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Ek Kasbai Ladki Ki Diary

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
अनामिका
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
अनामिका
Language:
Hindi
Format:
Hardback

193

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1-4 Days

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Book Type

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SKU 9789389012989 Category
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Page Extent:
104

हमारा शहर शाम सात बजे मच्छरदानियाँ तानना शुरू कर देता! घर के बरामदे पर ही सारी खाटें निकाली जाती और मुसहरी का एक सिरा अमरूद के पेड़ की डाल पर, एक बिजली के खम्भे पर, एक इस दरवाज़े की सिटकनी पर, दूसरा पड़ोस के दरवाज़े की। थोड़ी हम लुकाछिपी खेलते, थोड़ी देर माता-पिता के साथ कविता की अन्त्याक्षरी, फिर जब सब सो जाते और मुझे नींद न आती तो मेरा मन करता-आस-पास की सब मुसहरियाँ खोलकर झाँकूँ कि कौन क्या कर रहा है, किसका मुँह खुला है, कौन क्या बड़बड़ा रहा है। धीरे-धीरे बड़ी हुई तो लगा कि दुनिया के हर चेहरे पर और हर दिल पर एक अदृश्य मच्छरदानी कबीरदास के यूँघट का पट बनकर झूल रही है और मेरा तो काम ही नहीं चलने वाला टूका लगाये बिना। एक तकनीक तो लोकजीवन से यह सीखी, दूसरी तकनीक जयप्रकाश आन्दोलन से-ख़ासकर उस भाषण में, जहाँ जेपी ने तुलसीदास की एक पंक्ति का पुनर्रोपण नयी राजनीतिक ज़मीन पर कुछ ऐसे किया कि उसका अर्थ ही बदल गया। ‘अब लौ नसानी, अब न नसँहो!’ मुसहरी ब्लॉक से भैया (अमिताभ राजन) भाषण सुनकर आये और जिस तरह मुझे उन्होंने इसकी नयी व्याप्ति समझायी, उससे ही अन्तःपाठीय गपशप का मर्म पहली बार उद्घाटित हुआ, ठीक वैसे कीर्तिशेष पिता (श्यामनन्दन किशोर) से कविताओं की अन्त्याक्षरी खेलते हुए या रात में उनकी कविताएँ सुनते हुए, नवों रस और अनगिनत ध्वनियों के सम-विषम मेल में घटित ‘मोंताज़ तकनीक’ का मर्म धीरे-धीरे समझ में आने लगा था। “कई-कई ध्वनियाँ कुण्डलिनी-सा गुंजलक मारे भाषिक अवचेतन में सोयी होती हैं, जिन्हें धैर्य से धीरे-धीरे जगाना होता है, तब खुलते हैं वजूद के रंगमहल के वे दसों दरवाज़े।… कला का मूल धर्म है विरुद्धों का सामंजस्य! रस के सन्दर्भ में या किसी भी प्रसंग में हो शुद्धतावादी होने की ज़रूरत नहीं-ज़्यादातर सन्दर्भो में नवों रस घुल-मिलकर बहते हैं।”

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Description

हमारा शहर शाम सात बजे मच्छरदानियाँ तानना शुरू कर देता! घर के बरामदे पर ही सारी खाटें निकाली जाती और मुसहरी का एक सिरा अमरूद के पेड़ की डाल पर, एक बिजली के खम्भे पर, एक इस दरवाज़े की सिटकनी पर, दूसरा पड़ोस के दरवाज़े की। थोड़ी हम लुकाछिपी खेलते, थोड़ी देर माता-पिता के साथ कविता की अन्त्याक्षरी, फिर जब सब सो जाते और मुझे नींद न आती तो मेरा मन करता-आस-पास की सब मुसहरियाँ खोलकर झाँकूँ कि कौन क्या कर रहा है, किसका मुँह खुला है, कौन क्या बड़बड़ा रहा है। धीरे-धीरे बड़ी हुई तो लगा कि दुनिया के हर चेहरे पर और हर दिल पर एक अदृश्य मच्छरदानी कबीरदास के यूँघट का पट बनकर झूल रही है और मेरा तो काम ही नहीं चलने वाला टूका लगाये बिना। एक तकनीक तो लोकजीवन से यह सीखी, दूसरी तकनीक जयप्रकाश आन्दोलन से-ख़ासकर उस भाषण में, जहाँ जेपी ने तुलसीदास की एक पंक्ति का पुनर्रोपण नयी राजनीतिक ज़मीन पर कुछ ऐसे किया कि उसका अर्थ ही बदल गया। ‘अब लौ नसानी, अब न नसँहो!’ मुसहरी ब्लॉक से भैया (अमिताभ राजन) भाषण सुनकर आये और जिस तरह मुझे उन्होंने इसकी नयी व्याप्ति समझायी, उससे ही अन्तःपाठीय गपशप का मर्म पहली बार उद्घाटित हुआ, ठीक वैसे कीर्तिशेष पिता (श्यामनन्दन किशोर) से कविताओं की अन्त्याक्षरी खेलते हुए या रात में उनकी कविताएँ सुनते हुए, नवों रस और अनगिनत ध्वनियों के सम-विषम मेल में घटित ‘मोंताज़ तकनीक’ का मर्म धीरे-धीरे समझ में आने लगा था। “कई-कई ध्वनियाँ कुण्डलिनी-सा गुंजलक मारे भाषिक अवचेतन में सोयी होती हैं, जिन्हें धैर्य से धीरे-धीरे जगाना होता है, तब खुलते हैं वजूद के रंगमहल के वे दसों दरवाज़े।… कला का मूल धर्म है विरुद्धों का सामंजस्य! रस के सन्दर्भ में या किसी भी प्रसंग में हो शुद्धतावादी होने की ज़रूरत नहीं-ज़्यादातर सन्दर्भो में नवों रस घुल-मिलकर बहते हैं।”

About Author

राष्ट्रभाषा परिषद् पुरस्कार, भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर पुरस्कार, ऋतुराज सम्मान, साहित्यकार सम्मान से शोभित अनामिका का जन्म 17 अगस्त, 1961, मुजफ्फरपुर, बिहार में हुआ । इन्होंने एम.ए., पीएच.डी.( अंग्रेजी), दिल्ली विश्वविद्यालय से प्राप्त की । तिनका तिनके पास (उपन्यास),कहती हैं औरतें (सम्पादित कविता संग्रह) प्रकाशित हैं । वर्तमान में रीडर,अंग्रेजी विभाग, सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय ।

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