्य की तीव्रता के कारण अनेक निर्देशकों, अभिनेताओं और असंख्य दर्शकों की पसन्द रहे इस नाटक के दिल्ली में ही शताधिक मंचन हो चुके हैं। मूल मराठी से वसन्त देव द्वारा किए गए इस अनुवाद की गुणवत्ता तो इसी तथ्य से साबित हो जाती है कि पुस्तक रूप में इस नाटक के पाठ और मंच पर उसके प्रदर्शन में कोई बिन्दु ऐसा नहीं आता, जहाँ हिन्दी पाठक किसी अभिव्यक्ति या व्यंजना को अपने लिए अपरिचित महसूस करता हो।
About Author
विजय तेन्दुलकर
जन्म : 6 जनवरी, 1928।
मराठी के आधुनिक नाटककारों में शीर्षस्थ विजय तेन्दुलकर अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिष्ठित एक महत्त्वपूर्ण नाटककार थे। 50 से अधिक नाटकों के रचयिता तेन्दुलकर ने अपने कथ्य और शिल्प की नवीनता से निर्देशकों और दर्शकों, दोनों को बराबर आकर्षित किया। पूरे देश में उनके नाटकों के अनुवाद एवं मंचन हो चुके हैं। हिन्दी में उनके 30 से अधिक नाटक खेले जा चुके हैं।
‘खामोश! अदालत जारी है’, ‘घासीराम कोतवाल’, ‘सखाराम बाइंडर’, ‘जाति ही पूछो साधु की’ और ‘गिद्ध’ आदि बहुचर्चित-बहुमंचित नाटकों के अलावा उनकी प्रमुख नाट्य-रचनाएँ हैं : ‘अंजी’, ‘अमीर’, ‘कन्यादान’, ‘कमला’, ‘चार दिन’, ‘नया आदमी’, ‘बेबी’, ‘मीता की कहानी’, ‘राजा माँगे पसीना’, ‘सफ़र’, ‘नया आदमी’, ‘हत्तेरी क़िस्मत’, ‘आह’, ‘दंभद्वीप’, ‘पंछी ऐसे आते हैं’, ‘काग विद्यालय’, ‘काग़ज़ी कारतूस’, ‘नोटिस’, ‘पटेल की बेटी का ब्याह’, ‘पसीना-पसीना’, ‘महंगासुर का वध’, ‘मैं जीता मैं हारा’, ‘कुत्ते’, ‘श्रीमंत’, ‘विट्ठला' आदि।
विजय तेन्दुलकर के नाटकों में मानव जीवन की विषमताओं, स्वाभाविक व अस्वाभाविक यौन सम्बन्धों, जातिगत भेदभाव और हिंसा का यथार्थ चित्रण मिलता है। उनके अधिकांश पात्र मध्यम एवं निम्न मध्यवर्ग के होते हैं और उनके विभिन्न रंग इन नाटकों में आते हैं।
निधन : 19 मई, 2008
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