Hindi Urdu Aur Hindustani (HB)

Publisher:
Lokbharti
| Author:
Padmsingh Sharma
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Lokbharti
Author:
Padmsingh Sharma
Language:
Hindi
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Hardback

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प्रस्तुत पुस्तक ‘हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी’ भाषा समस्या पर लेखक के विचारों का संकलन है। हिन्दी उर्दू या हिन्दुस्तानी के नामभेद और स्वरूपभेद के कारणों पर विचार हो चुका। इनकी एकता और उसके साधनों का निर्देश भी किया जा चुका। जिन कारणों से भाषा में भेद बढ़ा, उनका दिग्दर्शन भी, संक्षेप और विस्तार के साथ हो गया। हिन्दी और उर्दू के सम्बन्ध में दोनों पक्ष के बड़े-बड़े विद्वानों की सम्मतियाँ सुन चुके। इन सब बातों का निष्कर्ष यही निकला कि प्रारम्भ में हिन्दी-उर्दू दोनों एक ही थीं, बाद को जब व्याकरण, पिंगल, लिपि और शैली भेद आदि के कारण दो भिन्न दिशाओं में पड़कर यह एक-दूसरे से बिलकुल पृथक् होने लगीं, तो सर्वसाधारण के सुभीते और शिक्षा के विचार से इनका विरोध मिटाकर इन्हें एक करने के लिए भाषा की इन दोनों शाखाओं का संयुक्त नाम ‘हिन्दुस्तानी’ रखा गया।
हिन्दी-उर्दू का भंडार दोनों जातियों के परिश्रम का फल है। अपनी-अपनी जगह भाषा की इन दोनों शाखाओं का विशेष महत्त्व है। दोनों ही ने अपने-अपने तौर पर यथेष्ट उन्नति की है। दोनों ही के साहित्य भंडार में बहुमूल्य रत्न संचित हो गए हैं और हो रहे हैं। हिन्दी वाले उर्दू साहित्य से बहुत कुछ सीख सकते हैं। इसी तरह उर्दू वाले हिन्दी के ख़ज़ाने से फ़ायदा उठा सकते हैं। यदि दोनों पक्ष एक-दूसरे के निकट पहुँच जाएँ और भेद बुद्धि को छोड़कर भाई-भाई की तरह आपस में मिल जाएँ तो वह ग़लतफ़हमियाँ अपने आप ही दूर हो जाएँ, जो एक से दूसरे को दूर किए हुए हैं। ऐसा होना कोई मुश्किल बात नहीं है। सिर्फ़ मज़बूत इरादे और हिम्मत की ज़रूरत है, पक्षपात और हठधर्मी को छोड़ने की आवश्यकता है। बिना एकता के भाषा और जाति का कल्याण नहीं।

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प्रस्तुत पुस्तक ‘हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी’ भाषा समस्या पर लेखक के विचारों का संकलन है। हिन्दी उर्दू या हिन्दुस्तानी के नामभेद और स्वरूपभेद के कारणों पर विचार हो चुका। इनकी एकता और उसके साधनों का निर्देश भी किया जा चुका। जिन कारणों से भाषा में भेद बढ़ा, उनका दिग्दर्शन भी, संक्षेप और विस्तार के साथ हो गया। हिन्दी और उर्दू के सम्बन्ध में दोनों पक्ष के बड़े-बड़े विद्वानों की सम्मतियाँ सुन चुके। इन सब बातों का निष्कर्ष यही निकला कि प्रारम्भ में हिन्दी-उर्दू दोनों एक ही थीं, बाद को जब व्याकरण, पिंगल, लिपि और शैली भेद आदि के कारण दो भिन्न दिशाओं में पड़कर यह एक-दूसरे से बिलकुल पृथक् होने लगीं, तो सर्वसाधारण के सुभीते और शिक्षा के विचार से इनका विरोध मिटाकर इन्हें एक करने के लिए भाषा की इन दोनों शाखाओं का संयुक्त नाम ‘हिन्दुस्तानी’ रखा गया।
हिन्दी-उर्दू का भंडार दोनों जातियों के परिश्रम का फल है। अपनी-अपनी जगह भाषा की इन दोनों शाखाओं का विशेष महत्त्व है। दोनों ही ने अपने-अपने तौर पर यथेष्ट उन्नति की है। दोनों ही के साहित्य भंडार में बहुमूल्य रत्न संचित हो गए हैं और हो रहे हैं। हिन्दी वाले उर्दू साहित्य से बहुत कुछ सीख सकते हैं। इसी तरह उर्दू वाले हिन्दी के ख़ज़ाने से फ़ायदा उठा सकते हैं। यदि दोनों पक्ष एक-दूसरे के निकट पहुँच जाएँ और भेद बुद्धि को छोड़कर भाई-भाई की तरह आपस में मिल जाएँ तो वह ग़लतफ़हमियाँ अपने आप ही दूर हो जाएँ, जो एक से दूसरे को दूर किए हुए हैं। ऐसा होना कोई मुश्किल बात नहीं है। सिर्फ़ मज़बूत इरादे और हिम्मत की ज़रूरत है, पक्षपात और हठधर्मी को छोड़ने की आवश्यकता है। बिना एकता के भाषा और जाति का कल्याण नहीं।

About Author

पद्मसिंह शर्मा

जन्म : बिजनौर ज़िले के एक गाँव में 25 फरवरी, सन् 1877 में हुआ था।
शर्मा जी हिन्दी, संस्कृत, फ़ारसी और उर्दू के गहरे ज्ञाता थे। उन्होंने ‘साहित्य’, ‘भारतोदय’ तथा ‘समालोचक’ जैसे पत्रों का सम्पादन भी किया था। ज्वालापुर महाविद्यालय में उन्होंने बहुत दिनों तक अध्यापन किया। उनका घर उस समय के साहित्यकारों का प्रमुख केन्द्र था।
साहित्य-कर्म : हिन्दी में तुलनात्मक समीक्षा के प्रवर्तकों में पद्मसिंह शर्मा का नाम अग्रगण्य है। उन्होंने जुलाई, 1907 की ‘सरस्वती’ में बिहारी और फ़ारसी कवि सादी की तुलनात्मक समालोचना प्रकाशित कराई। इसी अंक में शर्मा जी का एक लेख और था—‘भिन्न भाषाओं के समानार्थी पद्य’। यह निबन्ध क्रमश: ‘सरस्वती’ के अनेक अंकों में निकला और सन् 1911 में जाकर समाप्त हुआ। इसी प्रकार जुलाई, 1908 की 'सरस्वती' में उनका 'संस्कृत और हिन्दी कविता का बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव' प्रकाशित होना शुरू हुआ और सन् 1912 में जाकर समाप्त हुआ। 'सरस्वती', अगस्त, 1909 में उन्होंने ‘भिन्न भाषाओं की कविता का बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव' लिखा। इन बड़े-छोटे निबन्धों में तुलनात्मक आकलन तो नहीं था पर पारस्परिक समता दिखाने की इस प्रवृत्ति ने लोगों को उस दिशा में सोचने के लिए प्रेरित किया। वस्तुत: इन निबन्धों की आधारशिला पर ही आगे चलकर तुलनात्मक समालोचना का ज़ोर बढ़ता है।
निधन : 7 अप्रैल, 1932

 

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