जातकपारिजात: Jataka Parijata

Publisher:
Chaukhamba Sanskrit Bhawan
| Author:
Dr. Harishankar Pathak
| Language:
Sanskrit | Hindi
| Format:
Hardback
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Chaukhamba Sanskrit Bhawan
Author:
Dr. Harishankar Pathak
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Sanskrit | Hindi
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Hardback

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728

प्रकृति की गोद में मनुष्य के जन्म के अनन्तर उसमें चेतना के प्रस्फुरण के साथ ही उसका अन्तर्मन उसके चतुर्दिक् विस्तृत संसार के प्रति—क्या ? क्यों ? और कैसे ? जैसी जिज्ञासाओं के संकुल में उलझकर व्याकुल हो उठा होगा ! अपने चारों ओर फैले गिरि- गह्वर, सरिताएँ, वनों में विचरते वन्य जीव, ऊपर विस्तृत आकाश और उसमें विचरण करते ज्योति पिण्ड इन सभी को वह जिज्ञासु भाव से निहारता रहा होगा !

इसी जिज्ञासाजन्य अकुलाहट से मुक्ति पाने के अपने प्रयासों में उसने अनेक शास्त्रों की रचना कर डाली। फलतः आज हमारे सामने विज्ञान की अनेक विधाएँ उपलब्ध हैं जिसकी पृष्ठभूमि में मनुष्य के अथक मनन, चिन्तन, अनुशीलन और अन्वेषणों का इतिहास है। विज्ञान की इन्हीं अनेक विधाओं में खगोल शास्त्र एक है।

पृथ्वी के परिगत नित्य भ्रमणशील ग्रहपिण्डों की प्रकृति, रचना, गुण-धर्म, उनकी गति और स्थिति का अध्ययन विज्ञान की इस विधा का मुख्य विषय है। ज्योति पिण्डों से सम्बन्धित होने के कारण ही यह शास्त्र ज्यौतिष के नाम से भी जाना जाता है। कालान्तर में इस विज्ञान का विकास तीन स्कन्धों– १. सिद्धान्तस्कन्ध, २. संहितास्कन्ध और ३. होरा- या जातकस्कन्ध में हुआ।

सिद्धान्तस्कन्ध में मनीषियों ने ग्रहों की गति, स्थिति, वर्ष, मास, दिन, तिथि, नक्षत्र, योग, करण, ग्रहों के उदय और अस्तादि, सूर्य-चन्द्र ग्रहण आदि के आनयन सम्बन्धी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया तथा उनके जानने की विधियाँ विकसित कीं। इन पदार्थों के परिज्ञान के अनन्तर मनुष्य के दैनिक क्रिया-कलापों पर इनके नियन्त्रण को तत्कालीन आचार्यों ने जब अनुभव किया तब इस दिशा में उन्होंने गहन मनन करना प्रारम्भ किया।

उन्होंने देखा कि इन पदार्थों-तिथि, नक्षत्रादि के विशिष्ट योगों में प्रारम्भ किये गये कार्य सहज भाव से सफल होते हैं; कतिपय योगों में प्रारम्भ किये गये कार्य कठिनाई से सफलता प्राप्त करते हैं तथा कुछ योगों में प्रारम्भ किया गया कार्य विफल हो जाता है। कुछ योगों योगों के उपस्थित होने पर भूकम्प, भूस्खलन, विनाशकारी झंझा, प्राकृतिक आपदाओं से धन-जन की हानि होती है। इन सभी विषयों का समावेश आचार्यों ने संहिता- स्कन्ध में किया। इसी संहितास्कन्ध से निकलकर मुहूर्तस्कन्ध अपना अलग अस्तित्व स्थापित करने में सफल रहा।

जिस प्रकार ये दैवी आपदाएँ नभचारी ग्रहपिण्डों से नियन्त्रित होती हैं, उसी प्रकार मनुष्य जीवन का विकास भी इनके प्रभाव से अछूता नहीं रहता। व्यक्ति के जन्मकाल में विद्यमान आकाशीय ग्रह-स्थितियाँ उसके जीवन पर स्थायी प्रभाव डालती हैं।

विशिष्ट ग्रह योगों के अनुसार व्यक्ति के जीवन का स्वरूप निर्धारित होता है। कुछ योगों में उत्पन्न व्यक्ति अनन्त वैभवसम्पन्न और सुखी जीवन व्यतीत करता है और दूसरे योग में उत्पन्न व्यक्ति अभावग्रस्त और कष्टमय जीवन व्यतीत करता है। कुछ योग उसे दीर्घायु और कुछ अल्पायु प्रदान करने वाले होते हैं। कुछ जन्म से कुछ ही पलों में कालकवलित हो जाते हैं|

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प्रकृति की गोद में मनुष्य के जन्म के अनन्तर उसमें चेतना के प्रस्फुरण के साथ ही उसका अन्तर्मन उसके चतुर्दिक् विस्तृत संसार के प्रति—क्या ? क्यों ? और कैसे ? जैसी जिज्ञासाओं के संकुल में उलझकर व्याकुल हो उठा होगा ! अपने चारों ओर फैले गिरि- गह्वर, सरिताएँ, वनों में विचरते वन्य जीव, ऊपर विस्तृत आकाश और उसमें विचरण करते ज्योति पिण्ड इन सभी को वह जिज्ञासु भाव से निहारता रहा होगा !

इसी जिज्ञासाजन्य अकुलाहट से मुक्ति पाने के अपने प्रयासों में उसने अनेक शास्त्रों की रचना कर डाली। फलतः आज हमारे सामने विज्ञान की अनेक विधाएँ उपलब्ध हैं जिसकी पृष्ठभूमि में मनुष्य के अथक मनन, चिन्तन, अनुशीलन और अन्वेषणों का इतिहास है। विज्ञान की इन्हीं अनेक विधाओं में खगोल शास्त्र एक है।

पृथ्वी के परिगत नित्य भ्रमणशील ग्रहपिण्डों की प्रकृति, रचना, गुण-धर्म, उनकी गति और स्थिति का अध्ययन विज्ञान की इस विधा का मुख्य विषय है। ज्योति पिण्डों से सम्बन्धित होने के कारण ही यह शास्त्र ज्यौतिष के नाम से भी जाना जाता है। कालान्तर में इस विज्ञान का विकास तीन स्कन्धों– १. सिद्धान्तस्कन्ध, २. संहितास्कन्ध और ३. होरा- या जातकस्कन्ध में हुआ।

सिद्धान्तस्कन्ध में मनीषियों ने ग्रहों की गति, स्थिति, वर्ष, मास, दिन, तिथि, नक्षत्र, योग, करण, ग्रहों के उदय और अस्तादि, सूर्य-चन्द्र ग्रहण आदि के आनयन सम्बन्धी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया तथा उनके जानने की विधियाँ विकसित कीं। इन पदार्थों के परिज्ञान के अनन्तर मनुष्य के दैनिक क्रिया-कलापों पर इनके नियन्त्रण को तत्कालीन आचार्यों ने जब अनुभव किया तब इस दिशा में उन्होंने गहन मनन करना प्रारम्भ किया।

उन्होंने देखा कि इन पदार्थों-तिथि, नक्षत्रादि के विशिष्ट योगों में प्रारम्भ किये गये कार्य सहज भाव से सफल होते हैं; कतिपय योगों में प्रारम्भ किये गये कार्य कठिनाई से सफलता प्राप्त करते हैं तथा कुछ योगों में प्रारम्भ किया गया कार्य विफल हो जाता है। कुछ योगों योगों के उपस्थित होने पर भूकम्प, भूस्खलन, विनाशकारी झंझा, प्राकृतिक आपदाओं से धन-जन की हानि होती है। इन सभी विषयों का समावेश आचार्यों ने संहिता- स्कन्ध में किया। इसी संहितास्कन्ध से निकलकर मुहूर्तस्कन्ध अपना अलग अस्तित्व स्थापित करने में सफल रहा।

जिस प्रकार ये दैवी आपदाएँ नभचारी ग्रहपिण्डों से नियन्त्रित होती हैं, उसी प्रकार मनुष्य जीवन का विकास भी इनके प्रभाव से अछूता नहीं रहता। व्यक्ति के जन्मकाल में विद्यमान आकाशीय ग्रह-स्थितियाँ उसके जीवन पर स्थायी प्रभाव डालती हैं।

विशिष्ट ग्रह योगों के अनुसार व्यक्ति के जीवन का स्वरूप निर्धारित होता है। कुछ योगों में उत्पन्न व्यक्ति अनन्त वैभवसम्पन्न और सुखी जीवन व्यतीत करता है और दूसरे योग में उत्पन्न व्यक्ति अभावग्रस्त और कष्टमय जीवन व्यतीत करता है। कुछ योग उसे दीर्घायु और कुछ अल्पायु प्रदान करने वाले होते हैं। कुछ जन्म से कुछ ही पलों में कालकवलित हो जाते हैं|

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