Hindi Upanyas Ka Vikas (HB)

Publisher:
Lokbharti
| Author:
Madhuresh
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Lokbharti
Author:
Madhuresh
Language:
Hindi
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Hardback

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इस बात को जब-जब दोहराया जाता रहा है कि हिन्दी की आलोचना मुख्यत: काव्य केन्द्रित रही है। लेकिन स्वाधीनता के बाद कथा साहित्य में आए रचनात्मक विस्फोट के परिणामस्वरूप आलोचना के केन्द्र बिन्दु में भी बदलाव आना स्वाभाविक था। इसी दौर में कहानी की तरह उपन्यास में भी जिन कुछेक आलोचकों ने सक्रिय, निरन्तर और सार्थक हस्तक्षेप किया है, उनमें मधुरेश का उल्लेख विशेष सम्मान के साथ किया जाता है। अपनी आलोचनात्मक उपस्थिति से उन्होंने आलोचना के प्रति छीजते हुए विश्वास की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए गहरा और निर्णायक संघर्ष किया है।
उपन्यास का सामाजिक यथार्थ से गहरा और अनिवार्य रिश्ता है। आलोचकों ने उसे ऐसे ही गद्य में लिखित महाकाव्य के रूप में परिभाषित नहीं किया है। जीवन की समग्रता में, उसमें निहित सारी जटिलता और अन्तर्विरोधों के साथ, अंकित करने की अपनी क्षमता के कारण ही अपेक्षाकृत बहुत कम समय में उसने यह गौरव हासिल किया है।
‘हिन्दी उपन्यास का विकास’ लगभग एक सौ बीस वर्षों के हिन्दी उपन्यास को उसके सामाजिक सन्दर्भों में देखने और आकलित करने का एक उल्लेखनीय प्रयास है। आज जब उपन्यास में रूपवादी रुझान, निरुद्देश्यता और भाषाई खिलन्दड़ापन घुसपैठ कर रहे हैं, मधुरेश की ‘हिन्दी उपन्यास का विकास’ पुस्तक सामाजिक यथार्थ की ज़मीन पर उपन्यास को देखने-परखने का उपक्रम करने के कारण ही विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट करती है। यहाँ मधुरेश एक व्यापक फलक पर उपन्यासकारों, विभिन्न प्रवृत्तियों और वैचारिक आन्दोलनों की वस्तुगत पड़ताल में गम्भीरता से प्रवृत्त दिखाई देते हैं। उनकी विश्वसनीय आलोचना-दृष्टि और साफ़-सुथरी भाषा में दिए गए मूल्य-निर्णय ‘हिन्दी उपन्यास का विकास’ को एक गम्भीर आलोचनात्मक हस्तक्षेप के रूप में स्थापित करते हैं—उपन्यास की मृत्यु और उसके भविष्य सम्बन्धी अनेक बहसों और विवादों को समेटते हुए।

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इस बात को जब-जब दोहराया जाता रहा है कि हिन्दी की आलोचना मुख्यत: काव्य केन्द्रित रही है। लेकिन स्वाधीनता के बाद कथा साहित्य में आए रचनात्मक विस्फोट के परिणामस्वरूप आलोचना के केन्द्र बिन्दु में भी बदलाव आना स्वाभाविक था। इसी दौर में कहानी की तरह उपन्यास में भी जिन कुछेक आलोचकों ने सक्रिय, निरन्तर और सार्थक हस्तक्षेप किया है, उनमें मधुरेश का उल्लेख विशेष सम्मान के साथ किया जाता है। अपनी आलोचनात्मक उपस्थिति से उन्होंने आलोचना के प्रति छीजते हुए विश्वास की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए गहरा और निर्णायक संघर्ष किया है।
उपन्यास का सामाजिक यथार्थ से गहरा और अनिवार्य रिश्ता है। आलोचकों ने उसे ऐसे ही गद्य में लिखित महाकाव्य के रूप में परिभाषित नहीं किया है। जीवन की समग्रता में, उसमें निहित सारी जटिलता और अन्तर्विरोधों के साथ, अंकित करने की अपनी क्षमता के कारण ही अपेक्षाकृत बहुत कम समय में उसने यह गौरव हासिल किया है।
‘हिन्दी उपन्यास का विकास’ लगभग एक सौ बीस वर्षों के हिन्दी उपन्यास को उसके सामाजिक सन्दर्भों में देखने और आकलित करने का एक उल्लेखनीय प्रयास है। आज जब उपन्यास में रूपवादी रुझान, निरुद्देश्यता और भाषाई खिलन्दड़ापन घुसपैठ कर रहे हैं, मधुरेश की ‘हिन्दी उपन्यास का विकास’ पुस्तक सामाजिक यथार्थ की ज़मीन पर उपन्यास को देखने-परखने का उपक्रम करने के कारण ही विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट करती है। यहाँ मधुरेश एक व्यापक फलक पर उपन्यासकारों, विभिन्न प्रवृत्तियों और वैचारिक आन्दोलनों की वस्तुगत पड़ताल में गम्भीरता से प्रवृत्त दिखाई देते हैं। उनकी विश्वसनीय आलोचना-दृष्टि और साफ़-सुथरी भाषा में दिए गए मूल्य-निर्णय ‘हिन्दी उपन्यास का विकास’ को एक गम्भीर आलोचनात्मक हस्तक्षेप के रूप में स्थापित करते हैं—उपन्यास की मृत्यु और उसके भविष्य सम्बन्धी अनेक बहसों और विवादों को समेटते हुए।

About Author

मधुरेश

जन्म : 10 जनवरी, 1939 को बरेली में एक निम्न-मध्यवित्त परिवार में हुआ। उनकी सारी पढ़ाई वहीं हुई। बरेली कॉलेज, बरेली से अंग्रेज़ी और हिन्दी में एम.ए.। कुछ वर्ष अंग्रेज़ी पढ़ाने के बाद लगभग तीस वर्ष शिवनारायण दास पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज, बदायूँ के हिन्दी विभाग में अध्यापन। 30 जून, 1999 को सेवानिवृत्त होकर पूरी तरह साहित्य में सक्रिय।
प्रकाशित प्रमुख कृतियाँ : ‘आज की हिन्दी कहानी : विचार और प्रतिक्रिया’, ‘यशपाल के पत्र’, ‘सिलसिला : समकालीन कहानी की पहचान’, ‘क्रान्तिकारी यशपाल : एक समर्पित व्यक्ति’ (सं.), ‘देवकीनन्दन खत्री’ (साहित्य अकादेमी के लिए), ‘सम्प्रति : समकालीन हिन्दी उपन्यास में संवेदना और सरोकार’, ‘रांगेय राघव’ (साहित्य अकादेमी के लिए), ‘राहुल का कथा-कर्म’, ‘हिन्दी कहानी का विकास’, ‘हिन्दी कहानी : अस्मिता की तलाश’, ‘हिन्दी उपन्यास का विकास’, ‘नई कहानी : पुनर्विचार’, ‘यह जो आईना है’ (संस्मरण); ‘परिवेश' के आलोचक प्रकाश चन्द्र गुप्त पर केन्द्रित अंक के अतिथि सम्पादक, ‘अमृतलाल नागर : व्यक्तित्व और रचना संसार’, ‘भैरव प्रसाद गुप्त’ (साहित्य अकादेमी के लिए), ‘मैला आँचल का महत्त्व’ (सं.), ‘दिव्या का महत्त्व’, ‘और भी कुछ’, ‘हिन्दी उपन्यास : सार्थ की पहचान’, ‘यशपाल के पत्र’, ‘कहानीकार जैनेन्द्र कुमार : पुनर्विचार’, ‘हिन्दी आलोचना का विकास’, ‘मेरे अपने रामविलास’, ‘भारतीय लेखक : यशपाल’ पर केन्द्रित विशेषांक के अतिथि सम्पादक, ‘यशपाल रचना संचयन’ (सं.) (साहित्य अकादेमी के लिए), ‘यशपाल : रचनात्मक पुनर्वास की एक कोशिश’, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा : पाठ और पुनर्पाठ’ (सं), ‘यशपाल रचनावली की भूमिकाएँ’, ‘मार्क्सवादी आलोचना और फणीश्वरनाथ रेणु’ (सं.), ‘जुझार तेजा : लज्जाराम मेहता’ (सं.) ‘रजिया सुल्ताना बेग़म उर्फ़ रंग-महल में हालाहल : किशोरीलाल गोस्वामी’ (सं.), ‘अश्क के पत्र’, ‘सौन्दर्योपासक ब्रजनन्दन सहाय’ (सं.)।
सम्मान : ‘समय माजरा सम्मान’, राजस्थान (2004); ‘गोकुलचन्द्र शुक्ल आलोचना पुरस्कार’, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल शोध संस्थान, वाराणसी (2004); राज्यपाल/कुलाधिपति द्वारा महात्मा ज्योतिबा फुले रुहेलखंड विश्वविद्यालय की कार्य परिषद् में नामित (2009)।

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